लिखत -पढ़त की साझेदारी के इस ठिकाने पर आप विश्व कविता के अनुवादों की सतत उपस्थिति से परिचित होते रहे हैं। इसी क्रम में आज बीसवी शताब्दी की तुर्की कविता के एक बड़े हस्ताक्षर ओक्ते रिफात ( १९१४ - १९८८) के रचना संसार की एक झलक से रू-ब- रू किया जाय। तुर्की में 'नई 'कविता' आन्दोलन के इस प्रमुख रचनाकार का विस्तृत जीवन परिचय तथा कुछ और कवितायें जल्द ही । आज और अभी तो बस...
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१- कृतज्ञता ज्ञापन
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
अपने जूतों का
अपने कोट का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
गिरती हुई बर्फ़ का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
आज का
आज के इस आनंदमय क्षण का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
धरती और आकाश का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
उन सितारों का जिनका नाम भी नहीं मालूम।
प्रार्थना करो
कि मैं बन जाऊँ पानी
कि मैं बन जाऊँ आग।
०२- पत्नी के लिए
सभागारों में शीतलता व्याप रही है तुमसे
कोठरियों में
तुम्हारे साथ उतर आया है प्रकाश
तुम्हारे बिछावन में
आँख खोल रही है सुबह
ताकि शुरू हो सके पूरे दिन भर की खुशी।
हम एक ही सेब की दो समान फाँकें हैं
एक ही हैं हमारे दिन और रात
एक ही हैं हमारे घर।
तुम्हारे कदम
जहाँ - जहाँ पड़ते हैं
वहाँ - वहाँ मुदित होकर बढ़ती जाती है घास
और जहाँ - जहाँ से
गुजर जाती हो तुम
वहाँ - वहाँ से दाखिल होने लगता है अकेलापन।
8 टिप्पणियां:
सुन्दर!
न जाने कितनी बातों के लिये हमें कृतज्ञ होना चाहिये।
... sundar post !!!
आपको पढ़ के ऐसा लगा आज खजाने से कोई नया मोती पा लिया ..
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सामाजिक सरोकार से जुड़ के सार्थक ब्लोगिंग किसे कहते
नहीं निरपेक्ष हम जात से पात से भात से फिर क्यों निरपेक्ष हम धर्मं से..अरुण चन्द्र रॉय
आप विदेशी कवियों की पहचान हमसे भी करवा रहे हैं! दुर्लभ विदेशी साहित्य का आनन्द आपका अनुवाद दे रहा है!
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
Apni-si Kavita!
Thandak bhi, aag bhi!
Aanch bheetar tak jaaye
Toh Taapne ka
Aisa hi anand aaye!
Ro-rom me Aanch!
Prastuti ke liye dhanyawad.
ओक्ते रिफात जी की कविताओं के सुंदर प्रवाहमयी अनुवाद और उन्हें पढ़वाने के लिए आभार.
सादर,
डोरोथी.
सुन्दर प्रस्तुति!
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