शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बच्चों का कोई देश नहीं होता

अतौल बहरामुग्लू ( जन्म : 13 अप्रेल  1942 )  तुर्की के एक चर्चित कवि हैं। वे  तुर्की लेखक संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं । अब तक  उनकी बीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और दुनिया की कई भाषाओं में उनके काम का अनुवाद हुआ है। उन्होंने नाजिम हिकमत व्लादिमीर मायकोवस्की की कविताओं के तुलनात्मक अध्ययन पर विश्वविद्यालय की  स्नातकोत्तर उपाधि हासिल की। अतौल तुर्की के न केवल एक बड़े कार्यकर्ता हैं बलिकि अन्य कई अनुशासनों और राजनीतिक - सामाजिक मोर्चों पर पर भी सक्रिय हैं। उन्होंने लर्मन्तोव , तुर्गनेव, पुश्किन,  चेख़व , गोर्की , लुई अरागां , ब्रेख़्ट, नेरुदा , यानिस रित्सोस जैसे विश्व प्रसिद्ध साहित्यकरों की रचनाओं का अनुवाद किया है। फि़लहाल वे इस्तांबुल विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के रूप में काम करते हैं और पत्र- पत्रिकाओं में सामयिक विषयों पर लिखते हैं। उनकी महत्वपूर्ण किताबों में ' वन डे डेफिनेटली' ,' माई सैड कंट्री' , 'माई ब्यूटिफुल लैंड' , ''लेटर्स टु माई डॉटर' ' अ लिविंग पोएट्री' चर्चित - समदृत हैं।


अतौल बहरामुग्लू की कविता
बच्चों का  कोई देश नहीं होता
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

बच्चों का  कोई देश नहीं होता
इसे मैंने पहली बार अपने वतन से दूर रहकर महसूस किया
बच्चों का कोई देश नहीं होता
जिस तरह वे संभालते हैं अपना सिर वह होता है एक जैसा
जिस तरह वे टकटकी लगाए देखते हैं, एक जैसी जिज्ञासा लगती है उनकी आँखों मे
जब वे रोते हैं एक जैसी होती है उनकी आवाज की लय।

बच्चे मानवता का प्रस्फुटन हैं
गुलाबों में सबसे प्यारे गुलाब, सबसे अच्छी गुलाब की कलियाँ
कुछ होते हैं रोशनी के सबसे सच्चे टुकड़े
कुछ होते हैं कल छौंहे काले द्राक्ष।

पिताओ, उन्हें अपने मस्तिष्क से निकल न जाने दो
माताओ, संभालो - सहेजो अपने बच्चों को
चुप करो उन्हें, चुप करो मत बात करने दो उनसे
जो बातें करते हैं युद्ध और बर्बादी की

आओ हम छोड़ दें ताकि वे बढ़ सकें भावावेश में
ताकि वे अंकुरित हों और उग सके पौधों की तरह
वे तुम्हारे नहीं, हमारे नहीं, किसी एक के भी नहीं
सबके हैं , पूरी दुनिया के
वे हैं मनुष्यता की आँख की पुतलियाँ।

मैंने यह पहली बार अपने वतन से दूर महसूस किया
कि बच्चों का कोई देश नहीं होता
बच्चे मनुष्यता का प्रस्फुटन हैं
और हमारे भविष्य की एक नन्ही उम्मीद।

रविवार, 30 नवंबर 2014

नीली नदी एक बहती है : अपर्णा अनेकवर्णा की कवितायें

सबसे पहले तो 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों से इस बात के लिए क्षमा कि अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के काम  में इस बीच लंबा व्यवधान व विराम हो गया है। यह आगे जारी न रहे ऐसी पूरी कोशिश रहेगी। इस ठिकाने पर  साझेदारी के क्रम को गति देते हुए आज प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें। कुछ ब्लॉग्स तथा फेसबुक पर  उनकी सृजनात्मक उपस्थिति से रू-ब-रू होते  मेरी इच्छा थी कि गहन संवेदना की  सहज अभिव्यक्ति करने वाले इस रचनाकार से  कविता प्रेमियों को मिलवाया जाय। इस काम में देर हुई है उसके लिए पुन: क्षमा चाहते हुए  प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन ये कवितायें...... और हाँ , उनकी एक कविता  पर आधारित सुंदर पोस्ट भाई पंकज  दीक्षित ने  तैयार किया है। तो  आइए , पढ़ते हैं ये कवितायें.....


अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें

* प्रेत-ग्राम 

वो डूबता दिन.. कैसा लाल होता था..
ठीक मेरी बांयी ओर..
दूर उस गाँव के पीठ पीछे जा छुपता था
सूरज.. तनिक सा झाँक रहता..
किसी शर्मीले बच्चे की तरह

दिन भर अपने खेतों पर बिता..
'समय माई' को बताशा-कपूर चढ़ा..
जब लौटते थे हम शहर की ओर
यही दृश्य होता हर बार..
ठीक मेरी बांयी ओर..

मुझे क्यों लगता..
जैसे कोई प्रेत-ग्राम हो
मायावी सा.. जन-शून्य..
घर ही घर दीखते.. आस पास..
कृषि-हीन.. बंजर ज़मीन..

शायद भोर से ही झींगुर
ही बोला करते वहां...
सिहरा देता वो उजड़ा सौंदर्य..
डरती.. और मंत्रमुग्ध ताका भी करती..
लपकती थीं कई कथाएं.. मुंह बाये..

कुछ भी कल्पित कहाँ था..
वो सच ही तो था.. हर गाँव का
कुकुरमुत्ते सा उग आया था..
कौन बचा था जवान.. किसान..
सब मजूरा बन बिदेस सिधारे

बची थीं चंद बूढी हड्डियां..
उनको संभालती जवान बहुएं..
जवान बहुओं की निगरानी में..
वही.. चंद बूढी हड्डियां...
और घर वापसी के स्मृति चिन्ह..
धूल-धुसरित कुछ बच्चे..

महानगर.. सउदिया...
लील गए सारे किसान.. जवान..
रह गए पीछे.. बस ये कुछ प्रेत-ग्राम..

** डर

आज रात में भी डर नहीं लगता..
आज जंगल झींगुर का शोर..
सियार की पुकार नहीं..
आज जंगल माँ की गोद है..
माँ कहाँ गयी होगी..
कांपता है मन और
निचला होंठ मन की तरह ही
कांपने लगता है..
बाकी के दो चेहरे धुंधलाने लगते हैं..

बस वो शोर गूंजता रहता है
बकरियां जिबह हो रही हैं शायद..
उन्हें भूख लगी हो शायद..
शायद वो इसलिए नाराज़ हैं
बकरियां रोती भी हैं क्या?
बड़ी सी लाल पीली रौशनी..
रंग रही है रात

भुनी महक से पहले कभी कै नहीं हुयी..
आज सालों बाद मुनीर ने निकर गीली की..
क्यों.. कौन... कुछ नहीं समझ आ रहा..

सब बहुत नज़दीक है..
बहुत..
मेरे 'कम्फर्ट-जोन' में दखल करता..
आँखें खुल जाती हैं..
अभी पढ़कर रखा अख़बार उठाकर
रद्दी के ढेर में पटक आती हूँ..
शब्द वहां से भी मुझे ललकार रहे हैं
जिनके अर्थ से कतरा रही हूँ..
मुझे दिन भी तो शुरू करना है..

*** नदी चुपचाप बहती है 

नीली नदी एक बहती है
चुपचाप..
सरस्वती है वो.. दिखती नहीं..
बस दुखती रहती है..

सब यूँ याद करते हैं जैसे बीत गयी हो...
नहीं खबर.. न परवाह किसी को भी कि..
धकियाई गयी है सिमट जाने को
अब हर ओर से खुद को बटोर..
अकेली ही बहती रहती है..

नित नए.. रंग बदलते जहां में..
अपना पुरातन मन लिए एक गठरी में..
बदहवास भागी थी..
कहीं जगह मिले...

हर उस हाथ को चूम लिया
जिसने अपना हाथ भिगोया..
फिर ठगी देखती रही..
राही उठ चल दिया था..

पानी पी कर उठे मुसाफिर..
कब रुके हैं नदियों के पास?
उन्हें सफर की चिंता और मंज़िलों की तलाश है
नदियां बस प्यास बुझाती हैं
यात्रा की क्लांति सोख कर
पुनर्नवा कर देती हैं...

और जाने वाले को..
स्नेह से ताकती रहती हैं
जानती हैं.. वो लौटेंगे..
फिर से चले जाने के लिए..

पर सरस्वती सूख गयी..
पृथु-पुत्रों का रूखपन सहन नहीं कर सकी
माँ की कोख में लौट गयी..
अब विगत से बहुत दूर..
चुप चाप बहती रहती है...

दिखती नहीं.. सिर्फ दुखती रहती है..
________________

अपर्णा अनेकवर्णा मूल रूप से गोरखपुर की हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० किया है और लगभग सात वर्षों तक 'पर्पल आर्क फिल्म्स' में प्रोडक्शन असिस्टेंट तथा 'डेल्ही मिडडे'  में एक पत्रकार के रूप में कार्यरत रहीं। विवाहोपरांत गृहणी का जीवन, अपनी बेटी रेवा और पति निलेश भगत के साथ नयी दिल्ली में व्यतीत कर रही हैं। साहित्य पढने में रूचि शुरू से रही है। लगभग ढेढ़ वर्ष पूर्व लेखन प्रारंभ किया। हिन्दी व अंग्रेजी में समान अधिकार के साथ  कवितायें लिखने वाली अपर्णा एक कुशल अनुवादक भी हैं। इससे पूर्व इनकी कवितायेँ 'गुलमोहर' काव्य संकलन, 'कथादेश' (मई, २०१४) तथा 'गाथांतर' (अप्रैल-जून, २०१४) में प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका रचनाकर्म 'गाथांतर', 'स्त्रीकाल', 'पहली बार' जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर  साझा हुआ है। उनके  दो संकलन जल्द ही  प्रकाशित होने जा रहे हैं।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

बोलती हुई बात


किसी प्रिय कवि को पढ़ना और बार - बार पढ़ना  सिर्फ पढ़ना नहीं होता है। यह किसी बात को सुनना भर नहीं होता है। यह डूबना होता है और डूबने से उबरना भी। प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते हुए कुछ लिखना हो जाय तो बस यह हो जाना होता है। आज  अभी कुछ देर पहले पढ़ते- लिखते , गुनते - बुनते लिखी गई अपनी यह  एक कविता साझा है। आइए इसे देखते - पढ़ते हैं.....

बोलती हुई बात
*
प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
गलती रही बर्फ़
बनकर नदी
नींद थी
नहीं थे स्वप्न
मैं न था
तुम थे साथ
यह कौन - सी यात्रा थी
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
* *
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
दूब की नोक से सिहरता व्योम
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
किस्से - कहानियों जितना अपना होना
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
कवि तुम
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।
---

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

मैं गया बस देखने एक दीवार

अगर आप किसी के यहाँ जायें और उसके  द्वार पर दस्तक देने , पुकार लगाने के बदले  घर की दीवार का दर्शन कर खुश हों तो  सोचिए कैसा होगा वह घर और कैसे होंगे उसके रहवासी। यह एक दोस्त के घर की  पार्श्व दीवार है , काली  पुती , जिस पर आसपास के बच्चे  अधिकार पूर्वक उकेर जाते हैं अपनी - अपनी  उजली इबारतों की एक सरणि। डा० संतोष मिश्र हमारे साथी हैं ; सहकर्मी भी और सबसे बढ़कर एक सहज, सरल और संवेदनशील इंसान। उनके घर की दीवार  बच्चों की चित्रकारी की जगह है; उनका कैनवस है ' उनके सपनों की उड़ान का मुक्ताकाश है। अपन इस दीवार से मिल आए। आँखें जुड़ा गईं और वापसी में कुछ शब्द उभर आए जिन्हें आप चाहें तो कविता भी कह सकते हैं....

दीवार

यह जो है एक दीवार 
कालेपन से रंगी
इसी पर उभरते हैं उजले अक्षर
इसी पर पर उतराती है उम्मीद
इसी पर  सहेजे जाते हैं स्वप्न।

यह जो है एक दीवार 
एक साझा कैनवस
इसी से गिरती हैं दीवारें
इसी से उमगती हैं उंगलियाँ
इसी से आकार पाता है अनुराग।

यह जो है एक दीवार
सहज सरल सीधी 
इसी के साए में धूप होती है धूप
इसी के साए में  चाँदनी होती है चाँदनी
और बचपन होता है बचपन।

मैं नहीं गया जर्मनी
नहीं देख सका बर्लिन की ढही दीवार 
नहीं जा सका चीन भी
कि देख सकूँ दुनिया की सबसे बड़ी दीवार
मैं गया बस देखने 
दीवारों को गिराने वाली एक दीवार।
----



रविवार, 10 अगस्त 2014

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं

आज राखी है ; रक्षाबंधन। त्यौहार का दिन , छुट्टी का दिन। फुरसत से अख़बार पढ़ने का दिन। रेडियो तो अब यहाँ  अपने भूगोल में साफ बजता नहीं ; टीवी पर बहन - भाई के  गीतों का दिन। पकवान  का दिन। बाकी दिनों से कुछ अलहदा - सा दिन। फोन के  अत्यधिक बिजी होने का दिन। खुश होने ( व किंचित / किवां उदास होने ) का दिन। होश संभलने से अब तक की साझी स्मृतियों के एकल आवर्तन- प्रत्यावर्तन का दिन। खैर, आज साझा कर रहा हूँ अपनी एक कविता जिसका शीर्षक है 'बहनें' । आइए, इसे देखें , पढ़ें.....


बहनें

सीढ़ियां चढ़ गईं वे 
सबको धकियाते हुए
एक बार में एकाधिक पैड़ियाँ फलांगते
जबकि हमें रखना पड़ा हर डग
संभल - संभल कर हर बार।
हमारी तुतलाहट छूटने से पहले ही
वे सीख गईं चिड़ियों से बोलना - बतियाना।
हम जब तक कि  बूझ पाते धागों का शास्त्र
तब तक  तमाम कटी पतंगों को चिढ़ातीं
उनकी पतंगे जा चुकी थीं व्योम के लगभग पार।

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं
हाँ इसी ग्रह की।

वे उतर आई सीढ़ियाँ दबे पाँव
हमने बरसों किया उनका इंतजार 
कि वे सहसा प्रकट होंगी
किसी कोठरी , किसी दुछत्ती या किसी पलंग के नीचे से
सबको चौकाती हुई।

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं
हाँ इसी ग्रह की।

यह लिखावट की कोई गलती नहीं है
न ही है किसी तरह का कोई टाइपिंग मिस्टेक
हर बार सायास लिखना चाहता हूँ गृह
हर बार हो जा रहा है ग्रह अनायास।

बताओ तो 
तुम किस ग्रह के निवासी हो कवि
किस ग्रह के?
---

( चित्र :  शिडी ओकाये की कृति 'सिस्टर्स' / गूगल छवि से साभार)

सोमवार, 4 अगस्त 2014

अत्यल्प है यह आयु , यह देह, यह आँच

इस बीच  अपने इस  ब्लॉग पर निरन्तरता का निर्वाह करने में कुछ कठिनाई , कुछ , व्यस्तता, कुछ आलस्य और कुछ  बस यों ही - सा रहा। इस बीच पढ़ना तो बदस्तूर जारी रहा लेकिन लिखत का काम बहुत कम हुआ।आज एक कविता लिखी है ; उसे साझा करने का मन है। कोशिश रहेगी कि  अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी का  क्रम भंग न हो  और न ही  कोई लम्बा विराम खिंच जाय। सो, आज साझा है ,बहुत दिनों बाद लिखी अपनी एक कविता......


अभी तो यह क्षण

किस टेक पर टिकी है पृथ्वी
क्या पता किस ओट पर उठँगा है आकाश
वह कौन -सी ताकत है पेड़ों के पास
कि वे शान से मुँह चिढ़ा जाते हैं गुरुत्वाकर्षण को ?

यह जरूरी नहीं कि सबको सब पता हो
सोचो, कौन चाहेगा
कि रह्स्यहीन हो जाए सारा कार्य व्यापार
और हम अनवरत देख पायें चीजों के आरपार
अगर उधड़ जाए हर बात का रेशा-रेशा
तो कैसे कहेगा कोई कि बात कुछ बन ही गई।

अभी तो , तुम हो बस तुम
मैं कहाँ हूँ क्या पता ; कौन जाने
अभी तो
एक बात है शब्दहीन
एक लय है तुममें होती हुई विलय
अभी तो
किसी दुनिया में
तुम हो
मैं हूँ
स्वप्न और यथार्थ के संधिस्थल पर थिर।

बहुत कम है एक समूचा जीवन
अत्यल्प है यह आयु , यह देह,  यह आँच
कितनी लघु है तुम्हारी केशराशि तले अलोप हुई वसुधा
हस्तामलक है तुम्हारी चितवन से सहमा व्योम
कुछ नही ; कुछ भी तो नही
अभी तो
अनन्त अशेष असमाप्य अनश्वर है बस यह क्षण।
.............


( चित्रकृति : साइमन रश्फील्ड की पेंटिंग 'लवर्स' / गूगल छवि से साभार)

सोमवार, 28 जुलाई 2014

धूप के वृत्त में उभरते मधुमक्खियों छत्ते की मानिन्द

धुनिक पोलिश कविता  की एक सशक्त हस्ताक्षर हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) की कई कविताओं के अनुवाद आप इस ठिकाने पर और  कई जगह पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं।वह  इधर के एकाध दशकों से  पोलिश साहित्य के अध्येताओं  की निगाह की निगाह में आई है और विश्व की बहुत - सी भाषाओं में उनके अनुवाद हुए हैं। हालीना ने बहुत ही लघु जीवन जिया और उनकी जीवन कथा एक तरह से 'दु:ख ही जीवन की कथा रही। उनकी कविताओं में प्रेम की विविधवर्णी छवियाँ हैं और साधारण - सी लगने वाली बात को   विशिष्ट और विलक्षण तरीके कहने का एक जुदा अंदाज। आइए , आज पढ़ते - देखते हैं यह कविता : 


हालीना पोस्वियातोव्सका  की कविता
शब्दों का होना
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

इन तमाम शब्दों का अस्तित्व था
हमेशा से
वे थे सूरजमुखी की खुली मुस्कान में
वे थे
कौवे के काले पंखों में
और वे थे
अधखुले दरवाजे के चौखट पर भी सतत विद्यमान।
 
यहाँ तक कि जब नहीं था कोई भी दरवाजा
तब भी उनका अस्तित्व था
एक मामूली -से  पेड़ की अनगिन शाखाओं में।

और तुम चाहते हो कि वे मेरे हो जायें
तुम चाहते हो कि रूपायित हो जाऊँ मैं
कौवे की पाँख में, भोजपत्र के वृक्ष में और ग्रीष्म की सुहानी ऋतु में
तुम चाहते हो कि
मैं भिनभिनाऊँ
धूप के वृत्त में उभरते मधुमक्खियों छत्ते की मानिन्द।

अरे पागल !
मैं नहीं हूँ इन शब्दों की स्वामिनी
मैंने तो उन्हें बस उधार लिया है
हवा से , मधुमक्खियों से और सूरज से।
----------
( * हालीना पोस्वियातोव्सका की कुछ कविताओं के अनुवाद यहाँ और यहाँ भी....)

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

आज फिर से किताबें पूछेंगी

' I have a pack of memories.......'
                          - Anne Sexton

धीरे - धीरे उतर रही है यात्रा की थकान। इस बीच कितनी जगहों पर कितनी - कितनी सवारियों में घूम आया। अब अपने घोंसले में कुछ समय दुबक कर रहना है। धीरे - धीरे सम पर आ रही दिनचर्या। धीरे - धीरे चीजें पकड़ में आ रही हैं। कितना - कितना काम पड़ा है। मौसम है कि रोज नए - नए करतब दिखा रहा है। कस्बे से दो किलोमीटर दूर गाँव में रहता हूँ। अपना रहवास राष्टीय राजमार्ग के लगभग किनारे पर है। दिन भर आवाजाही की धमक रहती है। मौसम के बदलते मिजाज में कल सुबह जब दुकान तक गया तो  हर तरहफ कोहरा ही कोहरा था , घना  , बरसता हुआ कोहरा। ऐसे में सावधानी पूर्वक सड़क पार कर घर तक आते हुए , मोबाइल से सड़क  का चित्र उतारते हुए कुछ पंक्तियां जेहन में उतरा आईं , वे  ही साझा हैं यहाँ....


कोहरे में आते - जाते..

आज फिर से तना घना कोहरा
आज से बहुत महीन है घाम।

आज फिर से पलट रहा जाड़ा
आज फिर से हैं सर्द सुबहो शाम।

आज से है अनमना - सा मन
आज फिर से हैं सब अधूरे काम।

आज फिर से उसे भुलाना है
आज फिर से रहेंगे हम नाकाम।

आज फिर से किताबें पूछेंगी
आज फिर से लिखा है किसका नाम?

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

कहीं तो होगा वसंत !

शिशिर का हुआ नहीं अंत
कह रही है तिथि कि आ गया वसंत !

शिशिर की कँपन का अभी अंत नहीं हुआ है किन्तु तिथि तो कह रही है वसन्त आ गया है। कैलेन्डर - पंचांग बता रहे हैं कि आज वसंत पंचमी है। वसंतागम के साथ ही  आज मुझे  अपनी एक कविता 'कहाँ है वसंत' को साझा करने का मन हुआ है जो बहुत पहले प्रकाशन विभाग  की मासिक पत्रिका 'आजकल' के युवा लेखन अंक में छपी थी। आइए , इसे देखते - पढ़ते हैं.....


कहाँ है वसंत

कहाँ है वसंत
आओ मिलकर खोजें
और खोजते-खोजते थक जाएँ
थोड़ी देर किसी पेड़ के पास बैठें
सुस्तायें
काम भर ऑक्सीजन पियें
और फिर चल पड़ें

कहीं तो होगा वसंत!
अधपके खेतों की मेड़ से लेकर
कटोरी में अंकुरित होते हुए चने तक
कवियों की नई-नकोर डायरी से लेकर
स्कूली बच्चों के भारी बस्तों तक
एक-एक चीज को उलट-पुलट कर देखें
चश्मे का नम्बर थोड़ा ठीक करा लें
लोगों से खोदखोदकर पूछें
और बस चले तो सबकी जामातलाशी ले डालें।

कहीं तो होगा वसंत !
आज ,अभी, इसी वक्त
उसे होना चाहिए सही निशाने पर
अक्षांश और देशांतर की इबारत को पोंछकर
उभर आना चाहिए चेहरे पर लालिमा बनकर।
वसंत अभी मरा नहीं है
आओ उसकी नींद में हस्त्क्षेप करें
और मौसम को बदलता हुआ देखें।
----



शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

कहीं नहीं है आईना

यह  नीचे जो कुछ इस  परिचयात्मक भूमिका  के बाद  अलग से  बेतरतीब पंक्तियों में  लिखा गया  है  ; एक कविता भी है और  इसे  पढ़ने की  सुविधा के लिहाज से अलग- अलग पाँच कवितायें भी कह सकते हैं। बात यह है कि इसी संसार में अपने होने का भास - आभास कराता एक और संसार भी है जो कि अब अपनी उपस्थिति की छवियों  से स्थूल जगत की बनावट को बदल  रहा है व व्यतिक्रमित कर रहा है। इस कविता में जो कुछ भी  दिख सकने में सक्षम है ;  वह इसी व्यतिक्रम को एक क्रम देने भर की कोशिश है बस। तो , आइए , इसे देखें - पढ़ें...:


अकथ कथ : कुछ छवियाँ

०१-

बोलते हैं बतियाते हैं
अव्यक्त को
व्यक्त में छापते
छिपाते।
साथ - साथ चलते हैं
राह
नहीं  किन्तु पाते।

०२-

सुनी जाने लायक
चुप्पी के सहचर।
साथ चलते हैं
देर तक
दूर तक
अक्सर।

०३-

कहीं नहीं है आईना
न ही कहीं
ठहरा हुआ है जल।
खुद की हथेलियों में
देखते है खुद को
पल - प्रतिपल विकल।

०४-

कुहराछन्न संसार
न कहीं इसका ओर - छोर।
डरपाती हैं
विविध रूपधारी छायायें
कभी थमा देतीं
अक्सर छुड़ा लेतीं डोर।

०५-

पथ - पथिक
राहगीर - राह
गति- प्रवाह।
नीयत - नीति - निबाह
सतत सचल
वाह - आह - उफ़ -  हाय ।
---

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

यह मैं हूँ कागज के खेत में

'रंग' सीरीज की अपनी कुछ कविताओं में से  एक  कविता आप  इसी ठिकाने पर पहले पढ़ चुके हैं। लीजिए आज प्रस्तुत है एक और कविता :


कुछ और रंग

एक कैनवस है यह
एक चौखुटा आकार
क्षितिज की छतरी
मानो आकाश का प्रतिरूप
जिसकी सीमायें बाँधती है हमारी आँख
और मन अहसूस करना चाहता है अंत का अनंत

दिख रहा है
उड़ रहे हैं रंग
उड़ाए जा रहे हैं रंग
फिर भी
घिस रहा है इरेज़र
लकीरें अब भी हैं लकीर

यह मैं हूँ
कागज के खेत में
शब्दों की खुर्पी से निराई करता
भरसक उखाड़ता खरपतवार
और अक्सर
आईने के सामने
समय के रथ  को रोकता - झींकता
अपने बालों में लगाता खिजाब
सफेद को स्याह करता बेझिझक बेलगाम
---


( चित्र :  संजय धवन की पेंटिंग ' फोर सीजन्स  VI' , गूगल छवि से साभार )

शनिवार, 25 जनवरी 2014

यह दुनिया है एक

आज  प्रस्तुत है 'रंग' सीरीज की अपनी कुछ कविताओं में से  यह एक  पहली कविता ... । अब क्या कहूँ कि  इसमें क्या है !  पता नहीं कुछ है भी कि...। ...यह आप देखें - पढ़ें....

रंग  

कुछ रंग हैं -
एक दूसरे से अलग
और एक दूसरे में घुलकर
घोलते जाते हुए कुछ और ही रंग
वे रुकते नहीं हैं
चलते हैं सधे पाँव
छोटे - छोटे डग भर कर
लगभग माप लेना चाहते हैं धरती का आयतन

कुछ लकीरें है -
सरल
वंकिम
अतिक्रमित
समानान्तर
और भी कई तरह की
जिनके लिए ज्यामिति सतत खोज रही है अभिधान

कुछ दृश्य हैं -
देखे
अदेखे
और कुछ -कुछ
कल्पना व यथार्थ के संधिस्थल पर समाधिस्थ

यह दुनिया है एक
इसी दुनिया के बीच विद्यमान
यहीं के स्याह - सफेद  में रंग भरती
और यहीं की रंगत को विस्मयादिबोधक बनाती
बारम्बार
--



( चित्र :  चित्रा सिंह की पेंटिंग ' रिफ़्लेक्शंस'  , गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 18 जनवरी 2014

उसे देखता हूँ जो आँख भर

आप  चाहें तो इसे ग़ज़ल भी कह सकते हैं। चाहें तो , मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हर विधा का अपना शास्त्र है। अपने नियम हैं और अपनी एक परिपाटी है। फिर भी बहुत दिनो बाद इस ठिकाने पर कुछ तुकबन्दी - सा साझा करना अच्छा लग रहा है।  ऐसा नहीं है कि जो तुक में नहीं है वह बेतुका है ; फिर भी। बहुत दिनों से यह भी सोच रहा हूँ कि मनभाये संगीत की साझेदारी भी नहीं हुई यहाँ बहुत दिनों से। लग रहा है कि बहुत दिनों से बहुत कुछ नहीं किया। तो क्या किया बहुत दिनों से  ? यह सवाल स्वयं से , आप यह ग़ज़ल देखें...

* * *

उसे देखता हूँ जो आँख भर।
तो आसान लगता है सफर।

वो क्या है मुझको क्या खबर,
क्यों सिर धुनूं इस बात पर।

एक कशिश -सी है घिरी हुई
उसे मान लूँ इक जादूगर ?

मैं पूछता हूँ कभी खुद से ही
क्या मिल गया उसे चाहकर।

अब हिज्र क्या विसाल क्या
मुझे उज्र क्या इस हाल पर !

ये नज़्म कविता ये शायरी
सभी उसके ही हैं हमसफर।
----


( चित्र : सत्यसेवक मुखर्जी की कृति, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' से साभार)

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

एक पाठक का चुनाव : टेड कूजर

किसी कविता को , कविता की किसी किताब , कवि के कृतित्व को उसका  अपना , अपने किस्म का पाठक मिले  इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ! पाठक कैसा हो ? उसे कैसा होना चाहिए ? उसे कैसा दीखना चाहिए? उसे  कैसा सोचना चाहिए? इस प्रकार के प्रश्न और उत्तरों की एक सरणि है जो चल रही और चलती रहेगी। आइए , कुछ इसी  तरह  की बात से जुड़ती हुई एक कविता पढ़ते हैं जिसे लिखा है मशहूर अमेरिकी कवि टेड कूजर ने। आज से कई साल पहले 'द न्यूयार्क टाइम्स ' को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था   कि 'Poetry can enrich everyday experience, making our ordinary world seem quite magical and special.' आइए इस  छोटी - सी कविता के बहाने देखने की  एक कोशिश करते हैं कि हमारी रोज की दुनिया में कविता की कैसी दुनिया है और वह इस दुनिया की  दैनन्दिन साधारणता में कितना और कैसा जादू उपस्थित कर पाती है। तो ,  लीजिए पढ़ते हैं यह कविता :


टेड कूजर की कविता
एक पाठक का चुनाव  
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

सर्वप्रथम , मैं चाहूँगा कि वह सुन्दर हो
और मेरी कविता में  चल रही हो सावधानीपूर्वक
दोपहर बाद के निपट अकेले एकान्त में
धुलाई के बाद  उसकी गर्दन पर चिपके हों गीले बाल
वह पहने हुए हो पुराना मैला रेनकोट
क्योंकि उसके पास फालतू पैसे नहीं है धुलाई करवाने के लिए।
                                                                                                                                         
वह निकालेगी अपना चश्मा
वहाँ किताबों की दुकान में
मेरी कविताओं को उठाकर देखेगी
और बाद में किताब को  रख देगी शेल्फ़ में
वह स्वयं से कहेगी
'इस तरह के पैसों से मैं धुलवा सकती हूँ अपना रेनकोट'
और वह करेगी ऐसा।
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* ( चित्र : शैन्टल जोफ़  की  कृति  'येलो  रेनकोट', गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 11 जनवरी 2014

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर : बिली कालिंस

पिछली पोस्ट के रूप में  आपने पढ़ चुके हैं  प्रसिद्ध अमेरिकी कवि बिली कालिंस की एक कविता ' लेखकों को सलाह'। इसी क्रम में आज प्रस्तुत  करते हैं उनकी एक और कविता जिसका शीर्षक  है 'कविता की शिनाख्त'। यह कविता , पढ़ने - पढ़ाने  , रचने - बाँचने  वाली  बड़ी  बिरादरी के समक्ष सतत विद्यमान उस यक्ष प्रश्न को उठाती है  कि  कविता  आखिर क्या है ? कविता के होने को हम कैसे  अनुभव करते हैं ? हम कैसे कविता  को बरतते है तथा उससे क्या  , कितनी  और किस किस्म की उम्मीद रखते हैं...? आइए , साझा करते है इस कविता को :


बिली कालिंस की कविता
कविता की शिनाख्त
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मैं कहता हूँ उनसे कि एक कविता लो
और  रोशनी की ओर कर उसे देखो
एक रंगीन स्लाइड की तरह।

या फिर अपना कान सटाओ इसके छत्ते से।

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर
और देखो कि कैसे खोजता है वह बाहर आने की राह।

या घुसकर घूमो कविता के कक्ष के भीतर
और महसूस करो दीवारों को बिजली के स्विच की खातिर।  

मैं चाहता हूँ कि वे वाटर- स्की करें
किसी कविता की सतह के ओर - छोर
और तट पर लिखे रचयिता के नाम की ओर हिलाते रहें हाथ।

लेकिन वे जो करना चाहते हैं वह  है यह
कि रस्सी से बाँधकर कविता को कुर्सी संग
उससे करवाना चाहते हैं कुछ कुबूल।

वे शुरू करते हैं उसे एक पाइप से पीटना
ताकि जान सकें कि क्या है इसका सचमुच का अर्थ।
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* ( चित्र : क्रिस लोकार्ट  की  कृति  'स्ट्राबेरी  पोएम', गूगल छवि से साभार)

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

लेखकों को सुझाव : बिली कालिंस

अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के  इस मंच पर नए बरस की पहली पोस्ट के रूप में विश्व कविता के सुधी पाठकों - प्रेमियों -कद्रदानों के लिए  आज प्रस्तुत है अमेरिकी  कवि  बिली कालिंस की यह एक कविता जो  मेरी समझ से हर देश - काल  में रचनाप्रक्रिया और रचनात्मक ईमानदारी  की राह - रेशे खोलती - सुलझाती  - सिखाती हमे साथ - साथ लिए जाती है...


बिली कालिंस की कविता
लेखकों को सुझाव
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

भले ही खप जाए इसमें सारी रात
मगर एक हर्फ़ लिखने से पूर्व
धो डालो दीवारें और रगड़ डालो अपने अध्ययन कक्ष का फर्श।

साफ कर दो सब जगहें
गोया इसी राह से  गुजरने वाले हैं पोप आदि
प्रेरणाओं की सुहृद हैं दाग -धब्बाहीन जगहें।

तुम जितनी सफाई करोगे
उतनी ही प्रतिभावान होगी तुम्हारी लिखावट
इसलिए संकोच मत करो
छान डालो खुली जगहें
माँज डालो शिलाओं के कोने आँतरे
घने जंगलों की ऊँची शाखाओं पर फेर आओ फाहे
जिन पर लटके हैं अंडों से भरे हुए तमाम घोंसले।

जब तुम राह पाओगे अपने घर की
और झाड़न व झाड़ुओं को सहेजोगे सिंक के नीचे
तब तुम निहार सकोगे भोर के उजास में
अपने डेस्क की बेदाग वेदिका
एक साफ दुनिया के मध्य एक निर्मल सतह।

नीली आभा से चमक रहे
एक छोटे से गुलदान से
जिसकी हो सबसे धारदार नोक
उठाओ एक पीली पेंसिल
और भर दो कागज को छोटे- छोटे वाक्यों से
कुछ इस तरह
जैसे कि समर्पित चींटियों की लम्बी कतार
जंगलों से चली आ रही हो  तुम्हारे पीछे - पीछे - पीछे।