सोमवार, 4 अगस्त 2014

अत्यल्प है यह आयु , यह देह, यह आँच

इस बीच  अपने इस  ब्लॉग पर निरन्तरता का निर्वाह करने में कुछ कठिनाई , कुछ , व्यस्तता, कुछ आलस्य और कुछ  बस यों ही - सा रहा। इस बीच पढ़ना तो बदस्तूर जारी रहा लेकिन लिखत का काम बहुत कम हुआ।आज एक कविता लिखी है ; उसे साझा करने का मन है। कोशिश रहेगी कि  अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी का  क्रम भंग न हो  और न ही  कोई लम्बा विराम खिंच जाय। सो, आज साझा है ,बहुत दिनों बाद लिखी अपनी एक कविता......


अभी तो यह क्षण

किस टेक पर टिकी है पृथ्वी
क्या पता किस ओट पर उठँगा है आकाश
वह कौन -सी ताकत है पेड़ों के पास
कि वे शान से मुँह चिढ़ा जाते हैं गुरुत्वाकर्षण को ?

यह जरूरी नहीं कि सबको सब पता हो
सोचो, कौन चाहेगा
कि रह्स्यहीन हो जाए सारा कार्य व्यापार
और हम अनवरत देख पायें चीजों के आरपार
अगर उधड़ जाए हर बात का रेशा-रेशा
तो कैसे कहेगा कोई कि बात कुछ बन ही गई।

अभी तो , तुम हो बस तुम
मैं कहाँ हूँ क्या पता ; कौन जाने
अभी तो
एक बात है शब्दहीन
एक लय है तुममें होती हुई विलय
अभी तो
किसी दुनिया में
तुम हो
मैं हूँ
स्वप्न और यथार्थ के संधिस्थल पर थिर।

बहुत कम है एक समूचा जीवन
अत्यल्प है यह आयु , यह देह,  यह आँच
कितनी लघु है तुम्हारी केशराशि तले अलोप हुई वसुधा
हस्तामलक है तुम्हारी चितवन से सहमा व्योम
कुछ नही ; कुछ भी तो नही
अभी तो
अनन्त अशेष असमाप्य अनश्वर है बस यह क्षण।
.............


( चित्रकृति : साइमन रश्फील्ड की पेंटिंग 'लवर्स' / गूगल छवि से साभार)

7 टिप्‍पणियां:

Asha Lata Saxena ने कहा…

बहुत भावपूर्ण रचना |

मन के - मनके ने कहा…

जीवन--एक रहस्य एक रोमांच--
और एक बच्चे की पुछी हुई स्लेट है---रोज लिखिये नई इबारतें.

Pratibha Verma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

कविता के साथ चित्र भी बहुत अच्छा लगा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-08-2014) को "अत्यल्प है यह आयु" (चर्चा मंच 1700) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

बहुत सुंदर

Asha Joglekar ने कहा…

यह रहस्य ही जीवन को सुसह्य बनाता है। बहुत गहरी रचना‍