इस बीच पिछले दो - ढाई महीनों से काम के आधिक्य और यात्राओं के चलते लिखना - पढ़ना, संगीत सुनना - सुनाना बहुत कम ही हो सका। यात्राओं में कुछ ऐसी किताबें पढ़ डालीं जिनको पढ़ा जाना काफी लंबे समय से टल रहा था। स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए दो - चार अनुवाद भी कर डाले। इधर खूब गर्मी झेली और ठंड का भी खूब आनंद लिया। अल्मोड़ा, जागेश्वर, मुक्तेश्वर,रामगढ़ की सर्दी का आनंद लेते हुए व लखनऊ , सतना , दिल्ली और बिलासपुर की तपन और उमस को झेलते हुए बार - बार अरुणाचल को याद किया जहाँ प्राय: दो ही मौसम देखे मैंने - जाड़ा और बरसात। आजकल मेरे लिए अरुणाचल को याद करना वहाँ बिताये अपने जीवन के साढ़े आठ बरसों के साथ ममांग दाई की कविताओं को भी याद करना होता है। आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी ये कवितायें :
ममांग दाई की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१- जन्म स्थान
हम बारिश के बच्चे हैं
बादल - स्त्री की संतान
पाषाणों के सहोदर
पले है बाँस और गुल्म के पालने में
अपनी लंबी बखरियों में
हम शयन करते हैं
जब आती है सुबह तो पातें है स्वयं को तरोताजा।
हमारी उपत्यका में
कोई नहीं अजनबी - अनचीन्हा
तत्क्षण प्रकट हो जाता है परिचय
हम बढ़ते जाते है वंश दर वंश।
बहुत साधारण है हमारा प्रारब्ध।
किसी हरे अँखुए की तरह
अपनी दिशा में तल्लीन
हम अग्रसर होते हैं अपने पथ पर
जैसे चलते हैं सूर्य और चंद्र।
जल की पहली बूँद ने
जन्म दिया मनुष्य को
और रक्तिम आच्छद से हरित तने तक
विस्तारित करता रहा समीरण।
हम अवतरित हुए हैं
एकान्त और चमत्कार से।
०२- मुझे चाहिए
मेरे प्रियतम
मुझे चाहिए
प्रात:काल का महावर
मुझे चाहिए
ढलती दोपहर की स्वर्णिम सिकड़ी
मुझे चाहिए
चन्द्रमा की पायल
ताकि मैं नृत्य कर सकूँ
पुन: तुम्हारे संग।
मुझसे साझा करो
अपने हृदयंगम रहस्य
अपनी साँसें दो मुझे
फिर से।
कथायें सुनाओ मुझे मानवीय भूलों की
और बतलाओ
कि क्यों परिवर्तित नहीं होता है प्रतिबिंब।
4 टिप्पणियां:
दोनों ही सुन्दर कवितायें, उतना ही प्रभावी अनुवाद।
मुझे चाहिए
प्रात:काल का महावर.क्या बात है जी . बधाई हो .
अभिनव सृजन में आपका स्वागत है .
ममांग दाई की कवितायें बहुत पसंद आई और अनुवाद प्रभावी है....बधाई सिद्धेश्वर भाई.
आपके सौजन्य से हमें भी ममांग दाई की रचनाओं का रसास्वादन मिल गया!
बहुत बढ़िया अनुवाद किया है आपने!
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