* जन्मशती पर फ़ैज अहमद फ़ैज (१९११- १९८४) को याद करते हुए ..क्या लिखा जाय उस पर जिस पर इतना लिखा गया है लिखा जाएगा कि उम्र छोटी पड़ जाय। इस बड़े रचनाकार के बड़प्पन की अपनी पसंदीदा बानगी के रूप में आज उनकी दो रचनायें ; पहली महाकवि ग़ालिब को समर्पित और दूसरी मख़दूम मोहिउद्दीन (१९०८-१९६९) की स्मृति में जिसे स्वर दिया है आबिदा परवीन ने। साथ में एक साझा तस्वीर शताब्दी के महान कवि पाब्लो नेरुदा (१९०४-१९७३) के साथ। तो लीजिए जन्मशती पर फै़ज को याद करते हुए प्रस्तुत है यह एक कोलाज :
* नज़्रे ग़ालिब :
किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं।
फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं।
बहार आयेगी जब आयेगी, यह शर्त नहीं
कि तश्नाकम रहें गर्चा बादा रखते हैं।
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं।
नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूं हैं के हम
ख़याले-वज्ए-क़मीसो-लबादा रखते हैं।
ग़मे-जहाँ हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आये, आये कि हम दिल कुशादा रखते हैं।
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बाँ में 'फ़ैज़' हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं।
** मख़दूम की याद में:
आप की याद आती रही रात भर।
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर।
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम्मे-ग़म झिलमिलाती रही रात भर।
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर।
फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई किस्सा सुनाती रही रात भर।
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर।
एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर।
3 टिप्पणियां:
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर।
आबिदा की आवाज़ में फ़ैज़…और भी रौशन
बहुत शुक्रिया बेहतरीन पोस्ट के लिये
अज़ीम शायर फैज़ अहमद फैज के नमन!
बेहतरीन।
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