फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह ग़ज़ल मुझे बहुत प्रिय है।आबिदा परवीन के स्वर में इसे सुनना तो एक अलग ही किस्म का अनुभव होता है। कैसा अनुभव ? अब क्या बताया जाय ! ऐसा किया जाय कि इसे पढ़ा और सुना जाय ..बस्स...
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही।
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही।
न तन मे खून फराहम न अश्क आंखों में,
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही।
यही बहुत है के सालिम है दिल का पैराहन,
ये चाक-चाक गरेबान बे-रफू ही सही।
किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदेवालों,
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही।
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल,
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही।
दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई,
तो 'फ़ैज़' ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही।
7 टिप्पणियां:
umda ghazal...ab Faiz sahab ke liye kya kahun...waise pehle sher me 'sahi' hat gaya hai....
फ़ैज़ और आबिदा ... अब क्या कहा जाए ... बस्स सुना जाए .... अल्टीमेट है सर जी .. अल्टीमेट है !!
बहुत ही बेहतरीन गजल है सर!
आपकी पसन्द के कायल हैं हम तो!
बहुत उम्दा !
यकीन कीजिये.मेरे मोबाईल में है ...सुबह सुबह सुनी है......
वाह वाह…रविवार की शानदार गिफ़्ट्…शुक्रिया
Player to philhaal nahin dikh raha par ghazal behtareen lagi. Share karne ka shukriya
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