यह कहना गलत होगा कि एक थीं अकिला बुआ। सही तो यह कहना होगा कि एक हैं अकिला बुआ. वैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी इलाके में बुआ के लिए फ़ुआ शब्द प्रचलित है लेकिन आज जिस अमर,अनश्वर चरित्र के किस्से पेश किए जा रहे हैं वह तो बुआ हैं ,सबकी बुआ,जगत बुआ- अपनी अकिला बुआ. यह संभव है कि वह कभी, कहीं पैदा होकर, अपने हिस्से का जीवन जीकर मर-खप गई होंगी लेकिन उनके किस्से,उनके कारनामे जीवित हैं और हमेशा बने रहेंगे. अकिला बुआ भोजपुरी इलाके के मौखिक सांस्कृतिक इतिहास का एक ऐसा चरित्र हैं जिनके बारे में कोई भूले से भी यह सवाल नहीं करता कि कि उनका गांव-गिरांव कौन-सा था ,उनका जात-धरम कौन-सा था और सबसे बड़ी बात तो यह है कोई यह संदेह व्यक्त नहीं करता कि वे सचमुच थीं भी या कि यह कोरी गप्प है!
अकिला माने अक्किल वाला और अक्किल माने अकल यानि समझ।अकिला बुआ अपने इलाके की सबसे अधिक अक्किल वाली स्त्री मानी जाती हैं. जिस मुकाम पर आकर सबकी अकल घास चरने चली जाती है उसी बिंदु से अकिला बुआ काम शुरु होता है. वह सबकी समझ को धता बताते हुए अपनी अक्लमंदी का ऐसा मुजाहिरा करती हैं कि बड़े-बड़े समझदारों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती और वे अपनी अद्र्श्य दुम दबाकर खिसक लेने में ही भलाई समझते हैं. यह अलग बात है कि अकिला बुआ की समझदारी प्राय: हर बार हास्यास्पद स्थितियां पैदा कर देती है.लोग-बाग उनके इसी गुण के कारण ही तो कोई पेंच फंसने पर उन्हें बुलाते हैं.
हर सांस्कृतिक इलाका अपनी समझदारी,श्रेष्ठता,बुद्धिमानी और अकल का नगाड़ा बजाने में पीछे नहीं रहता साथ ही अक्सर ऐसा भी होता है कि अपने बौड़मपने और बेवकूफ़ियों को उत्सव में बदलकर आनंदित-प्रमुदित होने की कला भी मनुष्यता का एक गुण है. संभवत: इसी उत्सवधर्मिता की उपज हैं अपनी अकिला बुआ. जिस तरह मिथिलांचल में गोनू झा के किस्से मशहूर हैं लगभग वैसे ही भोजपुरी अंचल में अकिला बुआ के किस्से यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. जब कोई बेवकूफ़ी भरी समझदारी वाला कारनामा अंजाम देता है तो उसे अकिला बुआ कहने की रवायत है- वह चाहे स्त्री हो या पुरुष. अकिला बुआ का आख्यान एक ऐसे चरित्र का आख्यान है जो शायद कभी था ही नहीं और जो कभी खत्म नही होगा. तमाम अवरोधों,अड़चनों और आशंकाओं के बावजूद जब तक भोजपुरी भाषा और संस्क्रिति की अविराम धारा प्रवहमान है तब तक अकिला बुआ हैं, रहेंगी और उनसे जुड़े किस्से कहे-सुने जाते रहेंगे. चलिए आप भी पढ़िये- सुनिये उनके तीन किस्से-
पहला किस्सा - कलकत्ते का सफर
अकिला बुआ का मन हुआ कि कलकता घूम आया जाय. गांव - गिरांव के बहुत सारे लोग वहां रहते हैं .वे जब भी होली-दीवाली-, ईद-बकरीद की छुट्टियों में आते हैं तो उनका इसरार रहता है- ' ए बुआ ! एक बार कलकत्ता घूम लो. बहुत बड़का शहर है कककत्ता ' . इस बार बुआ ने सोचा कि चलो देख ही लें कैसा है कलकत्ता. सो वे दो-चार और लोगों के साथ रेलगाड़ी पर सवार होकर चल पड़ीं.दूसरे दिन जब एक बड़े-से स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो लोगों ने कहा आ गया कलकत्ता, चलो उतरो. बाहर लाल-लाल कपड़े पहने कुली चिल्ला रहे थे : हबड़ा-हबड़ा . अकिला बुआ ने अपनी साड़ी घुटनों तक उठाकर कछान मार ली और अपने साथियों को हिदायत देने लगी - ' सब लोग धोती-लुंगी ऊपर उठा लो लगता है यहां तो बहुत हबड़ा है.' साथी घबरा गए- ' अरे गांव में हबड़ा और यहां भी हबड़ा.' बुआ ने कहा -' देखा ! मैं इसी मारे न आती थी , अब भुगतो सब जने.' धन्य हैं हमारी अकिला बुआ. उन्हें किसी ने बताया ही नहीं था हाबड़ा स्टेशन का नाम है, वे तो भोजपुरी भाषा के 'हबड़ा' शब्द से घबरा गई थीं . हबड़ा माने -कीचड़, दलदल.
दूसरा किस्सा - कान का झब्बा
गांव में किसी का गौना हुआ. दुलहिन घर आई. औरतों का जमघट लग गया. किसी ने खुले आम तो किसी ने दबी जुबान में बतकुच्चन की कि दुलहिन ऐसी है तो वैसी है. किसी को वह खूबसूरत लगी तो किसी को भैंगी. किसी ने उसके मुखड़े की तारीफ़ की तो किसी ने तलवों की. दुलहिन बेचारी चचिया सास, ददिया सास ,ममिया सास आदि -इत्यादि के पैर छूते-छूते पस्त हो चली थी. खैर, दुलहिन का बक्सा खोला गया . बाकी सारी चीजें तो सासों, गोतिनों और ननदों को समझ में आ गईं लेकिन एक जोड़े चमकीली- रंगीन चीज किसी की समझ में नहीं आई कि इसका क्या इस्तेमाल है? सब हलकान- परेशान. बहू से पूछें तो नई रिश्तेदारी में जगहंसाई का डर कि देखो कैसे भुच्चड़ हैं ससुराल वाले. अब एक ही उपय था कि अकिला बुआ को बुलाया जाय. वही बतायेंगी कि यह क्या बला है. अकिला बुआ आईं, सामान पर नजर दौड़ाई और हंसने लगीं .बोलीं - 'अरी बेवकूफ़ों ! हम ना रहें तो तुम लोग तो गांव की नाक कटवा दोगी. इतना भी नहीं जानतीं यह तो नई चलन का गहना है- कान का झब्बा. आजकल कलकत्ते में खूब चल रहा है . लाओ , सुई-डोरा दो . हम अपने हाथ से पहनायेंगे दुलहिन को.' दुलहिन बेचारी ! लाज के मारे कुछ न बोल पाई, चुपचाप पहन लिया -कान का झब्बा . अब वह नई बहुरिया क्या कहती कि ए बुआ यह कान का झब्बा नहीं पांवों में पहनने की सैंडल है !
तीसरा किस्सा - हाथी के पांव
सुबह- सुबह गांव में शोर था. कुछ लोग दिशा- फ़रागित से फ़ारिग होकर दतुअन करते हुए खड़े थे. औरतें घूरे पर झाड़न- बहारन फ़ेंक कर कमर पर टोकरी टिकाए खड़ी थीं. बच्चे घुच्ची और ओल्हा -पाती का खेल छोड़कर अकबकाये खड़े थे. सबकी निगाह पगडंडी पर बने पैरों के निशानों पर थी कि आखिर ये निशान किस जानवर के पैरों के हैं. आदमी के तो हो नहीं सकते और भूतों के तो पैर ही नहीं होते ,सो निशान का सवाल ही नहीं उठता . ये गाय, बैल,भैंस, ऊंट, घोड़े, गदहे, भेड़,बकरी, कुत्ते, बिल्ली, सियार,खरगोश के हैं नहीं. बाघ के भी नहीं, तो आखिर किस जानवर के पैरों के निशान हैं इतने बड़े-बड़े. जवाहिर चा की राय मांगी गई. उन्होंने सुलेमान खां से मशविरा किया और घोषित किया कि ये हाथी के पैरों के निशान हैं क्योंकि हाथी के पैरों के निशान ऐसे ही होते हैं हाथी के पैरों जैसे बड़े-बड़े . संदेह फ़िर भी नहीं मिटा. अब एक ही उपाय था, अकिला बुआ जो कह दें वही ठीक. अकिला बुआ आईं, निशान देखे , अभी तक की कयासआराई की बेवकूफ़ी पर मुस्कुराईं. सबको प्यार से गरियाते हुए बोलीं - ' नतिया के बेटों ! पता नही मेरे बाद तुम लोगों का क्या होगा? अरे ! ये तो हिरन के पैरों के निशान हैं, इतना भी नहीं पहचानते.' सबने मान लिया लेकिन जवाहिर चा मिमियाये- ' पर, बुआ ! इतने बड़े? हिरन के पैर तो----- ' बुआ ने तत्काल डपटा- 'चुप जाहिल ! चार जमात पढ़कर तू क्या मुझसे गियानी हो गया . हिरन अपने पैरों में जांता बांधकर कूदा होगा. जांता माने चक्की. देखो तो गांव मे किसी के घर से जांता तो गायब नही है?'
6 टिप्पणियां:
achcha likha hai..
mazedar....
ये हुई न बात बाबू साब! आनन्द आया पढ़कर. अगली किस्तों का इन्तज़ार रहेगा.
अकिला बूआ से मिलकर मजा आया। धन्यवाद।
घुघूती बासूती
एक बार फिर जवाहिर चा दिखाई दिए !
क्या बात है चच्चा !
बहुत सुन्दर है सभी कुछ! विश्वनाथ त्रिपाठी के नंग्रातलाई के बाद ये दूसरा प्रयास देख रहा हूं मैं इस स्तर का !
बधाई !
ये टिप्पणी तीसरी कथा के लिए।
ये किस्सा बुंदेलखंड में भी बहुत मशहूर है और यह दोहा भी ।
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लाल बुझक्कड़ बूझता और न बूझे कोय
पांव में चक्की बांध के हिरना कूदा होय
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क्या कहने - बड़े दिनों बाद खुल के हंसी निकली - पेट से - बहुत ज़रूरी थी ये दवाई- जय हो - मनीष
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