सीरिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में गिने जाने वाले महान अरबी कवि निज़ार कब्बानी (1923-1998) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत है उनकी दो छोटी कवितायें : (अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
०१- विलग करो वसन
विलग करो
वसन निज देह से
शताब्दियों से
किसी चमत्कार ने
स्पर्श नहीं किया इस पृथिवी का
सो, विलग करो
निज वसन निज देह से।
मैं हो चुका हूँ मूक
किन्तु तुम्हारी काया को
पता है संसार की सभी भाषायें
सो, विलग करो
शताब्दियों से
किसी चमत्कार ने
स्पर्श नहीं किया इस पृथिवी का
सो, विलग करो
निज वसन निज देह से।
मैं हो चुका हूँ मूक
किन्तु तुम्हारी काया को
पता है संसार की सभी भाषायें
सो, विलग करो
सब वसन निज देह से ।
०२-मैं कोई शिक्षक नहीं
मैं कोई शिक्षक नहीं हूँ
जो तुम्हें सिखा सकूँ
कि कैसे किया जाता है प्रेम !
मछलियों को नहीं होती शिक्षक की दरकार
जो उन्हें सिखलाता हो तैरने की तरकीब
और पक्षियों को भी नहीं
जिससे कि वे सीख सकें उड़ान के गुर।
जो उन्हें सिखलाता हो तैरने की तरकीब
और पक्षियों को भी नहीं
जिससे कि वे सीख सकें उड़ान के गुर।
तैरो - खुद अपनी तरह से
उड़ो - खुद अपनी तरह से
प्रेम की पाठ्यपुस्तकें नहीं होतीं
और इतिहास में दर्ज
सारे महान प्रेमी हुआ करते थे -
निरक्षर
अनपढ़
अंगूठाछाप।
निरक्षर
अनपढ़
अंगूठाछाप।
6 टिप्पणियां:
निजार कब्बानी की कविता का सुन्दर अनुवाद पढ़कर
मन गदगद हो उठा!
BAHUT KHUB
तैरो - खुद अपनी तरह से
उड़ो - खुद अपनी तरह से
प्रेम की पाठ्यपुस्तकें नहीं होतीं
और इतिहास में दर्ज
सारे महान प्रेमी हुआ करते थे -
निरक्षर
अनपढ़
अंगूठाछाप।
सच में !!!!!!!! यही तो सच है ..........
दुसरी कविता मे, मै अन्दाज़ा लगा रहा था....
कि.....
विवश/बेबस हो के लिखी होगी
या.....
किसी प्रशन्सा के जवाब मे
??!!
तैरो - खुद अपनी तरह से
उड़ो - खुद अपनी तरह से
अच्छी कविताओं /अनुवादों के लिए आभार
very nice
एक टिप्पणी भेजें