सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

लगभग हर लिखने - पढ़ने वाले  व्यक्ति के  लिए  में डाक में पत्र - पत्रिकाओं का गुम जाना एक दुखदायी प्रसंग है।विचार और संस्कृति का मासिक 'समयांतर' के अक्टूबर 2012 अंक में जगदीश  चन्द्र रचनावली की मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा प्रकाशित हुई थी किन्तु वह अंक अब तक नहीं पहुँचा है।लेखकीय प्रति जरूर मेरे लिए भेजी गई होगी किन्तु उसका पाठक कोई और हो गया (होगा)। बहरहाल , यह अंक किसी अन्य स्रोत से आ ही गया है। आज साझा है वह समीक्षा :


अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

* सिद्धेश्वर सिंह

जगदीश चन्द्र रचनावली ( चार खण्ड) : संपादक - विनोद शाही; आधार प्रकाशन; पृ.:  2451    ; मूल्य : रू. : 4000 / ISBN : 978-81-7675-315-9

हिन्दी कथा साहित्य में दलित चेतना के उपन्यासों 'धरती धन न अपना' , 'नरककुण्ड में बास' और 'जमीन तो अपनी थी'  की ट्रिलोजी के जरिए अत्यधिक  ख्याति अर्जित करने वाले रचनाकार जगदीश चन्द्र की रचनावली प्रकाशित होकर हिन्दी की दुनिया में आई है जो यह बताती है कि  हमारे समय  के इस बड़े रचनाकार की दुनिया कितनी बड़ी है और संसार के जिस हिस्से को वह अपनी कथाभूमि बनाता है वह इसी संसार  के हम सब वासियों के लिए एक तरह की 'वो दुनिया' नहीं बल्कि वह दुनिया है जो  यह बताती है कि मनुष्य और उसकी संवेदना सब जगह एक समान,  एक जैसी ही है। यहाँ  सब कुछ सहज और साझा है  बस जरूरत इतनी है कोई उसे हमारे समक्ष  इस तरह प्रस्तुत कर दे कि वह  अपनी - सी लगने लग जाय। हिन्दी के पाठकीय संसार में  कथालेखक जगदीश चन्द्र की उपन्यास त्रयी को आदर , सम्मान और विपुल पाठकवर्ग इसलिए मिला कि  हिन्दी की पाठक  बिरादरी के एक बहुत बड़े हिस्से ने उन रचनाओं  के जरिए अपनी पाठकीय समझ को विकसित  किया है जो इस महादेश की  अपनी जमीन से जुड़ी हुई रचनायें है और किसी खास कथाकृति में खास लोकेल होने के बावजूद  यह बताने में सहज ही सक्षम रही हैं कि मनुष्य की संवेदना  का जो भी इतिहास व भूगोल होता है वह अंतत: सार्वकालिक - सार्वजनीन नागरिकशास्त्र में  में ही विकसित होता है। हम  जब कई लेखकों की कई रचनायें पढ़ते हैं तो चमत्कृत होते हैं कि जैसा एक जगह है लगभग वैसा ही दूसरी जगह विद्यमान है। यह एक चमत्कार होता है ; कागज पर शब्दों की ताकत से रचा गया ऐसा  चमत्कार जो जितना साधारण होता है उसकी विशिष्टता उतनी ही बड़ी और विलक्षण लगती है। जगदीश चन्द्र की रचनाओं , खासतौर पर उनकी त्रयी के बारे में बात करते हुए  यह बात बार - बार और पूरी स्पष्टता के साथ कही जा सकती है कि प्रेमचंद के  'गोदान' , रेणु के  ' मैला आँचल' , भीष्म साहनी के 'मय्यादास की माड़ी' , राही मासूम रज़ा के 'आधा गाँव', श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी'  और विवेकी राय के ' सोना माटी' जैसे उपन्यासों की निरन्तरता में ही नहीं बल्कि  गुरदयाल सिंह के 'मढ़ी दा दीवा' ,  राजेन्द्र सिंह बेदी के 'एक चादर मैली सी' और कृष्णा सोबती के 'जिन्दगीनामा' तथा मुल्कराज आनंद  के 'अनटचेबल' और 'अक्रास द बलैक वाटर्स' के साथ मिलकर  मनुष्य के राग विराग और  उत्थान पतन की गाथा को  को देखने , परखने और समय पड़ने उस समय के माध्यम से अपने समय को देखने की दृष्टि हासिल करने के क्रम में जगदीश चन्द्र का कथा सहित्य वास्तव में  बड़े काम की बड़ी चीज है।

रचनावलियों की उपयोगिता इसी अर्थ में अधिक रेखांकित करने योग्य होती है कि वह समग्रता को समेटकर कर  सहज व सुलभ व संग्रहणीय बनाती है। इस रचनावली के ढाई हजार पृष्ठों में फैली सामग्री जगदीश चंद्र के लेखन की  दुनिया के विस्तार को एक ही जगह पर एकत्र कर प्रस्तुत करती है। यह इस बात को भी बताती है कि 'त्रयी' के आगे पीछे भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे देखा और दिखाया जाना चाहिए। यह सच है कि हर बड़े लेखक को बड़ा बनाने वाली उसकी सारी  रचनायें नहीं होतीं। संख्या व परिमाण में कुछ ही रचनायें होती हैं जो किसी लेखक के बड़ेपन को आधार देती हैं लेकिन इसके साथ ही ऐसा भी होता है कि 'बड़ी' रचनाओं के बाद आने वाली रचनायें प्राय:  एक तरह की  बड़ी छाया का शिकार भी हो जाती हैं । यह किसी लेखक की कमजोरी या कमी नहीं होती ; हाँ, उस पर 'और बड़ा' रचने का दबाव जरूर होता है लेकिन पाठकीय संसार में स्थिरता व पिछली रचना के आलोक में नई रचना को देखे जाने की उम्मीद कहीं न कहीं, कभी न कभी बाधक जरूर बनती है। इसी संदर्भ में  यह बात भी कही जा सकती है कि प्रसिद्धि व ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद  जहाँ एक ओर किसी रचनाकार का  पाठकवर्ग विस्तार को प्राप्त करता है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी होता है उसका एक  'फेक' पाठकवर्ग( !) भी निर्मित हो जाता है जो साहित्येतर साहित्यिक कही जाने वाली  चर्चाओं और शोध व आलोचना की संकुचित तथा अतिरंजित दोनो तरह की स्थितियों को जन्म देता है । इससे ऊपरी तौर किसी रचनाकार को लाभ यह होता है कि व चर्चा - परिचर्चा - अध्ययन- अध्यापन- शोध की दुनिया में मशहूरियत तो हासिल कर लेता है लेकिन वह चीज जो उसे समय व स्थान के पार दूर तक; कालजयिता को ले जाने वाली होती है ; कहीं न कहीं संभवत: पीछे गुम होकर रह जाती है। 

जगदीश चन्द्र रचनावली के पहले खंड में दलित चेतना की उपन्यास त्रयी है। यह कथानायक  काली की कथा तो है ही काली व उसके सर्जक जगदीश चन्द्र  के काल की कथा भी है। यह काली और उस जैसे तमाम पात्रों   के साथ काली को काली बनाए रखने के षडयंत्र में लगे तमाम पात्रों की कथा भी है। इसी में अपनी जमीन के खुरदरेपन में अंकुरित होते स्वप्न का स्वर्ग है और इसी में में गाँव , चमादड़ी , कस्बा और शहर के बीच की वह दुनिया भी है जिसमें अंत:  " काली को विश्वास हो  जाता है  कि 'ज्ञान उसके अधिकार से पूरी तरह से बाहर हो गया है और जहाँ अधिकार नहीं वहाँ सम्मान भी नहीं और ऐसे स्थान पर आदमी का जीवन कीड़े मकोड़े से भी नीच होता है।' हिन्दी कथा साहित्य में  बहुत से ऐसे चरित्र गढ़े गए हैं जिनका नामोल्लेख  एक तरह से किसी कथा संसार  का  लगभग पर्याय बन जाता है। निश्चित रूप से काली एक ऐसा ही जीवन्त  पात्र है जो गोदान के होरी की तरह  तो है ही वह एक तरह से होरी  को उस दुनिया में रूपायित करने वाला पात्र है जो 'गोदान'  का परवर्ती संसार है इसमें जहाँ एक ओर चमादड़ी है वहीं दूसरी ओर कस्बे की  कोठड़ी और शहर चमड़े के कारखाने कच्ची पक्की  खाल की निशानियाँ। यह एक ऐसा संसार है जो हिन्दी की पाठक बिरादरी को पंजाब की कथाभूमि से परिचित  तो कराता है किन्तु किसी काल विशेष व आंचलिकता के दायरे में  आबद्ध न होकर मनुष्यता की दुर्दम्य  जिजीविषा का  अविस्मरणीय दस्तावेज बन जाता है।

रचनावली के दूसरे खंड में चार उपन्यास हैं जिनमें 'कभी न छोड़ें खेत' ,'मुठ्ठी भर कांकर' ,'घास गोदाम' और अधूरा उपन्यास  'शताब्दियों का दर्द'  सम्मलित है। ये तीनो उपन्यास भी एक तरह से उनकी त्रयी के विस्तार ही हैं। इनमें भी  उसी भूगोल का इतिहास और समाज है जिसके लिए जगदीश चन्द्र  हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में जाने जाते हैं और जाने जाते रहेंगे। तीसरे खंड को संपादक ने युद्ध और शान्ति के उपन्यासों का खंड कहा है। इसमें  तीन उपन्यास 'आधा पुल' , 'टुण्डा लाट' और 'लाट की वापसी' संकलित हैं। पहली दृष्टि में  इन्हें फौजी जिन्दगी के उपन्यास कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें  सैनिक - अफसर हैं। युद्ध के मोर्चे की रोमांचक स्थितियाँ हैं । आमने - सामने अपनी और दुश्मन की फौजें हैं । 'युद्ध में जान की बाजी  लगाकर अपने साहस और शौर्य का परिचय देते नौजवान हैं और फिर अपंग होकर लौटते हुए सैनिकों का जीवन है और समाज के दूसरे मोर्चों पर एक और तरह की जद्दोजहद में कूद पड़ना भी  है।' फिर  भी समग्रता में यह कैप्टन इलावत और कैप्टन सुनील कपूर की निजी कथा न होकर मनुष्य और मनुष्यता के जंग की अविराम कथा है। रचनावली  का  चौथा और अंतिम खंड विविधतापूर्ण रचनाओं का संकलन है। इसमें जगदीश चन्द्र का पहला उपन्यास 'यादों के पहाड़' और एकमात्र कहानी संग्रह 'पहली रपट' का महत्व इसलिए अधिक है कि पहले उपन्यास के माध्यम से लेखक की रचनाशीलता के उत्तरोत्तर विकास  को देखा जा सकता है और कुळ पन्द्रह  कहानियों के माध्यम के कथ्य व कथाभूमि के वैविध्य के साथ इनमें उनके उपन्यासों के बीज और अंकुर भी तलाशे जा सकते हैं। चौथे खंड में  ही 'आपरेशन ब्लू स्टार' जैसा उपन्यास है जो उपन्यासऔर रिपोर्ताज  का रिमिक्स है। यह  कथाकार जगदीश चन्द्र और रिपोर्टर जे० सी० वैद्य की  एक तरह से साझी कृति है जो गहन शोध और फील्ड रिपोर्टिंग के उपरान्त  लिखी गई है। यह हमारे समकालीन इतिहास को कुरेदने वाली एक ऐसी रचना है जिसका पुनर्पाठ और मूल्यांकन निश्चित रूप से एक  बहुत बड़ी आवश्यकता है और इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस खंड के आरंभ में प्रकाशित संपादक  विनोद शाही  की भूमिका 'राजनीतिक चेतना वाली रचनाशीलता का मतलब'  के हवाले से पता चलता है कि जगदीश चन्द्र पंजाब के आतंकवाद   के सांस्कृतिक इतिहास पर एक उपन्यास 'शतब्दियों का दर्द' लिख रहे थे जो उनके निधन के कारण पूरा न हो सका। अच्छा होता कि रचनावली में  उसको, अपूर्णता में ही सही दिया जाना चाहिए था। इसी खंड में लेखक का एकमात्र अप्रकाशित नाटक  'नेता का जन्म' शामिल किया गया है जो एक प्रसिद्ध कथाकार के नाटककार रूप से परिचय कराता है। अपने कथानक की दृष्टि से तो वह मौजूं और प्रसंगिक तो है ही। चौथे खंड के परिशिष्ट के रूप में चित्रावली व जीवनी - संस्मरण भी है जिनसे हमारे समय के इस बड़े रचनाकार के जीवन की  विविध छवियों और उसकी सोच व रचनाप्रक्रिया का साक्षात्कार किया जा सकता है। 

आधार प्रकाशन की प्रस्तुति  जगदीश चन्द्र रचनावली का प्रकाशन  स्वागत योग्य है। इस संदर्भ में दोबारा यह भी स्मरण किया जाना चाहिए कि उपन्यासकार  जगदीश के रचनाकर्म के  मर्म को समझने के लिए चमन लाल  के संपादन में  'जगदीश चन्द्र : दलित जीवन के उपन्यासकार' शीर्षक  पुस्तक भी  2010  में आधार ने ही प्रकाशित की है  और अब  रचनावली  का प्रकाशन हिन्दी कथा साहित्य के उन पाठकों के लिए  महत्वपूर्ण है जो धरती से गहरे तक जुड़े  और आमजन की सोच -  समझ - संवेदना  को वाणी देने वाले इस  बड़े रचनाकार को समग्रता में पढ़ना- पहचानना चाहते हैं तथा परिवर्तित समय में नए पाठ के आकांक्षी है।  नए पाठ की बात यदि न भी हो तो  भी  पाठक के के लिए उसमे कभी न खत्म होने वाला कथा रस  और इस बात का प्रमाण कि कथा साहित्य को कैसा होना चाहिए ; यह तो है ही। साहित्य , समाज विज्ञान और समकालीन इतिहास के शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए यह स्वातंत्रोत्तर समय , समाज और साहित्य को समझने - बूझने का जरूरी उपकरण तो  अवश्य ही है। साथ ही किसी को कथाकृति को लिखने के की जाने वाली गहन खोजबीन और उसके लोकेल तथा लोक से आत्मीय जुड़ाव की दृष्टि  का प्रकटीकरण भी यह रचनावली उपल्ब्ध कराती है। अंत में एक महत्वपूर्ण बात ,  और वह यह कि हिन्दी में जगदीश चन्द्र की जो लेखकीय छवि  निर्मित हुई  है उसे मजबूत करने के साथ यह बात भी इस रचनावली के माध्यम से पूरी शिद्दत के सामने आती है वह यह कि  त्रयी के अतिरिक्त भी उनका विपुल और विविधवर्णी रचना संसार है जो मूल्यांकन और नए पाठ की माँग करता है। रचवाली में प्रूफ़ की कुछ गलतियाँ रह गई हैं जिन्हें आगे अवश्य सुधारा जाना चाहिए औरआमजन की बात करने - कहने वाले लेखक की  रचनावली का  आम पाठक के लिए पेपरबैक संस्करण  उपल्ब्ध करवाने की जरूरत तो है ही।


2 टिप्‍पणियां:

प्रेम सरोवर ने कहा…

आपका पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।

Unknown ने कहा…

achha lga ye post pad kr, aise hi post krte rhe..

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