रविवार, 11 अगस्त 2013

सुबह की कुछ कहानियाँ

'पेड़ों के झुनझुने
बजने लगे ;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।'
                  -सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  ( 'उठ मेरी बेटी सुबह हो गई' कविता से )

सुबह की कुछ कहानियाँ

०१- आज सुबह - सुबह हिन्दी का अख़बार नहीं आया। फीकी चाय कुछ ज्यादा ही फीकी लगी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि  अख़बार बाँटने वाला वह लड़का नहीं आया जिसका पूरा नाम भी मुझे नहीं मालूम । हो सकता है कल रात तक  अखबार छापने  वालों के पास छपने लायक कोई ख़बर ही न रही हो। यह भी  हो सकता है कि अख़बार बाँटने वाले  वाले लड़के तबीयत खराब हो गई हो। अब जो भी हो , पहली बात को मैं सच होते हुए देखना चाहता हूँ और दूसरी बात की संभावित सच्चाई  को पूरी तरह झूठ साबित करना चाहता हूँ।साथ ही  खुद से सवाल करने से भी बच रहा हूँ  कि कल सुबह मैं किसका इंतजार करूंगा , अख़बार का या कि  उस लड़के का जिसका पूरा नाम भी मुझे नहीं मालूम?

०२-  आज सुबह - सुबह एक कवि ने फोन पर 'नागपंचमी' की ' बहुत - बहुत हार्दिक बधाई' दी। जवाब में मैं  उन्हें  तुरंत कुछ न  बोल सका ; शुक्रिया या 'सेम टु यू' जैसा कुछ भी नहीं। वे  इधर बीच पत्रिकाओं में अपनी कविताओं के छपने की खबर देते रहे , साथ ही हिदायत भी अगर नहीं पढ़ा अब तक तो पढ़ लेना जरूर। उस वक़्त  बस दो चीजें सहसा याद आईं - एक तो गाँव की नागपंचमी जिसे अपन 'पचैंया' कहा करते थे  और दूसरी अज्ञेय की कविता 'साँप'। 'पचैंया' अब स्मृतियों में है और 'साँप' अब किताबों में। कुर्सी पर बैठा- बैठा ध्यान से बुकशेल्फ़ को निरख रहा हूँ। काँच के पल्ले के पार रखी पुरानी डायरी के भीतर  से दो चमकीली आँखें चमक रही हैं।

०३- आज सुबह - सुबह सब्जी बाज़ार की लगभग नियत - नियमित रविवासरीय सैर की। यह दुकानों - फड़ों  पर हरापन सजने का समय होता है और कूड़ागाड़ी की सड़ाँध से साक्षात्कार का भी। मात्र  पचास रुपए में बिक रहे एक किलो प्याज  को जी भर देखा किया। इधर से उधर घूमकर अरबी के पत्ते की खोज की , न मिला आज की छुट्टी के दिन भी । लगता है कि इस बार की बरसात बिना 'रिकवँछ' सेवन किए ही बीत -सी जाएगी। 'रिकवँछ' बूझ रहे हैं न आप? मैं तो महीने भर से बस बूझ - समझ  ही रहा हूँ।

०४- आज सुबह- सुबह कल रात मे फेसबुक साझा किए मेरे स्टेटस पर भाई अजेय ने बाबा मीर के शेर 'आगे किसू के क्या करें, दस्ते तमअ दराज़ / वो हाथ सो गया है, सिरहाने धरे-धरे। ' में आए 'तमअ' शब्द का आशय  / अर्थ जानना चाहा चाहा। बाबा मीर का यह शेर मुझे बहुत पसंद है। 'तमअ' या 'तमा' का अर्थ भी  पता है लेकिन तसदीक के लिए उर्दू - हिन्दी शब्दकोश  में उतरना हुआ। 'लोभ' व /या 'लालच' का अर्थ व्यक्त करने वाले इस शब्द के अन्य समानार्थी शब्दों की अदृश्य उपस्थिति को आज की  कविता के संसार के  आसपास देखकर डर लगता है।

०५- आज सुबह नाश्ते में बासी रोटी + दो मिनट में तैयार हो जाने वाली ताजी  मैगी के साथ  खूब सारे बीजों वाला पियराया  अमरूद और बिल्कुल बिना बीज का टहटह लाल पपीता खाया। रोटी तो  अपनी रोटी है ; उससे कोई सवाल नहीं , शुक्रिया जरूर। मैगी से  क्या पूछूँ ; किस भाषा में पूछूँ समझ नहीं आता पर मेरे अमरूद प्यारे तुम इस पृथ्वी पर तोते, सुग्गे और चिड़िया - चुरगुन की बदौलत  बचे रहोगे। चिड़ियों की उड़ान में तुम्हारे बीज भी शामिल होंगे लेकिन ये तो बताओ पपीते भाई कि बिना बीज तुम  आ कहाँ से रहे हो भला और कितनी दूर तक हमें ले जाओगे ? क्या कहूँ,  मुझे तो चिड़ियों के खिलाफ़ साजिश लगती है तुम्हारे भीतर के बीजों का गायब कर दिया जाना।

** 'बदतमीज़ी बन्द करो
     लालटेनें मन्द करो
     बल्कि बुझा दो इन्हें एकबारगी
     शाम तक लालटेनों में मत फँसाए रखो अपने हाथ
     बल्कि उनसे कुछ गढ़ो हमारे साथ-साथ।'
                   -- भवानी प्रसाद मिश्र ( 'सुबह हो गई है' कविता से ) 
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( चित्र : अदिति देवधर की पेंटिंग 'बर्ड्स आन पपाया ट्री' / गूगल छवि से साभार )

9 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बेहतरीन।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत सुंदर उम्दा पोस्ट ,,,

RECENT POST : जिन्दगी..

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बेहद संज़ीदा कहानियां हैं चचा। इधर इस शिल्‍प में लिखी जा रही ठस-बौद्धिक और निरर्थक कहानियों के बरअक्‍स हमारे जीवन के इर्दगिर्द आत्‍मीय गुनगुनाती हमारी संवेदनाओं में नया-नया जोड़ती इन कहानियों का अलग मोल है।

लीना मल्होत्रा ने कहा…

vaah ek nai vidha ka janm ho raha hai.. siddheshvar ji .. bahut badhiya post

लीना मल्होत्रा ने कहा…

bahut badhiya post.. yuun laga ek nai vidha ka janm ho raha hai .. behad sahaj phir bhi din ke kai lamhon ko uthakar shabdon me piroti hui..

पारुल "पुखराज" ने कहा…

बहुत अच्छी लगीं ..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रोचकता से भरी सुबह..

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत खूब!