सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

गांधी और कविता

ल दो अक्टूबर है महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती का दिवस। कल  हमारे आसपास बहुत सारे कार्यक्रम  संपन्न  होंगे।  बहुत सारे लोगों के लिए यह छुट्टी का दिन भी है - राष्ट्रीय अवकाश। आभासी संसार भी  कल  खूब दो अक्टूबरमय रहेगा  - पिछले बरसों की तरह। कल हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में  बहुत सारी पोस्ट्स  बनेंगी  , गढ़ कर - जड़कर बनाई जाई जायेंगी और साझा  भी  की जायेंगी। कूछ ऐसा ही काम मैं आज और अभी करने जा रहा हूँ। आज  दोपहर  बाद सोचा था कि  शाम को  - रात को   या सोने पहले दो अक्टूबर  पर  कुछ लिखूँगा , पर लिख ना हो न सका और अब सो जाना है क्योंकि सुबह जल्दी जागना है। फरमाइशी या अवसर विशेष पर लिखने के मामले अक्सर खुद को बहुत  कंफर्टेबल नहीं पाता हूँ। कल दिन में  एकाध कार्यक्रमों  भाग भी लेना है। वहाँ अवसरानुकूल  कुछ कहना  - बोलना भी हो सकता है। इसी बारे में कुछ सोचते हुए याद आया कि  पिछले बरस 'कबाड़ख़ाना' पर  इसी दो अक्टूबर  के दिन ही  आधुनिक मलयाली कविता के  प्रणेता के० सच्चिदानंदन की  एक कविता 'गाँधी और कविता' का  अनुवाद प्रस्तुत किया था। यह कविता आज  एक बार फिर पढ़ी  गई  है और मन हुआ है  कि गाँधी जयंती के अवसर पर इसे 'कर्मनाशा'  के कविता प्रेमी पाठकों के साथ साझा किया जाना चाहिए.........


के० सच्चिदानंदन की कविता
गांधी और कविता
(अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह)

एक दिवस
एक कृशकाय कविता
पहुँची गांधी - आश्रम तक
उनकी एक झलक पाने के लिए।

गांधी कताई में लीन
सरकाए जा रहे थे राम की ओर अपने सूत
कोई ध्यान नहीं उस कविता का
जो द्वार पर किए जा रही थी सतत इंतज़ार।

लाज आ रही थी कविता को कि वह बन सकी कोई भजन
उसने खँखार कर किया अपना गला साफ
तब गांधी ने उसे देखा अपनी उस ऐनक से
जिससे देखे जा चुके थे तमाम तरह के नर्क।
उन्होंने पूछा-
'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही  हो कभी भूखे पेट?'

कविता ने कहा:
'एक बहेलिए के मुख में
जंगल में हुआ मेरा जन्म
मछुआरे ने पाला पोसा अपनी कुटिया में.
फिर भी मुझे नहीं आता कोई काम
जानती हूँ केवल गान.
पहले मैंने दरबारों में गायन किया
तब मेरी काया थी हृष्ट-पुष्ट और कमनीय
लेकिन अब सड़कों पर हूँ
लगभग भूखी - दीन - क्षुधातुर।'

'अच्छी बात है' गांधी ने कहा
एक वक्र मुस्कान के साथ -
'लेकिन तुम्हें छोड़ना चाहिए
संस्कृत संभाषण की इस आदत को
जाओ खेत - खलिहानों में 
सुनो कृषकों की बातचीत।'

कविता अन्न में बदल गई
और खेतों में  जाकर  करने लगी इंतज़ार
कि प्रकट हो कोई हल
और उसके ऊपर बिछा दे
नई बारिश से आर्द्र भुरभुरी कुंवारी मिट्टी की सोंधी पर्त।

3 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

तो इस तरह हुई कविता सार्थक।

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

गाँधी को हमने मोहरा बना लिया है ।बस केवल उनका नाम याद रखा है ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कविता अपने निष्कर्ष पा ही गयी..