हमारे समय के सब से ज़रूरी सरोकारों को लेकर वीरेन डंगवाल की अति सचेत कविता इधर के सालों में ज़्यादा पैनी और विस्तृत होती गई है. हिन्दी साहित्य में खूब उद्धृत की जाने वाली "इतने भले नहीं बन जाना साथी, जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी" उनके पहले काव्य संग्रह 'इसी दुनिया में' की एक कविता की शुरुआत है. इस किताब की भूमिका में कवि-अनुवादक-नाटककार नीलाभ जी ने उन्हें "दुर्लभ कविताओं का कवि" बतलाया था. वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं को लेकर बेज़ारी की हद तक लापरवाह आदमी हैं. मुझे याद पड़ता है किस तरह स्वयं नीलाभ ने अनेक अन्य साथियों की मदद से वीरेन जी की यहां वहां बिखरी कविताओं को खोज-समेट कर इस किताब की पांडुलिपि तैयार की थी.उनके अगले संग्रह 'दुश्चक्र में सृष्टा' के आने में दस से अधिक साल लगे. अब उनके तीसरे संग्रह की तैयारी है. इस प्रकाशनाधीन संग्रह की तकरीबन सारी कविताएं तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित इस बड़े कवि का आज जन्मदिन है. आज ही के दिन १९४७ में टिहरी गढ़वाल कीर्तिनगर में जन्मे श्री वीरेन डंगवाल आज इकसठ बरस के हो गये. वह दीर्घायु हों, स्वस्थ -सानंद रहें , निरंतर रचते रहें और देश-दुनिया-जहान में मौजूद तमाम पाठकों-प्रशंसकों की दुआयें उन्हें लगती रहें. 'कर्मनाशा' की ओर से उन्हें बधाई और जन्मदिन मुबारक !
प्रस्तुत हैं अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की दो कविताये-
प्रस्तुत हैं अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की दो कविताये-
बांदा
मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर खुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बात।
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगमरमरी मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार !
मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर खुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बात।
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगमरमरी मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार !
तोप
कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !
( कवि के परिचय में लिखी गई पंक्तियों के लिए अपने दोस्त और 'कबाड़खाना' के मुखिया अशोक पांडे को धन्यवाद )
3 टिप्पणियां:
वाह - ऐसी ही कविताओं की उमर लगे -साभार - मनीष
बहुत आभार.
aabhaar mera bhi
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