तुम्हें निहारता रहा
बस यूँ ही
देर तक।
सहसा
सुनाई दी
वसन्त की धमक।
बस यूँ ही
देर तक।
सहसा
सुनाई दी
वसन्त की धमक।
आज बारिश नहीं हुई। आज दिन भर लगभग ठीकठाक -सी धूप खिली रही। जाड़े की 'टापुर टुपुर' वाली नहीं तेज वाली बारिश में दो दिन की जंगल व पहाड़ की यात्रा से लौटकर देह को आज थोड़ी तपन , थोड़ी राहत मिली। परसों वसंतपंचमी के दिन सुनने को मिला था कि क्या सचमुच वसंत आ गया? आमों पर बौर नहीं आए अभी। जंगल में डोलती तेज हवा को (अब भी ) पेड़ों से पत्ते गिराते हुए देखा जा सकता है। कुछ - कुछ उफनाए बरसाती नाले का साक्षात्कार हमने भी किया कल और परसों। अपने भीतर व आसपास वसंत के होने उसके आगमन को महसूस करते हुए स्थूल रूप में वसंत के न होने को भी देखा, देख रहा हूँ 'ग्रामीण नयन से।' वसन्त है, उसके होने पर कोई शुबहा नहीं है लेकिन वह उस रूप में धूप में , मौसम में, खेत में , जंगल , पहाड़ , मैदान में नहीं दीखता है जैसा कि कभी वह प्रत्यक्ष हुआ करता था। बार - बार सोचने का मन होता है कि कहीं हमारी लालसाओं और लोभ नें वसुन्धरा पर अवसरानुकूल उसके प्रकट होने की राह छेंकी है ? आज से दो साल पहले इसी तरह की सर्दी के बीच वसन्त को याद करते हुए एक कविता लिखी थी जो 'नवगीत की पाठशाला' ब्लॉग पर प्रकाशित भी हुई थी आज उसे यहाँ 'कर्मनाशा' पर साझा कर रहा हूँ , आइए इसे देख्ते हैं......
आ गया वसंत
शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !
क्या पता कैलेन्डर को
सर्दी की मार क्या है।
कोहरा कुहासा और
चुभती बयार क्या है।
काटते हैं दिन एक एक गिन
याद नहीं कुछ भी कि तीज क्या त्यौहार क्या है।
वह तो एक कागज है निर्जीव निष्प्राण
हम जैसे प्राणियों के कष्ट हैं अनन्त।
माना कि व्योम में
हैं उड़ रहीं पतंगें।
और महाकुम्भ में
हो रहा हर गंगे।
फिर भी हर नगर हर ग्राम में
कम नहीं हुईं अब भी जाड़े की तरंगें।
बोलो ऋतुराज क्या करें हम आज
माँग रहे गर्माहट सब दिग - दिगन्त ।
माना इस समय को
जाना है जायेगा ही।
यह भी यकीन है
कि मधुमास आयेगा ही।
फिर भी अभी और दिन भी
जाड़े का जाड़ापन ही जी भर जलायेगा ही।
आओ ओस पोंछ दें पुष्पमय सवारी की
मठ से अब निकलेंगे वसन्त बन महन्त।
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3 टिप्पणियां:
धीरज रक्खो मित्रवर,छायेगा मधुमास।
धीप सुहानी खिलेगी, आयेगा उल्लास।।
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आज के चर्चा मंच पर भी आपका लिंक है!
nice-
बहुत सुन्दर, ठाठ बाट से निकलेगा बसन्त..
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