मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना

इस पटल पर विश्व कविता के अनुवादों की  सतत साझी प्रस्तुति के क्रम में आज प्रस्तुत है सीरियाई कवि           ,चित्रकार ,संपादक  नाज़ीह अबू अफा  (१९४ ६) की यह छोटी - सी  कविता।  कवि का पहला संग्रह १९६८ में आया था   और अब तक उनके तेरह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  जिनमें ' द मेमोरी आफ़ एलिमेन्ट्स' और  'द बाइबिल आफ़ द ब्लाइंड' प्रमुख हैं।  दुनिया भर की कई भाषाओं में उनके कार्य का अनुवाद हो चुका है। आज की यह कविता एक प्रार्थना है , एक उम्मीद और अपनी दुनिया  की कुरूपताओं , विसंगतियों और अवांछित - अनावश्यक को को दूर कर  शुभ, सुन्दर व सहज को बचाने , बनाने और आगे ले जाने की एक ऐसी  शाब्दिक कोशिश जिसका मर्म  समझने के लिए सिर्फ शब्द भर पर्याप्त  नहीं हैं।  और क्या कहा जाय , बाकी तो  यह कविता है, अध्ययन और अभिव्यक्ति की  साझेदारी के इस ब्लॉग के  पाठक हैं  और सबसे बढ़कर हम सब की साझी संवेदनायें हैं। तो ,आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :


नाज़ीह अबू अफा की कविता
इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

ले जाओ झुंड को - रेवड़ को
ले जाओ चरवाहों और गड़रियों को
ले जाओ -
          दार्शनिकों को
          लड़ाकों को
          सैन्य दलनायकों को
पर दूर ही रहो किसी बच्चे से
बख्शो उसे।
                                                                                                       
ले जाओ किलों और प्रासादों को                                            
ले जाओ -
           मठों को
           वेश्यालयों और देवालयों के स्तम्भों को
ले जाओ हर उस चीज को
जिससे क्षरित होती  है पृथ्वी की महत्ता
ले जाओ पृथ्वी को
और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न।

यदि वे आरोहण करे पर्वतों का
तो मत भेजो उनके तल में भूकम्प
यदि वे  प्रविष्ट हों उपत्यकाओं  में
तो मत भेजो उनके उर्ध्व पर बाढ़ और बहाव।

बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी
मुहैया कराओ उन्हें  ठोस और पुख्ता जमीन।

9 टिप्‍पणियां:

kathakavita ने कहा…

ले जाओ पृथ्वी को
और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न।

vaah bahut hee umdaa bhai padvaane ke liye shukriya

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

काश...समझ पाते वे,
समझ पाते हम!

Ashok Kumar pandey ने कहा…

जैसे यह कविता मैंने लिखी हो..हर लफ़्ज से इतना मुतमईन..अनुवाद इतना सहज कि बिलकुल मूल जैसा आस्वाद

धरती के हर कोने में संवेदनाओं की भाषा समान है!

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

bahut umdaa anuvaad chachchaa...ye kram bana rahe...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी
मुहैया कराओ उन्हें ठोस और पुख्ता जमीन।"
सन्देशपरक कविता का बढ़िया अनुवाद!
अनुवाद ही नहीं, कविता ही है यह भी!

batrohi ने कहा…

bahut achchhi kavita aur anuvad.

Onkar ने कहा…

वाह,वाह, क्या बात है.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सिद्देश्वर जी , बहुत ही बढ़िया अनुवाद है ...बिलकुल मूल जैसा ..
किस भाषा से किया है ....?

दीपा पाठक ने कहा…

आज बहुत अरसे के बाद ब्लॉग की दुनिया में घूमते हुये आपकी अनुवाद की गयी बेहतरीन कवितायों को पढ़ने का मौका मिल रहा है। बहुत ही बढ़िया काम आप कर रहे हैं। शुक्रिया !