बुधवार, 19 मार्च 2008

कविता की (पतली गली )में क्यों विचर रहे हैं ब्लागिए ?


'कबाड़खाना' की शुरुआत के दिनों में आनलाइन कंपोजिंग की कसरत में हाथ साफ करने के इरादे से जब मैंने एक दिन अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की कविता 'समोसे' लगा दी थी तो अशोक पांडे ने तत्काल फोन पर खूब हड़काया कि तुम आलसी हो ,चिरकुटई कर रहे हो ,गद्द लिखो -गद्द॥आदि-इत्यादि।अशोक को कविता पर उज्र नहीं था.यह एक श्रेष्ठ कविता है-हमारे दौर के एक बड़े कवि की कविता.उज्र यह था कि गद्य लेखन अधिक श्रम,संदर्भ और समय की मांग करता है.मेरे मित्र की चिन्ता यह थी कि मैं श्रम,संदर्भ और समय से भागने की पतली गली के रूप में कविता-प्रस्तुति का इस्तेमाल न करूं.चिन्ता मौजूं थी और वाजिब भी.

इधर हाल में कई पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी ब्लाग लेखन को लेकर लेख ,टिप्पणियां आदि खूब प्रकाशित हुई हैं।कुछ वरिष्ठ-बुजुर्ग साहित्यकारों की प्रतिक्रियायें भी आई हैं.जेंडर का सवाल उठा है.फिर मैं जितना पढ पाया हूं उससे एक बात तो सामने यह है कि हिन्दी ब्लाग्स पर कविताओं की प्रस्तुति कुछ ज्यादा है और इसमें भी खुद की लिखी कविताओं की संख्या तो बहुत ही ज्यादा.इस बात को कभी-कभार कुछ इस तरह भी पेश किया जाता है कि गोया यह कोई गुनाह हो .इसके पीछे तो सतही तौर पर मुझे यह लगता है कि अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण की आजादी का जो ब्लाग-औजार मिला है उसका भरपूर उपयोग करने का आरंभिक उत्साह ही प्रमुख कारण है.दूसरी बात-हिन्दी में आज भी कविता मात्र को ही संपूर्ण साहित्य का पर्याय मानने वालों की गिनती में कमी नहीं आई है. हम लोग इस सामान्य सामाजिक समझ से ऊपर नहीं उठ सके हैं कि अगर कोई साहित्य से जुड़ व्यक्ति है तो वह जरूर 'कबी 'होगा. बड़े शहरों -नगरों का हाल तो मुझे नहीं मालूम लेकिन छोटे कस्बों तक में होने वाले 'अखिल भारतीय' कवि सम्मेलनों और मुशायरों में काफी कमी आई है.अखबारों में साहित्य के पन्नों पर सबसे पहले गाज गिरी है.किताबों के संस्करण घटकर आधे -से रह गए हैं.इसके ठीक उलट एक परिदृश्य यह भी है कि हिन्दी में गुरु और लघु पत्रिकाओं की संख्या बहुत अधिक है,बढ भी रही है.ऐसे में ब्लाग कैसे अछूता रह सकता है.कविता तो वहां आयेगी ही.

यहां यह खुलासा जरूरी है कि मैं हिन्दी ब्लाग जगत के संदर्भ में पद्य और गद्य की बहुचर्चित बहस को कुरेदने के बजाय श्रम,संदर्भ और समय से बचने के चोर दरवाजे के रूप में कविता की प्रस्तुति का हिमायती नहीं हूं.जैसे-जैसे जीवन कविताहीन और गद्यमय होता जा रहा है वैसे-वैसे सहित्य-ब्लाग लेखन में कविता की मौजूदगी बढी है. हिन्दी में गद्य की बहुत तगड़ी जरूरत है; ऐसे गद्य लेखन की जो कहानी -उपन्यास से इतर और अन्य हो.

(फोटो- tribuneinda से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

स्वप्नदर्शी ने कहा…

bahut badhiyaa. yahee hai sawaal ki samay kahaa se aaye, jeevan bees dishao me khinchaa hai.

Unknown ने कहा…

इस इलाके में मैं नया हूँ - सीमित ज्ञान है - लगता है कुछ चालीस पचास (इसे ही कुछ ???) प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों को छोड़ दें तो अमूमन ब्लॉग लिखने वाले ( मेरे जैसे) शौकिया नौसिखिये हैं जो अपनी तथाकथित अभिव्यक्ति को अपने छापेखाने से चला रहे हैं - [चूंकि सरल माध्यम है - (या नया नया प्याज खाने का आलम है !!!?)] - हो सकता है कविताएँ अधिक हों - पर पढ़े गद्य ही ज्यादा जाते हैं - [ अगर ब्लॉग वाणी / चिट्ठाजगत सही दिखाते हैं ] सही हो या ग़लत - मेरा मानना है - जहाँ तक लिखने का सवाल है - रचना अपने आपको लिखा देती है - गद्य- पद्य में क्या ज़्यादा मुश्किल / आसान है? - इसका आकलन अस्पष्ट है - स्वान्तः सुखाय लिखने का ही तो है ब्लॉग - सादर - मनीष