रविवार, 16 मार्च 2008

'मुर्गाः एक दिन जरूर'- एक कविता-जुगलबंदी का दूसरा सिरा



* 'वे दिन'निर्मल वर्मा का पहला उपन्यास था जिसे मैंने दिसंबर-जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली रातों के एकांत में पढ़ा था. बीच-बीच में कभी बर्फ भी गिर जाती थी-रुई के फाहों-सी नर्म किंतु बेहद मारक,बेधक और अवसाद तथा उत्तेजना से भरकर भाग जाने वाली.लगता था कि उपन्यास में वर्णित यूरोप या प्राहा या प्राग की ठंडक शायद ऐसी ही होती होगी जैसी कि चारों ओर से पहाड़ियों से घिरे अपने कस्बे नैनीताल में इस समय उतरी पड़ी है. वे अपनी 'गदहपचीसी' के दिन थे .हर तरफ कुछ न कुछ ऐसा-वैसा बिखरा था जिसे बदलना और बुहारना जरूरी लगता था.अपने पास इस काम के लिये औजार नहीं थे,अगर थे भी तो भोथरे,जंग खाए और दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए हुए।

* तब कविता एक बेहतर और बड़ा औजार लगती थी .हमारी मित्र मंडली कविता ओढ़ती-बिछाती-पहनती थी उन दिनों.एक खास बात यह थी इसमें अपनी या 'स्वरचित'कविताओं की मिकदार बहुत कम होती थी.देश-दुनिया-जहान की कवितायें,जो उस छोटी-सी जगह में उपलब्ध हो पाती थीं, हमें बांधने से ज्यादा हमारी अदृश्य गिरहें खोलने का काम कर रही थीं.अब यह अलग मसला है कि आज इतने सालों बाद कितनी गिरहें खुली हैं ,कितनी नई पैदा हुई है और कितना माद्दा बचा है उन्हें निरंतर खोलने की कोशिश के बाबत. फिर भी, 'वे दिन' जब याद आए हैं तो उन दिनों और उन दिनों की अपनी कविताओं का जिक्र कर ही लिया जाय।

* प्रस्तुत कविता 'मुर्गाः एक दिन जरूर' वस्तुतः एक कविता-जुगलबंदी का दूसरा सिरा है.इसका पहला सिरा मेरे मित्र अशोक पांडे की कविता 'मुर्गा बूढ़ा निकला' से जुड़ता है जिसे आप हमारे ब्लाग 'कबाड़खाना' http://kabaadkhaana.blogspot.com/ पर देख सकते हैं.इसकी शुरुआत खिलड़ंदेपन में हुई थी. यह निर्मल वर्मा की 'डायरी के खेल' जैसा कुछ था.बाद में कुछ 'समझदार' लोगों ने कहा कि यह तो सीरियस कविता हो गई है.कुछ 'और समझदार' लोगों ने कहा कि इसमें कविता जैसा क्या है ? अब आप ही देखें और जरूरी समझें तो राय दें-

मुर्गाः एक दिन जरूर

मुंडेर पर बांग देता हुआ मुर्गा
मुझे बहुत सुंदर लगता है
अभिव्यक्ति के एक अबूझ
लेकिन अर्थवान प्रतीक की तरह
लगता है बांग देता हुआ मुर्गा

बांग देते समय
तन जाती है मुर्गे की गरदन
रक्त से उफनती हुई नसें दीखने लगती हैं
ऊपर मुंह उठाते ही
खुले आकाश के नीचे लहराने लगती है
लाल-लाल कलगी

मुर्गे की टांगों के कसाव से
धसकने लगती है छत
चर्र-मर्र करने लगती हैं बल्लियां
उजागर होने लगते है दीवारों के दरार
धरती और आकाश के बीच
मुंडेर पर बांग देता हुआ मुर्गा
हमें सुबह के संकेत से परिचित कराता है

पहरेदार जानता है-
मुर्गे के बांग देने से होती है सुबह
टूटती है नींद की सम्मोहक खुमारी
और हथेलियां रगड़ते हुए लोग
नये दिन को बेहतर बनाने के बारे में सोचने लगते हैं

तभी
खाने की तश्तरियों में सजता है मुर्गा
लाल- तेल मसालों से तर स्वादिष्ट
उसकी टांग चबाते हुए
हम एक नए दिन के अजन्मे नएपन को चबा जाते हैं
तश्तरी में तर मुर्गे के खिलाफ
षडयंत्र लगने लगता है बांग देता हुआ मुर्गा

मुझे यकीन है
एक दिन जी उठेंगे तश्तरी में तर मुर्गे
तले-भुने-जले मिर्च-मसालों में लिथड़े मुर्गे
एक दिन जरूर बांग देंगे
वे नहीं खोजेंगे मुंडेर की निरापद ऊचाई
य रात का आखिरी प्रहर
या फिर कुछ और
ऐन हमारी आंखों के सामने
तश्तरियों से धड़ाधड़ उठते हुए मुर्गे
पूरी मेज पर कब्जा कर लेंगे

यकीन है
एक दिन जरूर बांग देंगे मरे हुए मुर्गे.

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

मरे हुए मुर्गे एक दिन जरूर बांग देंगे .

कयोंकि
मरे हुए मुर्गे ही बांग दे सकते हैं और पक सकते हैं.

Unknown ने कहा…

वाह - दोनों घर पढ़ लिया - अफसाना नंबर एक की तो किताब पांडे जी से मार लाये रहे - ये भी सीरिअस कविता ही लगती है लाल कलगी और लाल तेल मसालों वाले मुर्गों के बारे में - मनीष [वैसे हमारी कच्ची गोटी - गिनती समझदारों/ और समझदारों में नहीं होती]

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

चचा इसे कहते हैं देर आयद दुरुस्त आयद ! पत्रिकाओं में भी भेजो न कुछ कविताएं!

प्रस्थान : विशेष ने कहा…

अच्छी कविता !