बीत गई अब दीपावली। आज छत से पटाखों के खुक्खल और बुझे दिए समेट दिए गए। मोमबत्तियों की खुरचन बुहार कर फेंक दी गई। धनतेरस से शुरु हुआ उत्सव का राग अब लगभग समापन के विराग की ओर अग्रसर है। पता नहीं क्यों मुझे अक्सर समापन से अधिक उपयुक्त और सही शब्द संपन्नता लगता है , कल्मीनेशन। लेकिन फिर सोचता हूँ कि किस बात की संपन्नता ? क्या स्मृति के कोठार में संचित अतीत के 'रास' की संपन्नता ? एक तरह का निजी स्मृति लेखा , स्वरचित स्मृति राग , नानस्टाप नास्टैल्जिया या निरंतर नराई ? गोधन बीता, आज भैया दूज बीत रही है। इसके बाद पिड़िया पारने - सिराने और कुछ दिन बाद डाला छठ के साथ त्योहारों की इस मौसमी खेप का एक अल्पविराम आने वाला है। आज कंप्यूटर पर कुंजीपटल से उंगलियों जुगलबंदी करते हुए त्योहारों के ये सब जितने भी नाम याद कर लिख रहा हूँ लगता है कि वे आज केवल लिखने भर के लिए ही रह गए हैं शायद ! एक तरह से स्मृति के बही खाते का एक इंदराज ; समय के अनंत सफे पर पर्व की एक प्रविष्टि मात्र !
अभी कुछ देर पहले कस्बे के बाजार की ओर गया खरीददारी के लिए जाना हुआ था। रास्ते में पश्चिम के आकाश में क्षितिज से कुछ ही हाथ ऊपर द्वितीया का चाँद दिखाई दे रहा था , एक सुनहरे चमकदार हँसिए की तरह का सुंदर अकेला चाँद। कल्पना करता हूँ शायद इसी हँसिए से काटी जाती होगी व्योम के विस्तीर्ण खेतों की फसल और दँवाई - गहाई के फलस्वरूप आकाश में बिखर जाता होगा होगा तारकदल रूपी अन्न का असमाप्य रास। लेकिन यह तो कल्पना है न , मन के दर्पण का नितांत निजी छायावाद । ऐसा कहीं होता है क्या ! यह सब सोचना - देखना कविता में तो संभव हो सकता है लेकिन दैनंदिन जीवन में तो नहीं ही। तो क्या जीवन के बाहर है कविता का जीवन या फिर कविता में जो जीवन है उसकी इस जीवन से कोई संगति- सहमति- सम्मति नहीं ?
कल का आधा से अधिक दिन एक जीवंत नदी किनारे बीता। एक ऐसी नदी जिसका जल अब भी निर्मल है। उसके वेग में अब भी नैसर्गिक त्वरा है। उसके किनारे पर पास बसने वाले जीवन में अब भी हर चीज के लिए उत्सुकता है। राह पूछने पर अब भी बताने - पहुँचाने का उत्साह है। नदी पर मँझोले आकार का झूला पुल बना है , स्टील की रस्सियों पर तना - कसा हुआ। मनुष्य के पैरों व साइकिलों - बाइकों की आमद से जब यह डोलता है तो नीचे बहते गतिवान जल को देखकर 'झाँय' बरती है। हम पैदल चल रहे थे। इस प्रांतर में हमारे चौपहिया वाहन की समाई नहीं थी। यह जगह ...केवल दुपहिया - चाहे मशीन या मनुष्य केलिए ही बनी थी यहाँ की धूल - कीचड़ - काँदों वाली राह। हमें नदी के साथ - साथ ही चलना था। ऐसी नदी जिसके दोनो ओर एक जैसा जंगल था , एक जैसे खेत , एक जैसी फसलें , एक जैसे गाय - गोरू और एक जैसे मनुष्य लेकिन नक्शे में इस जगह का नाम था 'नो मैन्स लैंड'। एक ऐसी जगह जहाँ कोई नहीं रहता किन्तु वहाँ जीवन था, नदी की धुरी पर घूमता हुआ जीवन और एक ही छत के नीचे वास करने वाले हम चार जन थे लगभग आधा से अधिक दिन भर।
अभी इस वक्त मैं कंप्यूटर पर कुछ लिख रहा हूँ। पास - पहुँच में न कागज है ,न कलम , न कार्बन। एक सोच है जो गतिमान है और दोनो हाथों की उंगलियाँ भी। यह लिखना भी क्या सचमुच लिखना है ? यह जो दिखाई तो देता है पर इसे छुआ नहीं जा सकता। उंगलिया कुंजीपटल पर नियंत्रित यात्रा कर रही हैं किन्तु उनकी चाल से बनने वाली शब्दों की लकीर का बस आभास ही किया जा सकता है। मन - मस्तिष्क के सीपीयू में लगा प्रोसेसर एक साथ बहुत कुछ प्रोसेस कर कर रहा है - एक साथ कई- कई आयामों और विमाओं में दृश्य -अदृश्य, गोपन- अगोपन, गोचर - अगोचर। कुछ है जो आकार ले रहा है; कुछ है जो बन रहा है फिर कुछ है जिसके बनते ही अधूरा, अल्प व अपूर्ण होने का भान भी होता जा रहा है। फिर भी एक उम्मीद है जो कहना चाहती है कि अभी जो कुछ स्मृति की नदी के तल में विद्यमान है वह कभी न कभी सतह पर जरूर आएगा। वह तो तभी लिख लिया गया जब उसे सोचा गया। बाद का लिखना तो केवल किताबत या टंकण मात्र है। नदी कोई भी हो जल्दबाजी ठीक नहीं, वह बहती है , वह बहेगी अपनी ही चाल में- सदानीरा , वेगवती।
अभी इस वक्त जब मैं कंप्यूटर पर कुछ 'लिख' रहा हूँ। घर अपने क्रिया व्यापार में व्यस्त है। हिमा पढ़ाई कर रही है - फिजिक्स की पढ़ाई। अंचल टीवी पर अपना पसंदीदा नेशनल ज्योग्राफिक चैनल निरख - परख रहा है और शैल रसोईघर में दीवाली के दिन के शेष सूरन की तरकारी बनाने के काम में व्यस्त है। एक तरह से देखा जाय तो कहा जा सकता है कि सब अपने - अपने काम में लगे हैं। यह एक साधारण दृश्य है। पीछे आंगन में फिल्टर से कपड़े धोने के वास्ते पानी छनने की छल- छल ध्वनि आ रही है और बाहर गली में पटाखे फूटने की कर्कश आवाज। किताब के पन्ने पलटने की सरसराहट , टीवी के उद्घोषक का स्वर , कड़ाही में तरकारी के चुरने की खुद - बुद, छन- छुन. और कुंजीपटल की खट - खुट.। कई तरह की आवाजें एक एक ही छत के नीचे डेरा डाले हुए हैं। आज की यह शाम जो लगभग रात होने की संज्ञा को प्राप्त कर रही है कई तरह की आवाजों के एक समुच्चय में शामिल है। इस शामिलबाजे में बहुत सी आवाजें बाहर के ऑर्केस्ट्रा की हैं और ज्यादतर भीतर के कोरस की।
अपने हिस्से का जीवन जीते हुए बहुत सारे काम करता हूँ - सबकी तरह। इन कामों में एक काम पढ़ना - लिखना भी है। सोच रहा हूँ अभी इस वक्त जो कुछ भी लिख रहा हूँ वह किस तरह का का लिखना है ? क्या यह एकालाप - आत्मालाप - प्रलाप है ? या फिर अबोला आत्मसंवाद या कि किसी काम को किए जाने का आभास मात्र ? जो भी है यह जीवन है अपने हिस्से का जीवन जिसकी पूर्णता दूसरे के हिस्सों से जुड़ने से होती है और इसी होने में उसका होना है। इस जीवन में नदी है , जंगल है, कुछ आवाजें हैं और कुछ शब्द जिन्हें देखा जा सकता है पर छुआ नहीं जा सकता । विद्वतजन कहते हैं यह आभासी दुनिया है। इसी दुनिया के भीतर एक दूसरी दुनिया का भास।
उत्सव का राग- रंग अब उतार पर है। जगह- उसके अवशेष स्थूल और सूक्ष्म रूप में आसपास है। खिड़की - द्वार खोलने का अवकाश नहीं है बस सोच रहा हूँ कि आसमान की छत से दूज का चाँद भी क्षितिज तल के घर में उतर गया होगा और अपने हिस्से का काम कर रहा होगा ताकि कल फिर कुछ और उजला और बंकिम होकर उदित हो सके। इस अंतराल में एक पूरी रात है और लगभग पूरा दिन। अब मुझे भी रुक जाना चाहिए । उंगलियाँ थक रही हैं, मन भी कुछ - कुछ । अब विराम - अल्प विराम। समापन नहीं , संपन्नता भी नहीं बस अल्प विराम।
अब यह रात है। दीवाली के बाद भी टँगी लड़ियों - झालरों की रोशनी में डूबती जा रही रात। यह निसर्ग द्वारा प्रदत्त एक सार्वजनिक विराम है , एक अंतराल। देश , काल की कोई बाधा नहीं इस काम में। यह प्रकृति का काम है। अपने होने को सतत सार्थक करता हुआ। चीजें धीरे- धीरे रुक रही हैं या यों कह सकते हैं कि उनके रुके होने का भास हो रहा है हमें।अब मुझे भी रुक जाना चाहिए । बहुत बार सुना - पढ़ा है काम के बाद मशीन को भी आराम जरूर चाहिए होता है ; हम और आप तो फिर भी मनुष्य हैं।
उत्सव का राग- रंग अब उतार पर है। जगह- उसके अवशेष स्थूल और सूक्ष्म रूप में आसपास है। खिड़की - द्वार खोलने का अवकाश नहीं है बस सोच रहा हूँ कि आसमान की छत से दूज का चाँद भी क्षितिज तल के घर में उतर गया होगा और अपने हिस्से का काम कर रहा होगा ताकि कल फिर कुछ और उजला और बंकिम होकर उदित हो सके। इस अंतराल में एक पूरी रात है और लगभग पूरा दिन। अब मुझे भी रुक जाना चाहिए । उंगलियाँ थक रही हैं, मन भी कुछ - कुछ । अब विराम - अल्प विराम। समापन नहीं , संपन्नता भी नहीं बस अल्प विराम।
अब यह रात है। दीवाली के बाद भी टँगी लड़ियों - झालरों की रोशनी में डूबती जा रही रात। यह निसर्ग द्वारा प्रदत्त एक सार्वजनिक विराम है , एक अंतराल। देश , काल की कोई बाधा नहीं इस काम में। यह प्रकृति का काम है। अपने होने को सतत सार्थक करता हुआ। चीजें धीरे- धीरे रुक रही हैं या यों कह सकते हैं कि उनके रुके होने का भास हो रहा है हमें।अब मुझे भी रुक जाना चाहिए । बहुत बार सुना - पढ़ा है काम के बाद मशीन को भी आराम जरूर चाहिए होता है ; हम और आप तो फिर भी मनुष्य हैं।
7 टिप्पणियां:
स्मृतियों का रेला छूटा,
हलचल छूटी, मेला छूटा,
संग जीने की जिद चलती है,
जब भी राह अकेला छूटा।
कल्मिनेशन ...मुझे भी रास आता है यह शब्द.
एक उत्सव को समेटना एक अद्भुत थोट है . हम समेटना भी नही चाहते और समेट लेना भी चाह्ते हैं ..... आखिर जीवन ये अवषेष ही तो हैं !..... क्या कीजिएगा इस का . जियो प्यारे . इस को जी ही सकते हो . सिद्धेश्वर के कवि को ऐसे समझने मे मज़ा आता है . :)
किताब के पन्ने पलटने की सरसराहट , टीवी के उद्घोषक का स्वर , कड़ाही में तरकारी के चुरने की खुद - बुद, छन- छुन. और कुंजीपटल की खट - खुट.। bahut sajeev bahut sunder
बहुत सुन्दर चच्चा। आपके गद्य में बांधने के सिरे इतने हैं कि....जल्द बाहर निकलने की सूरत नहीं दिखती... असर बढ़ता नहीं, चढ़ता जाता है।
सुन्दर रचना
बहुत बढ़िया शब्दचित्र...आज 'जनसत्ता ' में।
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