पिछली पोस्ट में पुरानी डायरी का उल्लेख कर चुका हूं। उसमें से एक कविता भी प्रस्तुत की थी जिसे पसंद भी किया गया. उसी डायरी में से कुछ और..... किसी जमाने में इस नाचीज ने 'मधुकर' उपनाम धरा था. हालांकि बाद में इस नाम / उपनाम से मोहभंग हो गया था और एक हद तक इश्क - मुश्क की शायरी से भी लेकिन अब जबकि पुरानी डायरी नमूदार हुई है तो (पुरानी) शायरी ने भी करवट बदली है, अपनी आमद रवां-दवां की है। , वैसे इस बंदे का तखल्लुस तो 'मधुकर' था लेकिन यार-दोस्तों ने (खासकर अशोक पांडे ने) 'गाजीपुरी' जोड़ कर ऐसी इज्जत बख्शी की उस दौर के एक उभरते शायर (?) ने आगे चलकर शायरी ( कहने और लिखने) से ही मुंह मोड़ -सा लिया. खैर, वह एक अलग किस्सा है. फ़िलहाल पेश ए- खिदमत हैं दो नमूने -
मधुकर गाजीपुरी की दो गजलें
१.
आइए एक खत लिखें हम जिंदगी के नाम.
उम्र की ना - आशना आवारगी के नाम.
मन की सोई झील में कोई लहर लेगी जनम,
छोट - सा कंकड़ उछालें अजनबी के नाम.
बे-शऊरी से हर इक मसरूफ़ है मयखाने में,
यह सदी क्या बिक गई हैअ मयकशी के नाम.
यह गली अंधी गली, गूंगे यहां के सारे घर,
कैसे दे आवाज कोई रोशनी के नाम.
जब कयामत आएगी तो मैं बचाना चाहूंगा,
उसकी खुशबू, उसके किस्से, उस परी के नाम.
२.
जब तेरे शहर से मैं तनहा चला जाऊंगा.
क्या ये मुमकिन है तुझे याद कभी आऊंगा.
एक पहचान थी जो खो गई है जाने कहां,
अजनबीपन को लिये कैसे मुस्कुराऊंगा.
मैं अपने आप की सरहद को छू नहीं सकता,
मैं तेरे प्यार को कैसे गले लगाऊंगा.
हौसला कायम है सहराओं में गुजरने का,
कारवां हो न हो मैं रास्ता बनाऊंगा.
मेरे रकीब! मेरे दोस्त! मेरे दुश्मन! मेरे अजीज!
तेरा खयाल साथ है तो क्या घबराऊंगा.
5 टिप्पणियां:
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
दोंनो रचनाऐं ही खूबसूरत है बधाई मधुकर जी
Dono hi gajalen bahut khoobsoorat. thanks and badhaee !
हम तो पहले ही कहते थे मधुकर 'गाज़ीपुरी' की दुकान चल निकलेगी!
खूब - इसी बात पर
बड़े दिनों से ताल में ठहरा रहा भंवर
अब यहाँ से डूब के जाना है तेरे नाम [ :-)]
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