आज से लगभग सात सौ बरस पहले की भाषा और ऐसी सरल ऐसी आमफहम ... आज प्रचलित हिन्दी भाषा का ऐसा स्पष्ट रूप....बीच के इतने वर्षों में यह कितने - कितने चोले बदलती रही और 'बहता नीर' बनकर अविराम बह रही है.-
सजन सकारे जाँयगे नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर ,भोर कभी ना होय..
अमीर खुसरो ( १२५३ - १३२५ ) का ध्यान आते ही मुझे एटा जिसे का वह छोटा - कस्बा पटियाली दिखाई देने लगता है जहाँ मैं आज तक गया नहीं. मुझे भारतीय इतिहास के वे पात्र भी इखाई देने लगते हैं जिनके दरबारों उनकी शायरी के नायाब नमूने गूँजते रहे होंगे .इतिहास की चलनी से जो भी छनकर हमारे पास तक पहुँचा है वह कितना अमूल्य है यह संगीतकारों ने बखूबी महसूस कराया है. उर्दू की पढाई - लिखाई की कोई ठोस जानकारी मेरे पास नहीं है किन्तु हिन्दी के उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम की अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि 'हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने.
आज बस इतना ही हिन्दी - उर्दू - हिन्दुस्तानी के उद्भव और विकास और भाषा के सवाल पर विवाद और वैषम्य के मसले पर फिर कभी.. आइये सुनते हैं बारम्बार साधी ,सुनी और सराही गई यह रचना - छाप तिलक सब छीनी.... हिन्दुस्तानी शायरी के प्रणम्य पुरखे अमीर खुसरो के शब्द और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब का स्वर...
सजन सकारे जाँयगे नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर ,भोर कभी ना होय..
अमीर खुसरो ( १२५३ - १३२५ ) का ध्यान आते ही मुझे एटा जिसे का वह छोटा - कस्बा पटियाली दिखाई देने लगता है जहाँ मैं आज तक गया नहीं. मुझे भारतीय इतिहास के वे पात्र भी इखाई देने लगते हैं जिनके दरबारों उनकी शायरी के नायाब नमूने गूँजते रहे होंगे .इतिहास की चलनी से जो भी छनकर हमारे पास तक पहुँचा है वह कितना अमूल्य है यह संगीतकारों ने बखूबी महसूस कराया है. उर्दू की पढाई - लिखाई की कोई ठोस जानकारी मेरे पास नहीं है किन्तु हिन्दी के उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम की अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि 'हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने.
आज बस इतना ही हिन्दी - उर्दू - हिन्दुस्तानी के उद्भव और विकास और भाषा के सवाल पर विवाद और वैषम्य के मसले पर फिर कभी.. आइये सुनते हैं बारम्बार साधी ,सुनी और सराही गई यह रचना - छाप तिलक सब छीनी.... हिन्दुस्तानी शायरी के प्रणम्य पुरखे अमीर खुसरो के शब्द और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब का स्वर...
6 टिप्पणियां:
आनंद में हूँ .....
सही कै रये हो चच्चा !
वैसे मैंने बी0ए0 में हिंदी भाषा पढाते और एम0ए0 में उर्दू साहित्य का इतिहास पढाते अमीर खुसरों पर एक लम्बी टीप लिखई है बच्चों को।
सही है भाई। यह बहुमुखी प्रतिभा हिन्दी साहित्य और भाषा के इतिहास में अपना समुचित स्थान नहीं पा सकी है।
आ पिया इन नैनन मे--अपनी सी रंग दीन्ही--मोसे नैना मिलाय के--जितनी बार सुना जाता है…हर बार नये ढंग से खिलती है ये रचना-
गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डाले केश , चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देश ! हिन्दवी -हिन्दी .....शीर्षक ने ही मन मोह लिया और बाकी कसर ' छाप तिलक ....' ने पूरी करदी !भाषा पर इतनी अच्छी और सरस पकड़ है आपकी कि हर गद्य ललित निबंध लगता है ! विश्वाश है सराबोर करते ही रहेंगे !
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