तुम्हारे खेत में आडू का पेड़
लक-दक भर जाये बैजनी फूलों से
और गाँव के ऊपर वाला जंगल
बुरांस के फूलों से जलने लगे
तुम मुझे याद करना...
खेतों की मुडेरों पर
खिलने लगे फ्योली के नन्हें फूल
जिंदगी के हर रंग में
तुम मुझे याद करना...
आज प्रस्तुत हैं गीता गैरोला की कवितायें। गीता जी देहरादून में रहती हैं। स्त्रियों के बीच , उनके साथ रहकर काम करती हैं। स्त्री अधिकारों और उनकी बेहतरी के लिए सतत कार्यरत राष्ट्रीय संस्था 'महिला समाख्या' के उत्तराखंड युनिट की वह राज्य निदेशक हैं। ..और इससे अलग व महत्वपूर्ण यह है कि वह उन लोगों में से एक हैं , जो खूब पढ़ते है , कम लिखते हैं तथा जिनके पास साहित्य तथा समाज को देखने समझने की साफ दृष्टि मौजूद होती है। आइए, इन कविताओं के संग - साथ चलते हैं हम भी ...
लक-दक भर जाये बैजनी फूलों से
और गाँव के ऊपर वाला जंगल
बुरांस के फूलों से जलने लगे
तुम मुझे याद करना...
खेतों की मुडेरों पर
खिलने लगे फ्योली के नन्हें फूल
जिंदगी के हर रंग में
तुम मुझे याद करना...
गीता गैरोला की कवितायें
०१- संयोगिता
संयोगिता
ये तेरे गालों के नीले निशान
बाहों पे खूनी लकीरें
किसने बनाई?
ये कल की बात है
धूम से गूँजी थी शहनाई
फलसई रंग के लहगें पर
ओढ़ी थी तूने सुनहरे गोटे वाली ओढ़नी
तेरे गदबदे हाथों पर
महकी थी मेंहदी मह -मह
प्रीत की लहक से
भर गई थी कोख
गर्वीली आँखों से सहलाती थी
जिन्दगी का ओर छोर।
कुछ तो दरक गया है कहीं
ये किस माया की छाया है संयोगिता
जो तू डोल रही है
बसेरे की खोज में
लिए तपता तन -मन
पीत की लहक मेंहदी की महक
कहाँ हिरा गई ?
तू इतना जान से संयोगिता
ठस्से से जीने को
जरूरी है एक दुश्मन।
०२- बुरी औरत
बोलती है
पूरा मांगती है आधा मिलने पर
उसकी आँखों से
झांकता है विरोध
अन्याय का अर्थ समझती है,
मार खाती रोती
जुबान चलाती है।
इच्छाओं आकाक्षाओं से भरी
घर की चाहर दीवारी की
शिकायत कर
बाहर झांकती है बुरी औरत।
०३- ढ़लते निश्चय
रोज होते हैं निश्चय
सुबह से ही शुरू हो जायेंगे छूटे काम
सुबह से दिन
दिन से शाम
शाम रात में ढ़लती है।
रात होते ही, घबराता है मन,
आज भी नहीं हुआ काम पूरा
कल जरूर होंगे शुरू
हमेशा होते हैं
ऐसे ही निश्चय।
०४- छोटे से घर में
जमीन पर बिछे बिस्तर में
बिखरी किताबों के बीच
कभी हंसते कभी नाराज होते
भोर के धुँधलके में
चहल कदमी करते
ताजे अखबार को
पहले पढ़ने के लिए झपटते।
तुम अपनी सैर के किस्से सुनाते
मैं जिद करती
कविताओं को सुनाने की
तुम्हारा ऊब कर जम्हाना
और मेरा चिढ़ जाना
दिन भर की नोक झोंक के साथ
सांझ का अकेलापन बांटते
सहलाते
स्पर्शो की छुअन से
मन की गहराई तक भीगते
हम दोनों।
०५- कहां छिपा है बसंत
नंगे दरख्तों की रगों में
कांच की परतों से ढ़के
नम पत्तों के नीचे
कहां छिपा है बंसत
सन्नाटों की तहों के पार
भूरे तिलस्मी जाल में
कहां छिपा है बसंत
घुघुती की नशीली टेर में
जो चीर देती है हवा का सीना
कहां छिपा है बसंत
सांसों की बूंदें कुरेदती हैं
मिट्टी का ओर-छोर
कहां छिपा है बंसत
धरती के दन्द-फन्दों के बीच
वक्त की नोक पर
कहां छिपा है बंसत
शब्दों के नाद में
नजरों के पंखों पर
कहां छिपा है बंसत ।
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* पेंटिंग : स्वप्ना सुरेश काले / साभार गूगल।
14 टिप्पणियां:
nishchay kavita mann ko chhuu gai.. sabhi kavitayen behtareen..
बस जरा सी देर को मिलना हुआ गीता से दिल्ली में. बहुत सादी और दिल छू लेने वाली, प्यारी कवितायें. आपको शुक्रिया पढ़वाने के लिए.
गीता गहरे सरोकारों वाली महत्वपूर्ण कवयित्री हैं.
दिल छू लेने वाली, कवितायें.......
बहुत बहुत आभार ।
प्रभावित करती कवितायें, परिचय का आभार।
गीता गैरोला जी की कवितायेँ दिल को छु गयी....बहुत बहुत धन्यवाद इन्हें साझा करने के लिए.......
dhanyabad sidheshwar jee
वाकई दिल को छू लेने वाली सच्ची कविताएं हैं।
तू इतना जान से संयोगिता
ठस्से से जीने को
जरूरी है एक दुश्मन।
Bahut khoob !! Negative mein bhi positive dhoondh nikala aapne . Ye hai jijivisha !!
behtareen hai kavitaye ..badhayee
'बुरी औरत' कविता बहुत अच्छी लगी . मुझे वैसे भी ऐसी *बुरी औरतें* अच्छी लगतीं हैं ;)
ख़ूबसूरत , सुन्दर भावाभिव्यक्ति .
कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की १५० वीं पोस्ट पर पधारें और अब तक मेरी काव्य यात्रा पर अपनी राय दें, आभारी होऊंगा .
bahut sundar prastuti
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