बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आओ देखें कि दुआ कैसी हौसला क्या है !



खबर कैसी है वाकया क्या है !
मुद्दआ क्या है माजरा क्या है !

पूछो मत कि हालाते-हाजरा क्या है !
वक्त बेशर्म है हया क्या है !

बदन छलनी कलेजे पे दाग ही दाग,
इस नए साल में नया क्या है !

एक रस्मी-सी रवायत मुबारकबादों की,
वैसे इस रस्म में बुरा क्या है !

सुनते हैं उम्मीद पर कायम है जहाँ,
आओ देखें कि दुआ कैसी हौसला क्या है !

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं


बच्चे कितना कुछ जानते हैं और हमें अक्सर लगता है कि हम और केवल हम ही कितना कुछ जानते हैं। पॊडकास्टिंग कैसे करते हैं? यह मेरे लिए अभी तक एक रहस्य था और इस बाबत कई लोगों से पूछा भी. कई लोगों ने इसे एक कठिन और श्रमसाध्य जुगत बताया. 'अनुनाद' ब्लाग चलाने वाले संभावनाशील युवा कवि और मेरे शहरे - तमन्ना नैनीताल के कुमाऊँ विश्वविद्यालय में उपाचार्य भाई शिरीष कुमार मौर्य ने फोन पर इसके बारे में विस्तार से जानकारी भी दी किन्तु मैं ठहरा मूढ़मति, सो ठीक से समझ न सका. कल एक कार्यक्रम में शामिल होने के सिलसिले में दिनभर घर से बाहर रहा. शाम को जब आया तो पता चला कि बच्चों ने छुट्टी का सदुपयोग करते हुए कंप्यूटर पर खूब कारीगरी की और कुछ आडियो फाइलें तैयार कर लीं. आज सुबह बच्चों ने मुझे यह करतब सिखाया और उसी का प्रतिफल यह पोस्ट है- मेरी पहली पॊडकास्ट. यह कैसी बन पड़ी है , मैं क्या कह सकता हूँ लेकिन बिटिया हिमानी और बेटे अंचल जी को शुक्रिया - थैंक्स - धन्यवाद कहने के साथ ही 'कर्मनाशा' के पाठकों के समक्ष अपनी एक पुरानी कविता 'हथेलियाँ' प्रस्तुत कर रहा हूँ जो त्रैमासिक पत्रिका 'परिवेश' (संपादक : मूलचंद गौतम) के २२वें अंक (जुलाई - सितम्बर १९९५) में प्रकाशित हुई थी -




हथेलियाँ

लोग अपनी हथेलियों का उत्खनन करते है
और निकाल लाते हैं
पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु
वे चकित होते है अतीत के मटमैलेपन पर
और बिना किसी औजार के कर डालते हैं कार्बन - डेटिंग.
साधारण -सी खुरदरी हथेलियों में
कितना कुछ छिपा है इतिहास
वे पहली बार जानते हैं और चमत्कॄत होते हैं.

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे.

हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी - कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.
हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है
लेकिन कब तक
खुली - पसरी रहेंगी घठ्ठों वाली हथेलियाँ ?

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

( हिन्दी की ) अकादमिक बिरादरी में ब्लाग की उपस्थिति व अनूगूँज



अभी बीते कल - परसों ही ( २१ - २२ दिसम्बर २००८ ) 'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सामिल होने का अवसर मिला . अकादमिक जगत में इस तरह की संगोष्ठियाँ अक्सर होती रहती हैं जिसमें लेक्चरर से रीडर व रीडर से प्रोफेसर - हेड ऒफ डिपार्टमेंट - प्रिंसीपल पद के आकांक्षी शोधार्थी -प्राध्यापक कैरियर - क्वालिफिकेशन में इजाफा, देशाटन - देशदर्शन व मित्रकुल में बढ़ोत्तरी का उद्देश्य लेकर पहुँचते हैं . हाँ , इसके साथ ही अध्ययन - अध्यापन के नये तरीकों - तजुर्बों से रू-ब-रू होने की इच्छा भी रहती है जो कि इन संगोष्ठियों को प्रायोजित करने वाली मूल उद्देश्य होता है. ऐसे मौसम में जबकि कड़ाके की सर्दी ने अपना कारनामा दिखाना शुरू कर दिया है तब उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जैसे कस्बाई शहर में १९६४ में स्थापित उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा युवा प्राध्यापक डा० प्रणव शर्मा के संयोजकत्व में आयोजित इस सेमिनार में भी वह सब कुछ हुआ जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है किन्तु एक -दो अंतर ऐसे भी रहे जिसके कारण मुझे यह रपट जैसा कुछ लिखने की अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है. पहला तो यह कि देश - विदेश से इसमें शामिल होने वाले प्रतिभागी केवल हिन्दी विषय के ही नहीं थे , न ही सारे पर्चे केवल हिन्दी भाषा में ही पढ़े गये और न ही यह हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रेमियों का कोई सम्मेलन भर बनकर 'अथ' से 'इति' की यात्रा कर पूर्ण हो गया. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में एक वर्ष से अधिक समय से गंभीरतापूर्वक जुड़े होने के कारण यहाँ का अनुभव कुछ ऐसा रहा कि ब्लागपथ के सम्मानित सहचरों के साथ शेयर करने का मन कर रहा है लेकिन उससे पहले एक किस्सा ; तनिक सुन तो लें-

यह आज से करीब छह - सात महीना पहले की बात होगी. हिन्दी की एक लघु पत्रिका राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व व कॄतित्व पर एक विशेषांक निकालने की तैयारी कर रही थी .उसके कर्मठ युवा संपादक ने मुझसे राही के सिनेमा के संसार पर एक लेख लिखने के लिए कहा जिसे मैंने एक बेहद छोटे -से कस्बे से सटे एक गाँव में रहते हुए व्यवस्थित सार्वजनिक और सांस्थानिक पुस्कालय के अभाव में अपने निजी संग्रह तथा इंटरनेट पर 'विकल बिखरे निरुपाय' संदर्भों का 'समन्वय' करते हुए एक लेख तैयार किया और ईमेल से भेज दिया. वह लेख जैसा भी बन पड़ा था संपादक को ठीकठाक लगा किन्तु लेख के अंत दिए गए उन संदर्भों को उन्होंने प्रकाशित न करने की की बात कही जो विभिन्न ब्लाग्स के हवाले या रेफरेंस थे. मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की परंतु संपादक का कहना था कि ब्लाग के पते या या उस पर प्रकाशित सामग्री के लिंक को रेफरेंस में दिए जाने को हिन्दी का अकादमिक जगत सहजता से स्वीकार नहीं कर पाएगा. मैंने भी संपादकीय विशेषाधिकार में दखल नहीं दिया और अब वह लेख वैसे ही छपा है, जैसे कि संपादक का मन था फिर भी मुझे यह यकीन जरूर था कि एक न एक दिन हिन्दी का अकादमिक जगत अपने नजरिए में बदलाव अवश्य लाएगा. ऐसा हो भी रहा है, यह बात पीलीभीत के सेमिनार में जाकर पता चली.

'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न इस सेमिनार में तीन तकनीकी सत्रों में जनसंचार के विविध आयामों , उपकरणों , हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास -वर्तमान-भविष्य, प्रमुख पत्रकारों के व्यक्तित्व - कॄतित्व आकलन ,प्रिंट- इलेक्ट्रानिक मीडिया की संभावनायें तथा सीमायें, प्रचार सामग्री की प्रस्तुति में समाचार - विचार के नेपथ्य में चले जाने पर चिन्ता , भाषा और प्रौद्योगिकी, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका, जनसंचार और पत्रकारिता के अध्ययन -अध्यापन - पाठ्यक्रम की दशा - दिशा, पत्रकारिता की स्थानीयता - अंतर्राष्ट्रीयता - तात्कालिकता, पत्रकारिता से जुड़ी संस्थायें और उनकी भूमिका, पत्रकारिता की भाषा का स्वरूप आदि - इत्यादि विषयों / उपविषयों पर पचास से अधिक शोधपत्र पढ़े गए ; उदघाटन -समापन में संयोजकीय -अध्यक्षीय भाषण में जो कुछ कहा गया सो अलग. इस सेमिनार में ब्लाग और उससे जुड़े क्षेत्रों पर चार शोधपत्र प्रस्तुत किए -

१- हिन्दी विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय के रीडर डा० पवन अग्रवाल ने 'इंटरनेट पर विकसित जनसंचार की आधुनिक विधायें' शीर्षक अपने आलेख में पोर्टल , ब्लागजीन, एग्रीगेटर्स, माइक्रोब्लागिंग,पॊडकास्टिंग,आर्केड,विकीपीडिया आदि का उल्लेख करते हुए कहा कि " नवीन विधाओं ने जनसंचार और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन आयाम विकसित किए हैं। तोष का विषय यह है कि हिन्दी भाषा भी इससे अछूती नहीं है और इन नवीन विधाओं से जुड़कर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपना प्रभाव बना रही है."

२- बस्ती के युवा हिन्दी प्राध्यापक डा०बलजीत कुमार श्रीवास्तव ने 'जनसंचार की नई विधा : ब्लागिंग' शीर्षक अपने आलेख में हिन्दी के कुछ चर्चित ब्लागों का उल्लेख करते हुए प्रमुख साहित्यकार -ब्लागरों और सिनेमा की दुनिया के ब्लागरों की चर्चा करने के साथ ही इस बात को रेखांकित किया कि " पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में ब्लाग अभिव्यक्ति का स्वंत्र माध्यम बनकर उभरा है और इसने इंटरनेट पर हिन्दी भाषा भाषित्यों की नई संभावनाओं को अंतर्राष्ट्रीय परिदॄश्य में उकेरा है।"

३- डा० मधु प्रभा सिंह की प्रस्तुति 'ब्लागिंग : अभिव्यक्ति का एक उभरता सशक्त माध्यम' के माध्यम से यह सामने आया कि भोंपू, नगाड़ों, डुगडुगी ,शिलालेखों आदि से प्रारंभ हुई पत्रकारिता को इंटरनेट तक पहुँचा दिया गया है और ब्लागिंग न्यू मीडिया की अद्वितीय परिघटना के रूप में स्वीकॄत हो रही है।ब्लागिंग ने जन अभिव्यक्ति को एक सशक्त मंच दिया है. यह अपनी सीमा के बावजूद अनौपचारिक किन्तु नागरिक पत्रकारिता का ठोस माध्यम है.

४- 'हिन्दी ब्लाग : वैकल्पिक पत्रकारिता का वर्तमान और भविष्य' शीर्षक से एक अन्य आलेख इन पंक्तियों के लेखक ने प्रस्तुत किया जिसका प्रारंभिक रूप 'कर्मनाशा' के पन्नों पर का अक्टूबर माह में लगा दिया था जिसका लिंक यह है.

हिन्दी के अकादमिक सेमिनारों में ब्लागिंग के महत्व को स्वीकार कर उस पर शोधपत्र प्रस्तुत किए जाने लगे हैं और वह चर्चा- परिचर्चा का मुद्दा बन रही है ,यह मुझे पहली बार देखने को मिला. कुछ समाचार पत्रों जैसे 'अमर उजाला' आदि के दैनिक 'ब्लाग कोना' जैसे स्तंभों और कई लोकप्रिय पत्रिकाओं में ब्लाग पर आवरण कथा तथा अन्य संदर्भों के कारण ब्लाग अब अन्चीन्हा और अपरिचित माध्यम नहीं रह गया है. हिन्दी अकादमिक बिरादरी , जिस पर यह अरोप लगता रहा है कि वह न केवल नई तकनीक से प्राय: बचने की कोशिश करती रहती है अपितु हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण - प्रशिक्षण में नवीनता के नकार के लिए कथित रूप से कुख्यात रही है अब वह ब्लाग जैसे नव्य और बनते हुए माध्यम पर बात कर रही है तो इसका स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए.

नगरों -महानगरों में इस प्रकार के कार्यक्रम प्राय: होते रहते हैं और वहाँ सब कुछ भव्य तो होता ही है ढ़ेर सारे 'बड़े नाम' भी आयोजन का हिस्सा बनते हैं लेकिन पीलीभीत जैसे छोटे कद के शहर में एक बड़े कद का सफल आयोजन संपन्न करने के लिए ' मिश्र - शुक्ल - शर्मा ' की इस इस त्रयी ( प्राचार्य : डा० रामशरण मिश्र, हिन्दी विभागाध्यक्ष : डा० रमेशचंद्र शुक्ल और संगोष्ठी संयोजक : डा० प्रणव शर्मा) के साथ उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सभी प्राध्यापक और कर्मचारी बधाई के पात्र हैं . समापन अवसर पर जब मुझसे कुछ बोलने के लिए कहा गया तो बाबा मीर तक़ी 'मीर' याद आ गए , उन्होंने अपने एक शे'र में लखनऊ के ऐश्वर्य और विद्वता के मुकाबले कमतरी आँकने के लिए किसी शहर का नाम लेना चाहा था तो उन्हें पीलीभीत की याद आई थी किन्तु इस सेमिनार से लौटते हुए मुझे यह कल्पना करने में आनंद आता रहा कि आज अगर 'मीर' होते और इस संगोष्ठी में सम्मलित हुए होते तो लखनऊ से कमतरी का इजहार करने के वास्ते शायद किसी और जगह का नाम लेते पीलीभीत का तो कतई नहीं, और कुछ यूँ न कहते -

शफ़क़ से हैं दरो - दीवार ज़र्द शामो - शहर,
हुआ है लखनऊ इस रहगुजर में पीलीभीत.


शनिवार, 20 दिसंबर 2008

कौन ?

???????
हम
साथ - साथ
तुम मुखर
मैं मौन
पूछ रहा हूं स्वयं से
तुम कौन?
मैं कौन?
?????
(चित्र परिचय : छत से जंगल और आती हुई शाम / बिटिया हिमानी द्वारा लिया गया )

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

पिया बाज पियाला पिया जाए ना : दो जुदा रंग



( अभी एकाध दिन पहले भाई प्रशांत प्रियदर्शी ने अपने ब्लाग 'मेरी छोटी सी दुनिया' पर इसी पोस्ट के शीर्षक से मिलती - जुलती एक सुरीली पोस्ट लगाई थी जिस पर उन्होंने 'कबाड़ियों' का जिक्र किया था. कबाड़ी कबीले का एक अदना सदस्य होने नाते मैंने एक टिप्पणी की थी और प्रशांत जी का बड़प्पन देखिए कि उन्होंने उसका जिक्र करते हुए अपनी पोस्ट में तत्काल कुछ जोड़ / घटाव किया साथ ही एक प्यारा सा मेल इस नाचीज को लिखा. अपनी टिप्पणी में मैने वादा किया था कि 'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' का जो रूप मेरे संग्रह में है जिसे जल्द ही 'कबाड़खाना' या 'कर्मनाशा' पेश करँगा . आज की यह पोस्ट उसी टिप्पणी और मेल के मिलेजुले सिलसिले से बन पाई है जिसे बहुत प्रेम के साथ पी० डी० भाई यानि प्रशांत प्रियदर्शी और निरन्तर समॄद्ध होते जा रहे हिन्दी ब्लाग की छोटी-सी दुनिया के सभी सम्मानित साथियों की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ.)

पिया सूँ रात जगी है सो दिखती है सुधन सरखुश.
मदन सरखुश , सयन सरखुश , अंजन सरखुश,नयन सरखुश.

दक्षिण देशीय उर्दू काव्य के आरंभिक युग में सुलतान मुहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह 'मआनी' (१५५० - १६११) अपने पूर्ववर्ती कवियों से इसलिए अलग दिखाई देते हैं कि सिद्धान्तों के प्रतिपादन और विषयबाहुल्य के निरूपण की अपेक्षा उन्होंने न केवल मानवीय पक्ष को प्रमुखता दी है बल्कि खालिस देसी रूपकों व उपमाओं का प्रयोग करते हुए दक़नी को फ़ारसी के प्रभाव से मुक्त कर एक ऐसी काव्यभाषा की प्रस्तुति की जो हिन्दी के बहुत निकट थी. उन्होंने देसी कथानकों , देसी चरित्रों , देसी वस्त्राभूषणों और देसी रीति - रिवाजों ही नहीं वरन अपने आसपास के त्योहारों ,फलों - फूलों - तरकारियों . चिड़ियों पर भी कविता रचना की है. इस नजरिये से वे नजीर अकबरादी के जोड़ के कवि माने जाते हैं.प्रथमदॄष्टया दोनों में एक स्पष्ट अंतर यह हो सकता है 'मआनी' सुलतान थे और नजीर साधारणजन के असाधारण जनकवि.

दिल माँग खुदा किन कि खुदा काम दिवेगा.
तुमनन कि मुरादन के भरे जाम दिवेगा
.

गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश के इस कवि , नगर निर्माता और प्रेमी नरेश का शासनकाल १५८० से १६११ तक रहा . उनकी भाषा सत्रहवीं शताब्दी की उर्दू है - एक तरह से आधुनिक उर्दू और हिन्दी की उत्स-भूमि. इस दॄष्टि से वे आज की हिदुस्तानी भाषा के निर्माताओं में से हैं. 'उर्दू साहित्य कोश' ( कमल नसीम) के हवाले से यह एक रोचक जानकारी मिलती है कि क़ुली क़ुतुबशाह उर्दू के पहले कवि हैं जिनका दीवान प्रकाशित हुआ. इस कवि-शासक ने अपनी प्रेयसी भागमती के नाम प किस 'भागनगर' या 'भाग्यनगर' का निर्माण करवाया उसे आज सारी दुनिया आई० टी० के गढ़ हैदराबाद के नाम से जानती है.अपने इस 'प्रेमनगर' से बेइंतहा मोहब्बत करने वाला यह शायर दुआ करता है कि मेरा शहर लोगों से वैसे ही भरा - पूरा रहे जिस तरह पानी मछलियों से भरा - पूरा रहता है -

मेरा शह्र लोगाँ सूँ मामूर कर ,
रखाया जूँ दरिया में मिन या समी.



रचना : क़ुली कुतुबशाह
स्वर : तलत अजीज और जगजीत कौर
संगीत : खय्याम
अलबम : 'सुनहरे वरक़'

'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' गीत के कई एक संगीतबद्ध रूप उपलब्ध होंगे. मुझे अपने सीमित संसार में केवल तीन रूपों की जानकारी अभी तक है. पहला तो 'हुस्न--जानां' वाला रूप जिसे प्रशांत कल सुनवा चुके हैं. दूसरा रूप आप ऊपर देख -सुन रहे हैं और एक अन्य रूप फ़िल्म 'भागमती : द क्वीन ऒफ़ फ़ॊरचून्स' (निर्देशक : अशोक कौल) में संकलित है जिसे रवीन्द्र जैन के संगीत निर्देशन में रूपकुमार राठौड़ और आशा भोंसले ने गाया है. यह तीसरा रूप एक तरह से 'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' का 'अन्य रूप' इसलिए भी है यह क़ुली क़ुतुबशाह की रचना का प्रक्षिप्त , परिवर्धित अथवा इंप्रोवाइज्ड रूप है. आज की दुनिया में यह कोई नया प्रयोग नहीं है. अत: इसे सुन लेने में कोई हज्र नहीं है. तो लीजिए प्रस्तुत है - 'जिया जाए अम्मां जिया जाए ना...



टिप्पणी : यदि क़ुली कुतुबशाह के बारे में कुछ पढ़ने का मन हो तो 'Prince, Poet, Lover, Builder : Muhammad Quli Qutb Shah The Founder of Hyderabad' ( Narendra Luther) और 'Muhammad -Quli -Qutb Shah : Founder of Haidarabad' ( Haroon Khan Sherwani ) जैसी कुछ किताबें देखी जा सकती हैं.

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

पिछले कुछ दिनों से जी कुछ उचटा - सा है. इसलिए ब्लाग पर आना और कुछ लिखना हो नहीं पा रहा है. लगता है कि कहीं कुछ खो - सा गया है.

भाई विजयशंकर चतुर्वेदी ने 'कबाड़खाना' पर आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' पर तीन पोस्ट्स की एक बहुत अच्छी सीरीज पेश की है. इस 'बदनसीब' शायर से मेरा रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि पाई थी. और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे..

आज भाई विजयशंकर जी की पोस्ट पढ़कर 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -स्वर है रूना लैला का...


बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।


ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।


उसकी आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू ,
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी


बुधवार, 10 दिसंबर 2008

छाप तिलक : एक बार और











यह गीत
जो भी रूप धारण कर सामने आए
हर बार भाए ।
बाबा अमीर खुसरो
आज से बरसों - बरस पहले
हिन्दी को नए चाल में
तुम्हीं तो लाए।






छाप तिलक / लता मंगेशकर और आशा भोंसले
फिल्म : मैं तुलसी तेरे आंगन की (१९७८)

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

मीठी चित्र पहेली - इस मिठाई का नाम बतायें !



बीत गई कब की दीवाली.
खील - बताशे -दीपों वाली..

खूब हुआ था धूम -धड़ाका.
मन में अंकित है वह खाका..

तरह - तरह के थे पकवान.
मन ललचाए कर के ध्यान..

जिस मीठे का चित्र लगा है .
उसके स्वाद ने खूब ठगा है..

करूँ याद मुख आए लार.
नाम बतायें इसका यार।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

हिन्दवी - हिन्दी की पढ़ाई लिखाई बरास्ता 'छाप तिलक ...

आज से लगभग सात सौ बरस पहले की भाषा और ऐसी सरल ऐसी आमफहम ... आज प्रचलित हिन्दी भाषा का ऐसा स्पष्ट रूप....बीच के इतने वर्षों में यह कितने - कितने चोले बदलती रही और 'बहता नीर' बनकर अविराम बह रही है.-

सजन सकारे जाँयगे नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर ,भोर कभी ना होय..

अमीर खुसरो ( १२५३ - १३२५ ) का ध्यान आते ही मुझे एटा जिसे का वह छोटा - कस्बा पटियाली दिखाई देने लगता है जहाँ मैं आज तक गया नहीं. मुझे भारतीय इतिहास के वे पात्र भी इखाई देने लगते हैं जिनके दरबारों उनकी शायरी के नायाब नमूने गूँजते रहे होंगे .इतिहास की चलनी से जो भी छनकर हमारे पास तक पहुँचा है वह कितना अमूल्य है यह संगीतकारों ने बखूबी महसूस कराया है. उर्दू की पढाई - लिखाई की कोई ठोस जानकारी मेरे पास नहीं है किन्तु हिन्दी के उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम की अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि 'हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने.

आज बस इतना ही हिन्दी - उर्दू - हिन्दुस्तानी के उद्भव और विकास और भाषा के सवाल पर विवाद और वैषम्य के मसले पर फिर कभी.. आइये सुनते हैं बारम्बार साधी ,सुनी और सराही गई यह रचना - छाप तिलक सब छीनी.... हिन्दुस्तानी शायरी के प्रणम्य पुरखे अमीर खुसरो के शब्द और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब का स्वर...


शनिवार, 29 नवंबर 2008

निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश !









वे वहाँ हैं
सुन रहे हैं गोलियों की गर्जना
हम यहाँ हैं
सुन रहे हैं शान्त - सुमधुर संगीत
वे वहाँ हैं
उनके नथुनों में पसर रही है बारूदी गन्ध
हम यहाँ हैं
हमारी आत्मा तक उतरा रहा है रस और स्वाद
वे वहाँ हैं
जीवन के दर्प को दरकते हुए देखते
हम यहाँ हैं
निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश.
वे वहाँ हैं
रक्त के राख होते रंग और ताप के चश्मदीद
हम यहाँ हैं
शब्दों को चीरकर कविता जैसा कुछ बनाने में तल्लीन.

उनके और हमारे दरम्यान
उफना रहा है लहू का काला समन्दर
अपने असंख्य विषधर समूहों से मज्जित - सुसज्जित
यदा कदा
यत - तत्र उगते बिलाते दीख रहे हैं उम्मीदों के स्फुलिंग
कविता की यह नन्हीं - सी नाव
हिचकोले खाए जा रही है लगातार -लगातार
जहाँ तक, जिस ठाँव तक जाती जान पड़ती है निगाह
न कोई तट - न कोई किनारा
न ही कूबड़ या घठ्ठे का सादॄश्य रचता कोई द्वीप
अब तो
हाथों में है शताब्दियों से बरती जा चुकी पतवार
और - और -और
मँझधार.. मँझधार.. मंझधार ।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

रोटी हक़ की खाओ , भले ही करनी पड़े बूट पालिश







चुक जाएगा यह तन
काठ हो जाएगी काया
आखिर किस काम की रह जाएगी
जोड़ी - जुगाड़ी धन - दौलत - माया.
काम न आयेंगे
महल - दुमहले कोठी -अटारी
इस दुनिया - ए - फ़ानी में
मुसाफिर है हर शख्स
काल ने तैयार कर रक्खी है सबकी सवारी.
फिर भी
जब तक जियें
तय करें खुद की सीधी - सच्ची राह
ताकि आईने के सामने
नीची न करनी पड़े अपनी निगाह.

अगर ऊपर लिखी पंक्तियाँ कविता कही जा सकती हैं तो यह कविता मुझे एक दूसरी कविता ने लिखवाई है जिसके रचयिता हैं - गुरदास मान. जी हाँ, पंजाबी गायकी को लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले गायक ( और कवि ). मेरा मानना है कि उनकी प्रस्तुतियाँ कविता , संगीत और अभिनय की सजीव त्रिवेणी हैं.

रोटी हक़ की खाओ
भले ही करनी पड़े बूट पालिश
चुक जाएगा यह तन
भले ही रोज करो इसकी मालिश.

आज गुरदास मान के रचे जिस गीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ उसकी अर्थवता की तहें खोलने के लिए मैं अपने सहकर्मी मुख्त्यार सिह जी का आभारी हूँ. कामकाज - दफ़्तर - फाइल के बीच उनसे संगीत के बारे में अक्सर बातें होती रहती हैं और पंजाबी संगीत के बोल समझने में वे मदद भी करते हैं. खैर , थोड़ा लिखना , ज्यादा समझना. आइए सुनते हैं गुरदास मान के स्वर में यह चर्चित - बहुश्रुत गीत - 'रोटी हक दी खाइए जी भाँवे बूट पालशाँ करिए...


बुधवार, 19 नवंबर 2008

बदल रहा तेवर यह आईना








जल्दी से कर लो सिंगार
बदल रहा तेवर यह आईना

धीरे – धीरे बिछ रही है शीशे पर धूल
उग रहे हैं इसमें बेर और बबूल
कौन जाने आंख झपकाते ही
हो जाये बंजर यह आईना


जल्दी से कर लो सिंगार
बदल रहा तेवर यह आईना

आंखों में आंज लो काजर की रेख
क्या पता निकाल दे कोई मीन – मेख
तन से आलोचक है
मन से है शायर यह आईना

जल्दी से कर लो सिंगार
बदल रहा तेवर यह आईना

सोमवार, 17 नवंबर 2008

कौसानी में सुबह : दो शब्द चित्र

पिछले चार - पाँच दिन यात्रा और उत्सव में निवेश हुए - इन्हें 'व्यतीत' कहने का मन नहीं कर रहा है.सबको पता है कि आजकल बाजार मंदा चल रहा है - उतार की ओर. लेकिन इस निवेश में अभी तक कोई घाटा नहीं लग रहा है, सोच - समझ की माटी की उर्वरा तनिक उदित - सी हुई है.प्रकॄति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले सुमित्रानंदन की जन्मस्थली कौसानी ( जिला - बागेश्वर , उत्तराखंड) में १४ , १५ और १६ नवम्बर २००८ को संपन्न 'पंत -शैलेश स्मॄति' नामक इस त्रिदिवसीय अयोजन में जो कुछ हुआ उसकी रपट जल्द ही यहाँ दिखाई देगी किन्तु मैंने इसी दौरान वहीं 'कौसानी में सुबह' शीर्षक से एक कविता लिखी जिसके पाँच हिस्से हैं. 'कर्मनाशा' के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसके केवल दो टुकड़े -

१.

मुँह अंधेरे
कमरे से बाहर हूँ पंडाल में
यहीं , कल यहीं जारी था जलसा.
अभी तो -
सोया है मंच
माइक खामोश
कुर्सियां बेतरतीब - बेमकसद...
तुम्हारी याद से गुनगुना गया है शरीर.

उग रहा है
सूर्य के उगने का उजास
मंद पड़ता जा रहा है
बिजली के लट्टुओं का जादुई खेल
ठंड को क्यों दोष दूं
भले - से लग रहे हैं
उसके नर्म , नुकीले , नन्हें तीर !

२.

कैसे - कैसे
करिश्माई कारनामे
कर जाता है एक अकेला सूर्य....
किरणों ने कुरेद दिए हैं शिखर
बर्फ के बीच से
बिखर कर
आसमान की तलहटी में उतरा आई है बेहिसाब आग.

कवि होता तो कहता -
सोना - स्वर्ण - कंचन - हेम...
और भी न जाने कितने बहुमूल्य धातुई पर्याय
पर क्या करूं -
तुम्हारे एकान्त के
स्वर्ण - सरोवर में सद्यस्नात
मैं आदिम -अकिंचन...निस्पॄह..निश्शब्द..
क्या इसी तरह का
क्या ऐसा ही
रहस्यमय रोशनी का - सा होता है राग !

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

'तर्ज़' का तवील तजकिरा ..और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल



तारीख ठीक से याद नहीं , इतना जरूर याद है कि अक्टूबर या नवम्बर का महीना था. जगह और साल की याद अच्छी तरह से है - गुवाहाटी,१९९२. दशहरा - दुर्गापूजा की उत्सवधर्मिता के उल्लास का अवसान अभी नहीं हुआ था. मौसम के बही - खाते में सर्दियों के आमद की इंदराज दर्ज होने लगी लगी थी और मैं पूजा अवकाश के बाद पूर्वोत्तर के धुर पूरबी इलाके की यात्रा पर था. गुवाहाटी में एक दिन पड़ाव था. पलटन बाजार में यूं ही घूमते - फिरते एक म्यूजिक शाप में घुस गया था. नई जगहों पर, 'नए इलाके में' म्युजिक शाप और बुकशाप का दीख जाना कुछ ऐसा -सा लगता है मानो दुनिया -जहान के गोरखधंधे में सब कुछ लगभग ठीकठाक चल रहा है. अच्छी तरह पता है कि यह अहसास बेमानी है - यथास्थिति से एक तरह का पलायन फिर भी.. खैर, किस्सा - कोताह यह कि उस संगीतशाला से दो कैसेटें खरीदी थी -एक तो टीना टर्नर के अंग्रेजी गानों की और दूसरी हिन्दी -उर्दू सिनेमा की मौसिकी को नई ऊँचाइयां देने वाले नौशाद साहब की पेशकश 'तर्ज़'. यह १९९२ की बात है.तब से अब तक इसे कितनी बार सुना गया है - कोई गिनती नहीं. तब से अब तक ब्रह्मपुत्र में कितना पानी बह चुका है - कोई गिनती नहीं . तब से अब तक भाषा के सवाल को लेकर कितने उबाल आ चुके हैं / आते जा रहे हैं -उन्हें शायद गिना जा सकता है...

पता नहीं क्यों जब भी 'तर्ज़' की गज़लों को सुनता हूँ तो मुझे मेंहदी हसन साहब और शोभा गुर्टू की आवाज में भीगा हुआ गुवाहाटी शहर दिखाई देने लगता है.सराइघाट के पुल से गुजरती हुई रेलगाड़ियों की आवाजें ललित सेन के इशारों पर बजने वाले साजों- वाद्ययंत्रों से बरसने वाली आवाजों की हमकदम -सी लगने लगती हैं. स्मृति की परतों की सीवन शिथिल पड़ने लगती है और एक -एक कर विगत के विस्मयकारी पिटारे का जादू का 'इन्द्रजाल' रचने लगता है. ब्लूहिल ट्रेवेल्स के बस अड्डे की खिड़की पर लगी डा० भूपेन हजारिका की बड़ी -सी मुस्कुराती तस्वीर.. मन में गूँजने लगता है - हइया नां , हइया नां... बुकु होम -होम करे. इस इंसान की आवाज जितनी सुंदर है उससे कई गुना सुंदर इसकी मुसकान है - कुछ विशिष्ट , कु्छ बंकिम मानो कह रही हो कि मुझे सब पता है, रहस्य के हर रेशे को उधेड़कर दोबारा -तिबारा बुन सकता हूं मैं...'एक कली तो पत्तियाँ' . सचमुच हम सब एक कली की दो पत्तियाँ ही तो हैं - एक ही महावॄक्ष की अलग - अलग टहनियों पर पनपने -पलने वाली दो पत्तियाँ- आखिर कहाँ से, किस ओर से , कौन से चोर दरवाजे से आ गया यह अलगाव.. हिन्दी ,अरे नहीं - नही देवनागरी वर्णमाला का बिल्कुल पहला अक्षर - पहला ध्वनि प्रतीक ही तो है यह 'अ' जो उपसर्ग के रूप में जहाँ लग जाता है वहीं स्वीकार - सहकार नकार - इनकार में में बदल जाता है. वैसे कितना हल्का , कितना छोटा - सा है यह 'अ' . क्या हम इसे अलगा -विलगा कर 'अलगाव' को 'लगाव' में नहीं बदल सकते ?
बतर्ज 'तर्ज़' मैं जब चाहता हूँ स्मॄति के गलियारे में घूम आता हूँ. बिना टिकट -भाड़ा के , बिना घोड़ा-गाड़ी के चाय बागानों की गंध को नथुनों में भर कर 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे -धीरे' की दुनिया में विचरण लेता हूँ. क्या केवल इसीलिए कि इस कैसेट को गुवाहाटी के पलटन बजार की एक दुकान से खरीदा था .या कि पूर्वोत्तर में बिताए सात -आठ साल किताबों और संगीत के सहारे ही कट गए. सोचता हूँ अगर किताबें न होतीं ,संगीत न होता तो आज मैं किस तरह का आदमी होता ? शायद काठ का आदमी !

मित्रो. अगर आपने अभी तक के मेरे एकालाप - प्रलाप को झेल लिया है और 'कुछ आपबीती - कुछ जगबीती' की कदाचित नीरस कहन को अपनी दरियादिली और बड़प्पन से माफ कर दिया है तो यह नाचीज अभी तक जिस 'तर्ज़' का तवील तजकिरा छेड़े हुए हुए था उसी अलबम से गणेश बिहारी 'तर्ज़' के शानदार शब्द, नौशाद साहब के स्वर में 'तर्ज़' की परिचयात्मक भूमिका और उस्ताद मेंहदी हसन साहब की करिश्माई आवाज में उर्दू शायरी की सबसे लुभावनी, लोकरंजक, लोकप्रिय विधा 'ग़ज़ल' के वैविध्य , वैशिष्ट्य और वैचित्र्य का पठन और श्रवण भी अवश्य कर लीजिए -

दुनिया बनी तो हम्दो - सना बन गई ग़ज़ल.
उतरा जो नूर नूरे - खुदा बन गई ग़ज़ल.

गूँजा जो नाद ब्रह्म बनी रक्से मेह्रो- माह,
ज़र्रे जो थरथराए सदा बन गई गज़ल.

चमकी कहीं जो बर्क़ तो अहसास बन गई,
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल.

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढ़ल गई,
बादे - सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल.

हैवां बने तो भूख बनी बेबसी बनी,
इंसां बने तो जज्बे वफा बन गई ग़ज़ल.

उठ्ठा जो दर्दे - इश्क तो अश्कों में ढ़ल गई,
बेचैनियां बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल.

जाहिद ने पी तो जामे - पनाह बन के रह गई,
रिन्दों ने पी तो जामे - बक़ा बन गई ग़ज़ल.

अर्जे दक़न में जान तो देहली में दिल बनी,
और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल.

दोहे -रुबाई -नज़्म सभी 'तर्ज़' थे मगर,
अखलाके - शायरी का खुदा बन गई ग़ज़ल.

स्वर - मेंहदी हसन
शब्द - गणेश बिहारी 'तर्ज़'
संगीत - ललित सेन




( 'तर्ज़' से ही शोभा गुर्टू जी के स्वर में एक ग़ज़ल किसी और दिन .आज बस इतना ही.आभारी हूँ कि आपने इस प्रस्तुति को पढ़ा -सुना, वैसे इसमें मेरा योगदान है ही क्या ? )

बुधवार, 12 नवंबर 2008

फिर भी......


मैं तेरी बज्म में आकर बड़ा उदास रहा

मगर न जाने क्यों इसका कोई मलाल नहीं

तेरा खयाल मेरे साथ-साथ है फिर भी

यही खयाल है तुझको मेरा खयाल नहीं.

रविवार, 9 नवंबर 2008

रुको मत समय


रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रही है नदी की धार !

प्रेम में पगी हुई यह जीभ
चखना चाहती है रुके हुए समय का स्वाद
आज का यह क्षण
मन महसूस करना चहता है कई शताब्दियों बाद
जी करता है बीज की तरह धंस जाए यह क्षण
भुरभुरी मिट्टी की तह में
और कभी, किसी कालखंड में उगे जब
तो बन जाए एक वृक्ष छतनार
जिसकी छाँह में जुड़ाए
आज का यह संचित प्यार !

रुको मत समय
तुम बहो हवा की तरह
जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार
और उड़ा ले जाओ इस क्षण की सुगंध का संसार.
रुके हुए समय से
आखिर कब तक चलेगा एकालाप
कब तक अपनी ही धुरी पर थमी रहेगी यह पृथ्वी
आखिर कब तक चलता रहेगा वसंत का मौसम चुपचाप
कब तक आंखें देखती रहेंगी
गुलाब , गुलमुहर और अमलतास
जबकि और भी बहुत कुछ है
अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास
कुछ सूखा
कुछ मुरझाया
कुछ टूटा
कुछ उदास !

रुको मत समय
तुम चलो अपनी चाल
अपने पीछे छोड़ते जाओ
कुछ धुंधलाये , कुछ चमकीले निशान
जिन्हें देखते - परखते - पहचानते
उठते - गिरते चलें मेरे एक जोड़ी पाँव
और क्षितिज पर उभरता दिखाई दे
एक बेहतर दुनिया के सपनों का गाँव .

रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रहे है नदी की धार
रुको मत समय
तुम बहो हवा की तरह
जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार !

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

एक उन्मन - उदास त्रिवेणी








चाँद ने क्या - क्या मंजिल कर ली , निकला ,चमका डूब गया,
हम जो आँख झपक लें , सो लें, ऐ दिल हमको रात कहाँ !


- इब्ने इंशा


............................


बेघर बे - पहचान
दो राहियों का
नत - शीश न देखना - पूछना ।
शाल की पंक्तियों वाली
निचाट -सी राह में
घूमना , घूमना , घूमना ।


-नामवर सिंह


....................


कई बार यूँ ही देखा है
ये जो मन की सीमारेखा है.......



गायक - मुकेश
संगीतकार - सलिल चौधरी
गीतकार -योगेश
फ़िल्म- रजनीगंधा

सोमवार, 3 नवंबर 2008

कल याद का अब्र उमड़ा था और बरसा भी


याद का अब्र है उमड़ेगा बरस जाएगा.

वक्त के गर्द को धो-पोंछ के रख जाएगा.

कल एक संयोग के चलते पूरा दिन अपने विश्वविद्यालय में बिताने का मौका मिला. हाँ, उसी जगह जिस जगह अपने दस बरस (मैं केवल वसंत नहीं कहूंगा ,इसमें पतझड़ से लेकर सारे मौसम शामिल हैं) बीते और आज भी स्मॄति का एक बड़ा हिस्सा वहां की यादों से आपूरित - आच्छादित है. यह कोई नई और विलक्षण बात नहीं है. अपनी - अपनी मातॄ संस्थाओं में पहुंचकर सभी को अच्छा -सा , भला-सा लगता होगा. कल हालांकि इतवार था और सब कुछ लगभग बन्द-सा ही था. केवल खुला था तो प्रकॄति का विस्तार और गुजिश्ता पलों का अंबार.मौसम साफ था,धूप खिली हुई थी और नैनीताल के पूरे वजूद पर चढ़ती - बढ़ती हुई सर्दियों की खुनक खुशगवार लग रही थी. दुनियादारी के गोरखधंधे से लुप्तप्राय - सुप्तप्राय मेरे भीतर के 'परिन्दे' इधर से उधर फुदक रहे थे और मन का मॄगशावक कुलांचे भरने में मशगूल था. बहुत सारी बातें /किस्से / 'कहानियां याद-सी आके रह गईं.' -


मन की सोई झील में कोई लहर लेगी जनम ,

छोटा -सा पत्थर उछालें अजनबी के नाम.


जब कयामत आएगी तो मैं बचाना चाहूंगा,

उसकी खुशबू,उसके किस्से,उस परी के नाम.


तब 'वे दिन' बहुत छोटे -छोटे थे और अपने पास बातें बहुत बड़ी -बड़ी थीं. कितनी-कितनी व्यस्तता हुआ करती थी उन दिनों .सुबह पहने जूतों के तस्में रात घिरने पर होस्टल लौटकर ही खुलते थे. कभी यह काम तो कभी वह - और आलम यह कि सब कुछ हो रहा है बस पढ़ाई-लिखाई भी परंतु थीसिस लिखने के काम पर अघोषित विराम -सा लगा है - बहुत कठिन है डगर पी-एच०डी० की. उस वक्त लगता था कि अगर आसपास , इर्द-गिर्द कुछ रंगीन , रेशमी - रेशमी,रूई के फाहे जैसा है तो कुछ ऐसा भी है जिसके रंग बदरंग हो चले हैं , रोयें - रेशे उधड़ रहे हैं और ऐसी 'झीनी -झीनी बीनी चदरिया' को 'मुनासिब कार्रवाई' के जरिए तत्काल एक कामयाब रफूगरी और तुरपाई की सख्त दरकार है-


जबकि और भी बहुत कुछ है

अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास

कुछ सूखा

कुछ मुरझाया

कुछ टूटा

कुछ उदास !



खैर, कल याद का अब्र उमड़ा था और बरसा भी और याद आता रहा यह गीत. आप सुनिए -हिन्दी रवीन्द्र संगीत के अलबम 'तुम कैसे ऐसा गीत गाते चलते' से 'वो दिन सुहाना फूल डोर बंधे...' स्वर है सुरेश वाड़कर और ऊषा मंगेशकर का.



शनिवार, 1 नवंबर 2008

कागज पर तेरा नाम


एक मचलती दोपहर और इक लरजती शाम।

इस ग़ज़ल में क्यों नहीं है सुबह का पैगाम।

खून में डूबी हुई है हर कलम की नोक,
मैं नहीं लिख पाऊंगा कागज पर तेरा नाम.

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

ब्लागावकाश के बाद कुछ बिखरा -सा...

* धनतेरस, दीपावली ,गोवर्धन पूजा और आज भैया दूज के साथ छुट्टियों के सिलसिले पर विराम लगा लगा है। इस बीच कई सारे काम किए - घर बाहर की सफाई से लेकर कबाड़ की छंटाई तक. कुछ फाड़ा,फेंका और पहले से भी बहुमूल्य लगा सो उसे जतन से संभाल लिया. इस किस्म के कबाड़ का एक नमूना देखने की इच्छा हो तो 'कबाड़खाना' का एक फेरा लगा लें.

*पिछला सप्ताह मेरे लिए दीपावली अवकाश के साथ एक तरह का ब्लगावकाश भी रहा। बहुत सारे मित्रों - शुभचिन्तकों ने शुभकामनायें - बधाई दीं- उन्हें धन्यवाद और आभार ! पता चला कि कुछ मित्रों का जन्मदिन पड़ा था और मैं देर से जान सका.खैर देर से ही सही बधाई हो बधाई !

*अब धीरे धीरे ब्लाग पर लिखना फिर शुरू -सा हो रहा है परंतु क्या लिखा जाय? क्या आप के साथ भी अक्सर ऐसा होता है कि उत्सव के बाद उदासी -सी उपजती है।अपने आसपास, देश - दुनिया - जहान की उठापटक के बीच उत्सवधर्मिता के जो चंद पल यथार्थ की अकुलाहट को अवरुद्ध कर देते हैं वे कितनी जल्दी व्यतीत हो जाते हैं. सुगंध की तरह उड़ जाती है उनकी उपस्थिति.

*खैर अपने इस ब्लागिस्तान में पिछले सप्ताह भर से विचरण नहीं-सा ही हुआ है।इस बीच निश्चित रूप से बहुत कुछ ऐसा आया होगा / आया है जिससे गुजरना है-पढ़ना , सुनना, देखना है और मन रमने पर अपनी राय भी जाहिर करनी है.

*आज बस इतना ही. हाँ, दीपावली पर मिले तमाम संदेशों के बीच एक बहुत प्यारा-सा ई-मेल बिलासपुर (छतीसगढ़) के शिवा कुशवाहा जी का मिला जिसे सबके साथ बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ -
Look at these enthusiastic little lamps!
They are determined to crush the arrogance of the moon
and
have come forward to fight against the darkest night of the month।
Hats off to this bubbly confidence !!!
Wish you and your family an illuminating Deepawali !

* 'कर्मनाशा' पर आने वाले और इसका लिंक देने वाले सभी मित्रों के प्रति आभार !

*चलते -चलते अर्ज है 'मोमिन' का यह शे'र -

ये उज्रे - इम्तहाने जज्बे -दिल कैसा निकल आया,
मैं इल्जाम उसको देता था कुसुर अपना निकल आया.

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

...कि तुझको सोते हुए चाँद देखता होगा.


.........अभी कुछ दिन पहले ही 'कबाड़खाना' पर फिल्म 'अंजुमन' से एक ग़ज़ल आप सबको सुनवाई थी. हम सब की ब्लाग की इस बनती हुई दुनिया में उत्कॄष्ट संगीत से सराबोर करने वाले भाई मीत का प्यार भरा आदेश था कि इसी अलबम से कुछ और सुनवाया जाय. सो बिना किसी टीका - टिप्पणी के प्रस्तुत है यह ग़ज़ल - मीत के लिए और सारे मित्रों के लिए.......

गुलाब जिस्म का यूं ही नहीं खिला होगा.
हवा ने पहले तुझे फिर मुझे छुआ होगा.

शरीर- शोख किरन मुझको चूम लेती है,
जरूर इसमें इशारा तेरा छुपा होगा.

म्रेरी पसंद पे तुझको भी रश्क आएगा,
कि आइने से जहां तेरा सामना होगा.

ये और बात कि मैं खुद न पास आ पाई,
प' मेरा साया तो हर शब तुझे मिला होगा.

ये सोच - सोच के कटती नहीं है रात मेरी,
कि तुझको सोते हुए चाँद देखता होगा.

मैं तेरे साथ रहूंगी वफ़ा की राहों में,
ये अहद है न मेरे दिल से तू जुदा होगा.
* गायक - भूपिन्दर और शबाना आजमी
* शायर - शहरयार
*संगीतकार - खय्याम

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

प्रेम कविताओं का कोई भविष्य नहीं है ( ?)


तुम्हारा सामीप्य
जैसे अभी-अभी कोई प्रेम कविता पढ़ी है
उगंलियों की छुवन से फिसल रहें है शब्द
संगीत के आरोह-अवरोह से परे है इसकी लय
रूके हुए समय के वक्षस्थल पर
मैं सुन रहा हूं इसकी पदचाप !

तुम्हारा सामीप्य
बहुत धीरे-धीरे मेरे पास आता है
और एकाएक चला चला जाता है
हवा में टंगे रह जाते हैं
स्वागत मुद्रा में उठे हुए हाथ।

आलोचक कहते हैं
प्रेम कविताओं का कोई भविष्य नहीं है
क्या सचमुच मेरे भविष्य से अलग है
तुम्हारे सामीप्य का सुंदर - सुकोमल वर्तमान !

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

ब्लागिंग के ३६६ दिन और कुछ 'टूटी हुई - बिखरी हुई'



आज एक बरस पूरा हुआ.

एक वर्ष, अनंत - अविराम समय का बहुत ही छोटा -सा हिस्सा है किन्तु मनुष्य के छोटे-से जीवन में यह इतना छोटा कालखंड भी नहीं है कि इसे अनदेखा - अनचीन्हा किया जा सके. स्वमूल्यांकन के हिसाब से यह 'क्या खोया - क्या पाया' को अवगाहने का अवसर तो है ही. आज से एक साल कुछ दिन पहले मैं 'ब्लागिंग' जैसी किसी किसी चीज से परिचित हुआ था और ठीक एक साल पहले 'कबाड़खाना' पर एक स्वतंत्र पोस्ट चढ़ाई थी. इस विधा / रूप / से परिचित कराने व प्रयोग करने का हौसला तथा हुनर देने का पूरा श्रेय मेरे मित्र अशोक पांडे को है जिनके साथ किसी जमाने में 'सॄजमीक्षा' नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका निकालने के योजना बनाई थी. उस पत्रिका का विज्ञापन / फोल्डर आदि भी छप गया था. अच्छी - खासी रचनायें भी इकठ्ठी हो गई थीं परंतु वह पत्रिका न निकल सकी तो न निकल सकी. ब्लागिंग से जुड़ते हुए यही लोभ - लालच था कि पत्रिका न निकाल सकने की पुरानी कसक को शायद कोई नया किनारा मिल सकेगा लेकिन इससे जुड़कर कर तो ऐसा लगा कि यह काम पत्रिका निकालने से कहीं अलहदा, चुनौती भरा और कहीं आगे का काम है.

'हिन्दी ब्लागिंग' पर अभी एक लेख लिखने की तैयारी चल रही है. अभी तो इसका प्रारूप कच्चा - सा ही है, फिर भी इसके कुछ हिस्से इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत हैं कि अपने एक बरस के ब्लागिंग ( जितनी भी - जैसी भी की है ) का आत्ममूल्यांकन हो सके और हमकदम- हमराह ब्लागर्स अगर इसको पढे़ और जरूरी समझें तो अपने बहुमूल्य सुझावों से 'बहुत कठिन है डगर ब्लागिंग की' पर चलने की राह सुझा सकें. तो प्रस्तुत है एक लिखे जा रहे लेख की कुछ 'टूटी हुई - बिखरी हुई' / बेतरतीब बातें -

हिन्दी ब्लाग : वैकल्पिक पत्रकारिता का वर्तमान और भविष्य

व्यक्तिगत अनुभवों तथा अभिरुचियों की निजी आनलाइन डायरी के रूप में आरंभ हुई ब्लागिंग ने एक दशक की यात्रा पूरी की है. हिन्दी में तो इसके विधिवत विकास का आधा दशक भी नहीं हुआ है फ़िर भी कंप्यूटर एवं इंटरनेट के त्वरित विकास , संचार प्राद्योगिकी की सहज - सस्ती सुलभता, देवनागरी फ़ांट प्रबंधन संबंधी समस्याओं का निराकरण आदि के कारण हिन्दी ब्लाग ने अपनी उपस्थिति की अनिवार्यता प्रस्तुत कर दी है . व्यक्तिगत संप्रेषण का यह माध्यम नया है और अभी अपने शैशवकाल में है किन्तु इसके विकास की संभावनायें अनन्त है. यह निजी डायरी लेखन से काफ़ी आगे बढ चुका है तथा वैकल्पिक पत्रकारिता या भविष्य की हिन्दी पत्रकारिता का एक निरंतर निर्मित हो रहा एक ऐसा रूप है जिसके विकास की दिशा और दशा तय की जानी है।

हिन्दी ब्लाग के समक्ष कोई सुदीर्घ पूर्ववर्ती परंपरा नहीं है और न ही भविष्य का कोई स्पष्ट खाका ही है अपितु इसकी व्युत्पत्ति और व्याप्ति का तंत्र वैश्विक और कालातीत होते हुए भी इतना वैयक्तिक है कि सशक्त निजी अनु्शासन के जरिए इसे साधकर व्यष्टि से समष्टि की ओर सक्रिय किया सकता है इसी में इसकी सार्थकता भी है और सामाजिकता भी. अतएव यह आवश्यक है कि हिन्दी ब्लाग ( जिसे अब 'चिठ्ठा' भी कहा जाने लगा है) की परम्परा,प्रस्तुति और प्रयोग का आकलन - विश्लेषण किया जाय ताकि इस बनते हुए माध्यम की मानवीय और तकनीकी बाधाओं को पहचान कर उन्हें दूर करने के प्रयास के साथ ही 'एक बार फ़िर नई चाल में ढ़ल रही हिन्दी' की सामाजिक भूमिका को दृष्टिपूर्ण तथा दूरगामी बनाया जाय.

एक अनुमान के अनुसार इस समय हिन्दी में( हिन्दी की बोलियों में लिखे जा रहे ब्लागों को छोड़कर) सक्रिय ब्लागों की संख्या दस हजार से अधिक है और रोजाना इस संख्या मे इजाफ़ा हो रहा है. एक ओर जहां अंग्रेजी में ब्लागिंग अपने शीर्ष पर है और लगभग स्थिरता के निकट है वहीं हिन्दी में यह निरंतर विकासमान है. इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया इसे अपना सहगामी और सहचर मानते हुए गंभीरता से इसके महत्व को स्वीकर करते हुए इसे मान दे रहा है. पत्र-पत्रिकाओं में न केवल इसकी उपस्थिति को रेखांकित किया जा रहा बल्कि ब्लाग्स पर प्रस्तुत सामग्री की पुनर्प्रस्तुति भी की जा रही है.

त्वरित लेखन, त्वरित प्रकाशन और त्वरित फ़ीडबैक की सुविधा के कारण हिन्दी ब्लाग जगत वहुविध और बहुरूपी है. इसमें लेखक ही संपादक है और उसके सामने देश काल की सीमाओं से परे असंख्य पाठक हैं जो चाहें तो तत्क्षण अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं. यह सत्य है कि गद्य की गंभीर और गौरवपूर्ण उपस्थिति के बावजूद जिस तरह अधिसंख्य लोगों के लिये हिन्दी साहित्य से आशय केवल कविता है वैसे ही हिन्दी ब्लाग पटल पर कवितायें सर्वाधिक हैं- स्वरचित, श्रेष्ठ हिन्दी कवियों की और विश्व कविता का अनुवाद भी.समाचार, हास्य-व्यंग्य, कहानी, लघुकथा, उपन्यास अंश,समस्या पूर्ति, पहेली,शेरो-शायरी,चित्रकथा, कार्टून,पेंटिंग, फ़ोटोग्राफ़ी आदि के साथ प्रचुर दृश्य-श्रव्य सामग्री भी विद्यमान है.

हिन्दी ब्लाग एक तरह से अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों पर उपलब्ध और निरंतर रचे जा रही विधाओं के दस्तावेजीकरण का एक ऐसा प्रयास है जो व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक है. इंटरनेट की आभासी दुनिया मे यह एक नए संसार की रचना मे सन्नध है. हिन्दी भाषा का एक नया मुहावरा गढ़ते हुए यह गतिशील और गतिमान है तथा इसकी उपस्थिति और उपादेयता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

सुनहरे वरक़' का एक वरक़ और : 'जाने वाली चीज का गम क्या करें'


दुनिया के देखने के लिए आँख चाहिए,
जन्नत की सैर से है सिवा इस मकाँ की सैर।


अभी कुछ ही दिन पहले मैंने 'कबाड़खाना' पर 'सुनहरे वरक़' का एक वरक़ पेश किया था. आज इसी अलबम से प्रस्तुत है एक दूसरी रचना.यह कलाम दाग़ देहलवी का है. नवाब मिर्ज़ा खाँ 'दाग़' देहलवी ( २५ मई १८८३१ - १७ फरवरी १९०५ ) के कई मिसरे लोकोक्तियों का रूप ले चुके हैं. उर्दू की परवर्ती दरबारी काव्य परम्परा का यह नायाब शायर ग़ज़ल गायकों का सबसे पसंदीदा रहा है. यही नहीं, माना जाता जाता है कि उनके शागिर्दों की संख्या दो हजार से अधिक थी. यह भी पढ़ने को मिलता है कि हैदराबाद, जहाँ उनके अंतिम दिन बीते, में उन्होंने इस्लाह (काव्य संशोधन) के लिए एक दफ़्तर ही खोल दिया था. एक शायर के रूप में दाग़ का सबसे बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने लखनवी और देहलवी शैली के सम्मिश्रण का एक ऐसा काव्य रोप प्रस्तुत किया जो न तो मात्र शब्द चमत्कार है और न ही कल्पना की ऊँची-वायवी उड़ान बल्कि वह समग्रतः अनुभूतिपरक व इहलौकिक है.

आज प्रस्तुत है - हमारे समय के संगीत के वैविध्य का एक उदाहरण बन चुके प्रख्यात गायक हरिहरन और साथियों के स्वर में एक ग़ज़ल. संगीत है सुमधुर धुनों के धनी खैयाम साहब का , जैसा कि पहले ही कहा चुका है-अलबम का नाम हैः 'सुनहरे वरक़' .

दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जानेवाली चीज़ का ग़म क्या करें

एक सागर पे है अपनी जिन्दगी
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

सोने के पहले

सोने से पहले
मै खूब थक जाना चाहता हूं
ताकि आ जाए गहरी नींद
-सपनों से खाली निचाट दोपहर -सी नींद.

सोने से पहले
मैं लिख लेना चाहता हूं प्रेम कविताऍ
आत्मा की तह तक
उतार लेना चाहता हूं प्रेम की सुगंध.

सोने से पहले
मैं पढ़ लेना चाहता हूं अपनी किताबें
जिन्हें अभी तक
सिर्फ उलट -पुलट कर देखा भर है।

सोने से पहले
मैं देख लेना चाहता हूं
सोते हुए बच्चे के चेहरे पर मुस्कराहट ।

सोने से पहले
मैं ओढ़ लेना चाहता हूं उस बच्चे का चेहरा
ताकि अगली सुबह जब वह उठे
तो पहचान सके
कि यह वही दुनिया है
जिसे कल रात
वह सोने से पहले वह देख रहा था।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

हर दिन बदलता है पहाड़ अपनी परिभाषा

पहाड़-४

मार दिए जाने की
खत्म कर डाले जाने की
सैकड़ों - हजारों कोशिशों के बावजूद
खड़ा है पहाड़ -
हमारे
और आसमान के दरम्यान
हमारी बौनी छायायों पर
विशालता की परिभाषा लिखता हुआ.

ऊपर दी गई यह छोटी -सी 'बड़ी' कविता उन पन्द्रह कविताओं में से एक है जो आज से कई बरस पहले रची गई थीं और स्वयं इसके रचनाकार ने इन पर / इनके बहुत ही जानदार कविता पोस्टर बनाए थे. ये कवितायें वार्षिक पत्रिका 'पहाड़' सहित कई जगह प्रकशित हुईं और इनके पोस्टरों की प्रदर्शनी भी गांव-गांव,शहर - शहर घूमती रही, सराहना पाती रही तथा १९९२ में ये कवितायें 'देखता हूं सपने' नामक संग्रह का हिस्सा बन गईं.इन कविताओं के कवि का नाम है अशोक पांडे.अभी हाल ही में जिस 'कबाड़खाना' नाम्नी ब्लाग ने एक बरस पूरे किए हैं , अशोक उसके मुखिया हैं किन्तु यह तो बेहद आधा-अधूरा परिचय है. कवि ,चित्रकार,गद्यकार,अनुवादक,यायावर, ब्लागर आदि-इत्यादि रूपों में कौन -सा रूप प्रमुख है इस शख्स का? यह सवाल मेरे लिए हमेशा से पेचीदा और परेशानी भरा रहा है.वैसे भी ,इस तरह का सवाल बेमानी और बेतुका है -खासकर उसके लिए, जिसके लिए मेरे निजी शब्दकोश में एक बहुत छोटा-सा शब्द है - 'मित्र'. मैं तो आज अपने मित्र की 'पहाड़' सीरीज की कविताओं की बात कर रहा था. दरअसल ' कर्मनाशा' पर पिछली दो पोस्ट्स प्रस्तुत करते समय ये कवितायें लगतार मेरे भीतर गूंज रही थीं.
अशोक पांडे द्वारा रचित 'पहाड़' सीरीज की पन्द्रह कवितायें एक साथ देना तो फिलहाल संभव नहीं दीख रहा है अत: केवल दो कवितायें - एक ऊपर दी गई है , अन्य नीचे दी जा रही है. आप देखे- पढ़ें :

पहाड़ - १०

पहाड़ के
इस ओर उगाया जाता है
जहर -
पहाड़ के उस ओर
देवता उगाते हैं संजीवनी

पहाड़ के इस ओर से
पहाड़ के
जब उस ओर का
रास्ता मिल जाएगा
तब खदेड़ दिए जायेंगे देवता
नीचे रेगिस्तान की ओर

तब पहाड़ के
उस ओर भी उगाया जाएगा जहर

पहाड़
सब जानता है
पर निश्चिन्त चुपचाप रहता है
क्योंकि
पहाड़ के इस ओर से
पहाड़ के उस ओर का रास्ता
बस
पहाड़ ही जानता है !

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

सिर्फ सपनों में

मेरे सपनों में आते हैं
आड़ू , सेब , काफल और खुमानी के पेड़
पेड़ों के नीचे सुस्ताई हुई गायें
और उनके थनों से निकलता हुआ दूध .

मेरे सपनों में आते हैं
सीढ़ीदार खेत , रस्सियों वाले पुल
और पुल से गुजरते हुए स्कूली बच्चे .

मेरे सपनों में आते हैं
जंगल , झरने , शिखर
घास काटती हुई स्त्रियां
और बोझा ढोते हुए मजदूर .

मेरे सपनों में आते हैं
पहाड़ से आने वाले लोग
मेरे सपनों में आते हैं
पहाड़ को जाने वाले लोग .

मेरे सपनों में
अब नहीं आता है पहाड़
जबकि अब...
सिर्फ
सिर्फ
सिर्फ
सपनों में ही आ सकता है पहाड़ !


( यह कविता वेब पत्रिका : http://www. hindinest.com के अंक - March 14‚ 2003 में प्रकाशित हो चुकी है.साथ लगा चित्र http://www.pahar.org से साभार )

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बहुत दिनों बाद




पहाड़ बहुत दिनों बाद उठा
पेड़ों ने आसमान छूने की होड़ लगाई
और नुकीली पत्तियों पर
जमने लगी उजली-उजली बर्फ़.

पहाड़ बहुत दिनों बाद हंसा
चटख गए कलियों के अधखुले होंठ
सहसा दहक गया रक्तिम बुरांश
और झील के पानी में उठी एक छोटी-सी लहर.

पहाड़ फ़िर गुमसुम हो गया
उसकी नसों में दौड़ने लगीं
धुआं उगलती गाड़ियां
और पीठ पर उचकने लगे नौसिखिए घुड़सवार.

पहाड़ बहुत दिनों बाद रोया
मैं ने बहुत दिनों बाद लिखी
पहाड़ पर एक कविता
पहाड़ ने बहुत दिनों बाद पढ़ी
पहाड़ पर एक कविता
और मेरे मुंह पर थूक दिया.

पहाड़ ने ऐसा क्यों किया
मैं सोचता रहा बहुत दिनों बाद तक।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

'गांधी जी कहां रहते हैं?'

आज २ अक्टूबर है . आज ईद है. आज गांधी जयंती है. आज शास्त्री जयंती है. आज इतवार है. आज नवरात्रि का तीसरा दिन है. आज छुट्टी है. आज सुबह - सुबह बेटे ने प्रश्न किया था कि 'गांधी जी कहां रहते हैं?' थोड़ी देर के लिए तो मैं हतप्रभ रह गया था - 'गांधी जी कहां रहते हैं?' छोटे से बच्चे को तो गांधी जी की जन्मतिथि और देहावसान तिथि बताकर समझा दिया कि आज गांधी जी का हैपी बर्थ डे है. यह तो सुबह की बात थी. अभी आधे से अधिक दिन बीत गया है. टी.वी. पर रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' दिखाई जा रही है. किचन में लंच की तैयारी चल रही है. मैं कंप्यूटर पर कुछ खुटर -पुटर कर रहा हूं. सबकुछ कितना सामान्य , कितना सहज चल रहा है लेकिन पता नहीं क्या कारण है कि स्वयं से अभी तक पूछ रहा हूं कि 'गांधी जी कहां रहते हैं?'

आज से दो बरस पहले गाधी जयंती के दिन एक छोटा -सा आलेख लिखा था जो बाद में ई पत्रिका 'अभिव्यक्ति' ( http://www.abhivyakti-hindi.org ) के 16 जनवरी 2007 के अंक में 'गाँधीगिरी के आश्चर्यलोक में' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. आज २ अक्टूबर गांधी के अवसर पर पर प्रस्तुत है उसी आलेख का किंचित संशोधित रूप -

गाँधीगिरी के आश्चर्यलोक में


अभी हाल ही में हिन्दी भाषा को एक नया शब्द मिला है- गाँधीगिरी। यह अलग बात है कि भाषा के जानकार और जिज्ञासु इस शब्द के निर्माण और निहितार्थ पर लंबी बहस कर सकते हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस एक अकेले शब्द ने आज के समय और समाज में गाँधीवाद की प्रासंगिकता और प्रयोग पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। यह सभी को मालूम है कि इस बहस का कारण एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म 'लगे रहो मुन्ना भाई' और उसके कथ्य के साथ निरंतर हो रहे प्रयोगों की नई- नई कड़ियाँ हैं। इधर पत्र-पत्रिकाओं में इस फ़िल्म की जो समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं उनमें इसकी रेटिंग काफ़ी ऊँची है। बाक्स ऑफ़िस का ग्राफ़ भी इसे रोज़ाना ऊपर दर्शा रहा है। मीडिया में इसकी बूम है और आम जनता में धूम। दूसरी ओर गाँधीवादियों की नज़र में यह सब कुछ एक मज़ाक़, मनोरंजन और मसाला मात्र है। फिर भी यह सवाल ज़रूरी और जायज़ है कि आज गाँधीगिरी की ज़रूरत है तो आख़िर क्यों?

हर वर्ष 02 अक्तूबर के हम सब लगभग रस्मी तौर बापू को याद करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन में उनके योगदान को याद करने के साथ उनके दिखाए रास्ते पर चलने का संकल्प दोहराने के साथ बाकी बचे दिन को अवकाश और आनंद में गुज़ार देते हैं।

दो अक्तूबर है गाँधी
एक दिन स्कूल-दफ्तर से छुट्टी है गाँधी
फ़ुरसत में
परिवार के साथ
गरमागरम पकौड़े खाना है गाँधी
ऑस्कर जीतने वाला बेन किंग्सले है गाँधी
(अशोक पांडे :' देखता हूँ सपने', )

रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित और बेन किंग्सले द्वारा अभिनीत फिल्म 'गाँधी' ने अपने समय में काफ़ी कोलाहल मचाया था और रिकार्ड ऑस्कर अवार्ड भी जीता था किंतु यदि हम याद करें तो फिल्म 'गाँधी' को लेकर भारत में भक्ति भाव ही ज़्यादा प्रकट हुआ था। उस फ़िल्म ने हमारे समय और समाज में कोई ख़ास उथल-पुथल नहीं मचाई थी। उस समय हम भारतीय लोग अपने महात्मा के महत्व का महिमामंडन सिनेमा के परदे पर देखकर मुग्ध और मुदित थे। फिल्म 'गाँधी' को देखकर तब के भारतीय भावुक होते थे और 'साबरमती के संत तू ने कर दिया कमाल' की कथा के क़ायल होने तक ही सीमित थे। आज का समय भावुक होने का समय नहीं है। यह भय, भाग-दौड़ और भंडार भरने का समय है।

लुभावने विज्ञापन हैं और सूक्ष्म प्रविधियाँ
पहले विज्ञान को बदला और अब बदला जा रहा है कला को
संवेदना नष्ट करने के माध्यम में
कि मनुष्य को बदला जा सके औजार में।
सबसे अवांछित हैं वे लोग
जो बात-बात में हो जाते हैं भावुक।
(कुमार अंबुज : 'क्रूरता', )

ऑस्कर पुरस्कार के लिए भारत की प्रविष्टि की दौड़ में 'लगे रहो मुन्ना भाई' शामिल थी किंतु अंतत: 'रंग दे बसंती' भेजी गई। 'लगे रहो मुन्ना भाई' भी स्वतंत्र प्रविष्टि के रूप में भेजे जाने की की खबर आई थी। कथ्य, शिल्प और कुल मिलाकर कलात्मक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से 'रंग दे बसंती' एक बेहतर और बेजोड़ फ़िल्म है। आज की युवा पीढ़ी के भटकाव और भविष्य को यह बेहद बारीकी और बेबाक तरीके से बयान करने के साथ ही सिनेमा की कला का पूरा निर्वाह भी करती है जबकि 'लगे रहो मुन्ना भाई' में एक खिलंदड़ापन है। कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर यहाँ सब कुछ बिंदास है। एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म में जो कुछ दिखाया जाता है वह मौजूद है, बावजूद इसके 'लगे रहो मुन्ना भाई' की मास अपील का मामला इतना मामूली नहीं है। यह एक अयथार्थवादी फ़िल्म होते हुए भी यथार्थ को इतने सशक्त तरीके से रखती है कि बॉलीवुड के बिज़नेस गुरुओं की कयासगिरी का कचूमर निकल जाता है। वे इस बात पर दोबारा सोचने को मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं कि यहाँ सिर्फ़ शाहरूख और सेक्स बिकता है! दोनों ही फ़िल्मों में केवल यही एक समानता नहीं है कि इनमें न शाहरूख है न सेक्स बल्कि औज़ार के रूप में मीडिया का इस्तेमाल दोनों ही फ़िल्मों की एक उल्लेखनीय समानता है। यह मीडिया की शक्ति का नहीं बल्कि उसकी अनिवार्यता का उदाहरण है। साथ यह भी सच है कि दोनों ही फ़िल्मों की अधिकाधिक चर्चा का कारण मीडिया के मुख्य समाचारों में बने रहना भी है। दोनों ही फ़िल्में फ़िल्म सें इतर वजहों से चर्चित हो रही हैं। कम से कम 'लगे रहो मुन्ना भाई' के बारे में तो यह साफ़ दिखाई दे रहा है।

यह सच है कि 'लगे रहो मुन्नाभाई' एक सफल आम बंबइया हिंदी फ़िल्म है लेकिन इसकी ख़ास बात यह है कि यह गाँधीवाद के साथ एक नए प्रयोग का ऐसा काल्पनिक प्रस्तुतीकरण है जो यथार्थ में घटित हो रहा है। टेलीविज़न और अख़बारों में रोज़ाना इस फ़िल्म से प्रभावित और प्रेरित होकर किए जा रहे प्रयोगों के समाचारों की एक श्रृंखला-सी चल पड़ी है। छोटे बड़े-मँझोले सभी तरह के शहरों से न्यूज़ और ब्रेकिंग न्यूज़ की झड़ी-सी लग गई दीख रही है। लोगबाग अपने विरोधियों और सरकारी तंत्र के प्रति ग़ुस्से का इज़हार फूल देकर कर रहे हैं। सुना है कि कुछ जगहों पर गुलाब के फूलों की बिक्री बढ़ गई है। साथ ही यह भी ख़बर है कि गाँधी जी की आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग की बिक्री में भी इज़ाफ़ा हुआ है। आज जबकि पढ़ने की संस्कृति का क्षरण हो रहा है ऐसे में यह एक सुखद आश्चर्य नहीं तो और क्या है! इस बीच गाँधीगिरी को लेकर इतने आलेख इत्यादि छपे हैं कि कई किताबें तैयार हो सकती हैं, शायद हो भी गई हों। इंटरनेट पर कुछ जालघर और चिट्ठे भी चल रहे हैं। कुल मिलाकर गाँधीगिरी की हवा है लेकिन सवाल यह है कि इस हवा में कितनी हवा है और इसमें नया क्या है?

खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली-सा हिलाती।

मुझ से बाहर
मुझ से अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार।
(अरुण कमल: 'उर्वर प्रदेश', )

मीडिया मुन्ना भाई के बहाने गाँधीवाद के नए अवतार या रूप के आगमन की बात कर रहा है। गाँधीवादी विचारकों के लिए यह एक मज़ाक़ और मनोरंजन जगत का खेल भर लग रहा है जो कुछ दिनों बाद तिरोहित हो जाएगा। कुछ व्यक्तियों और संगठनों के लिए यह प्रचार पाने तथा समाचारों में बने रहने का शगल भी हो सकता है। फ़िल्मी दुनिया के लिए यह नए विषयों के नए द्वार खोलने का एक सुनहरा अवसर भी हो सकता है। अकादमिक जगत के लिए यह बहस-मुबाहसे का एक नया मौका भी है और मीडिया के लिए तो काम और कमाई दोनों ही है। सच पूछिए तो गाँधीगिरी ने सबको कुछ न कुछ दिया है और सब उसे अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं।

( ऊपर लगा चित्र इसी साल दिल्ली में संपन्न विश्व पुस्तक मेले में खीचा गया था.)

रविवार, 28 सितंबर 2008

लता जी : शोला सा लपक जाए है आवाज तो देखो

आज अपनी दीदी लता मंगेशकर का जन्मदिन है.
बधाई !
संगीत का यह आठवां सुर आज अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है.
यह स्वर सरिता ऐसे ही बहती रहेगी-अविराम,अविरल।अनवरत...अनंत तक....

आइये सुनते है उनके गाए दो गीत जो मुझे बहुत भाते हैं -

१- काहें बंसुरिया बजवले...(फ़िल्म : हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो)




२-अंदाज मेरा मस्ताना...(फ़िल्म : दिल अपना और प्रीत पराई)

शनिवार, 27 सितंबर 2008

पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....


आज सुबह पता नहीं कैसे इस गाने की याद आ गई. शायद रात में कोई सपना देखा होगा. पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के गीतों को सुनते- सुनते कब गदहपचीसी पार हो गई और दुनियादारी से साबका-सामना हुआ पता ही नहीं चला-यह कहना झूठ बोलना होगा-बिल्कुल सफ़ेद झूठ. सबकुछ याद है -एक सिरे से दूसरे सिरे तक. यह याद है अपनी स्कूली पढ़ाई के दिनों तक गांव में न तो सड़क थी और बिजली.हां यह जरूर था कि अपने 'दुआर' पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय था जिसका नाम 'आदर्श पुस्तकालय' था जिसकी काठ की आलमारियों में खूब सारी किताबें थी, एक रैक पुरानी पत्रिकाओं का था तथा बनारस से निकलने वाला अखबार 'आज' नियमित आया करता था.वह अपना बचपन,अपनी किशोरावस्था थी जहां किताबें ही नहीं कोई भी कागज 'विद्या माई' था और आपस में हमउम्र लड़के कसम खाने की नौबत आने पर अक्सर 'गऊ कीरे' आदि-इत्यादि कसमें खाने के स्थान पर 'बिदिया माई कीरे' यानि विद्या माता की ही कसम खाते थे. न रही हो अपने बचपन के गांव में बिजली की रोशनी और लालटेन-ढ़िबरी की मलगजी रोशनी ही नसीब में रही हो परंतु यह कहने में फ़ख्र होता है कि अपनी आसपास किताबों की दुनिया थी जहां छापाखाने से छपे अक्षर सीधे दिल-दिमाग पर छपते थे अभ्यास पुस्तिका के पन्नों पर नहीं. लेकिन मैं यह सब क्यों पता रहा हूं ? अतीत का उत्खनन करके आखिर क्या कहना चाह रहा हूं ? मैं तो शारदा सिन्हा जी के गाने की बात कर रहा था.

शारदा जी के गीत जब पहली बार सुने थे तब लगा था कि यह तो अपना खलिस-खांटी उच्चारण है,खास अपनी मिट्टी का सोंधापन.भोजपुरी फ़िल्मों के गीतों में भी यह तत्व कम महसूस होता था.उस समय बिरहा के दंगल और लवंडा नाच नुमा गाने भी आसपास बजते थे लेकिन उन्हें सुनना बिगड़ने और आवारा होने का अलिखित प्रमाणपत्र माना जाता था. इसी दौर में शारदा जी ने अपने स्वर से सम्मोहित किया और हिया को सुखद बयार मिली.संगीत के पारखी लोगों के लिए मेरे ये उद्गार बेहद बचकाने व गलदश्रु भावुकता वाले लग सकते हैं किन्तु मैं तो अपने उन दिनों की बाद कर रहा हूं जब भावुकता ही पूंजी थी. आज भोजपुरी संगीत जो गति और गत्त है उस पर फिर कभी..

शारदा जी को आजकल सुनते हुए जी कुछ उदास हो जाता है.हालांकि उनके अधिकतर गीत खुशी और रागात्मकता के है फ़िर भी इस चंचल- पागल मन के हिरणशावक का क्या कीजे? अगर मुझे आजकल शारदा जी के गीतों को सुनते हुए उफ़नाई कोसी और उसके जल की विकरालता बाढ़ के रूप में दीखने लगती है तो मैं क्या करूं ? और हां, यह मैं पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि ऐसा सिर्फ़ सपने में ही नहीं होता...

चलिए,छोड़िए भी अगर आप इस एकालाप को पढ़कर यहां तक पहुंच ही गये हैं तो और आपके कीमती वक्त में से कुछ चुरा लिया गया है तो इस नाचीज को क्षमा करते हुए सुन लेते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के स्वर मे यह गीत- पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....



पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....

आज सुबह पता नहीं कैसे इस गाने की याद आ गई. शायद रात में कोई सपना देखा होगा. पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के गीतों को सुनते- सुनते कब गदहपचीसी पार हो गई और दुनियादारी से साबका-सामना हुआ पता ही नहीं चला-यह कहना झूठ बोलना होगा-बिल्कुल सफ़ेद झूठ. सबकुछ याद है -एक सिरे से दूसरे सिरे तक. यह याद है अपनी स्कूली पढ़ाई के दिनों तक गांव में न तो सड़क थी और बिजली.हां यह जरूर था कि अपने 'दुआर' पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय था जिसका नाम 'आदर्श पुस्तकालय' था जिसकी काठ की आलमारियों में खूब सारी किताबें थी, एक रैक पुरानी पत्रिकाओं का था तथा बनारस से निकलने वाला अखबार 'आज' नियमित आया करता था.वह अपना बचपन,अपनी किशोरावस्था थी जहां किताबें ही नहीं कोई भी कागज 'विद्या माई' था और आपस में हमउम्र लड़के कसम खाने की नौबत आने पर अक्सर 'गऊ कीरे' आदि-इत्यादि कसमें खाने के स्थान पर 'बिदिया माई कीरे' यानि विद्या माता की ही कसम खाते थे. न रही हो अपने बचपन के गांव में बिजली की रोशनी और लालटेन-ढ़िबरी की मलगजी रोशनी ही नसीब में रही हो परंतु यह कहने में फ़ख्र होता है कि अपनी आसपास किताबों की दुनिया थी जहां छापाखाने से छपे अक्षर सीधे दिल-दिमाग पर छपते थे अभ्यास पुस्तिका के पन्नों पर नहीं. लेकिन मैं यह सब क्यों पता रहा हूं ? अतीत का उत्खनन करके आखिर क्या कहना चाह रहा हूं ? मैं तो शारदा सिन्हा जी के गाने की बात कर रहा था.

शारदा जी के गीत जब पहली बार सुने थे तब लगा था कि यह तो अपना खलिस-खांटी उच्चारण है,खास अपनी मिट्टी का सोंधापन.भोजपुरी फ़िल्मों के गीतों में भी यह तत्व कम महसूस होता था.उस समय बिरहा के दंगल और लवंडा नाच नुमा गाने भी आसपास बजते थे लेकिन उन्हें सुनना बिगड़ने और आवारा होने का अलिखित प्रमाणपत्र माना जाता था. इसी दौर में शारदा जी ने अपने स्वर से सम्मोहित किया और हिया को सुखद बयार मिली.संगीत के पारखी लोगों के लिए मेरे ये उद्गार बेहद बचकाने व गलदश्रु भावुकता वाले लग सकते हैं किन्तु मैं तो अपने उन दिनों की बाद कर रहा हूं जब भावुकता ही पूंजी थी. आज भोजपुरी संगीत जो गति और गत्त है उस पर फिर कभी..

शारदा जी को आजकल सुनते हुए जी कुछ उदास हो जाता है.हालांकि उनके अधिकतर गीत खुशी और रागात्मकता के है फ़िर भी इस चंचल- पागल मन के हिरणशावक का क्या कीजे? अगर मुझे आजकल शारदा जी के गीतों को सुनते हुए उफ़नाई कोसी और उसके जल की विकरालता बाढ़ के रूप में दीखने लगती है तो मैं क्या करूं ? और हां, यह मैं पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि ऐसा सिर्फ़ सपने में ही नहीं होता...

चलिए,छोड़िए भी अगर आप इस एकालाप को पढ़कर यहां तक पहुंच ही गये हैं तो और आपके कीमती वक्त में से कुछ चुरा लिया गया है तो इस नाचीज को क्षमा करते हुए सुन लेते हैं पद्मश्री शारदा सिन्हा जी के स्वर मे यह गीत- पटना से बैदा बोलाइ द हो नजरा गइनीं गुइयां....

।com/common/flash/flvplayer/flvplayer_basic.swf?file=http://sidhshail.lifelogger.com/media/audio0/849985_cvgwykwkqs_conv.flv&autoStart=false">




शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

जाओ लड़की ! यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी



सबसे पहले तो इस बात के लिए माफ़ी कि आज सुबह वडाली बंधु के गायन की एक पोस्ट लगाई किन्तु कुछ तकनीकी करणों से उसे तुरंत हटा देना पड़ा. अभी जो कविता प्रस्तुत कर रहा हूं वह काफ़ी पुरानी है तथा अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के २८ जुलाई से ०३ अगस्त १९९१ के अंक में प्रकाशित हुई थी. उस समय (१९८९ - ९० में) अपनी पी-एच.डी. की थीसिस के लिए सामग्री जुटाने सिलसिले में दिल्ली के पुस्तकालयों के खूब चक्कर काटे थे.हर बार यह सोचकर यह जाता था कि महीना भर रहूंगा, पढ़ाई-लिखाई के साथ मौज भी होगी परंतु हर बार हप्ता बीतते-बीतते तन-मन ऐसा उदास, उचाट हो जाता कि 'जैसे उड़ि जहाज को पंछी..' और वापस नैनीताल - पहाड़ों की गोद में जहां सब कुछ छोटा, आसान और सरल होता था. इस छोटेपन में एक तरलता थी जो दिल्ली या उस जैसे अन्य बड़े शहरों में जाकर सूख -सी जाया करती थी. जैसा कि मैंने पहले ही कहा - यह कविता बहुत पुरानी है.इसे दिल्ली में ही वसंत कांटीनेंटल होटल सामने बनी एक सरकारी कालोनी के तिनतल्ले की बालकनी में एक दोस्त के आधी से अधिक गुजर चुकी रात के एकांत में 'अपने पहाड़' को याद करते हुए लिखा था. नैनीताल लौटकर अपने गुरु प्रोफ़ेसर बटरोही जी से इस पर इस्लाह ली और चुपके से सा.हि. के संपादक को भेज दी और वह कुछ महीनों बाद प्रकाशित भी हो गई. ऊपर लगी तस्वीर उसी प्रकाशित कविता की है.
अब जब सब कुछ बदल गया है. कवितायें लिखना अब भी जारी है परंतु छपने-छपाने के सिलसिले में पहले की तरह आलस्य निरंतर बना हुआ है. अब न तो वह दिल्ली है ,न वे पहाड़ हैं न ही अब वह मैं ही हूं ( अब न वो मैं हूं, न तू है न वो माजी है फ़राज) दिल्ली तो कभी अपनी थी ही नही .पहाड़ जरूर अपने थे , आज भी अपने ही हैं -यह अलग बात है कि 'वक्त ने कुछ हंसी सितम ' कर कर दिया है फ़िर भी 'उठ ही जाती है नजर तेरी तरफ़ क्या कीजे'. पता नहीं कविता के साथ इस टिप्पणी की जरूरत थी अथवा नही फिर भी..... तो लीजिए प्रस्तुत है कविता- दिल्ली में खोई हुई लड़की

दिल्ली में खोई हुई लड़की

लड़की शायद खो गई है
'शायद' इसलिए कि
उसे अब भी विश्वास है अपने न खोने का
दिल्ली की असमाप्त सड़कों पर अटकती हुई
वह बुदबुदाती है - 'खोया तो कोई और है !'

आई.एस.बी.टी. पर उतरते ही
उसने कंडक्टर से पूछा था -
'दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
सुना है वह किसी अखबार में काम करता है
तीन साल से चिठ्ठी नहीं लिखी
घर नहीं आया
रात मेरे सो जाने पर
ईजा डाड़ मारकर रोती है
और मेरी नींद खुलते ही चुप हो जाती है
दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
मैं उसे वापस ले जाने आई हूं.'
कंडक्टर हीरा बल्लभ करगेती
ध्यान से देखता है उस लड़की को
जो अभी-अभी 'अल्मोड़ा - दिल्ली' से उतरी है
'बैणी' वह कहता है - 'बहुत बड़ी है दिल्ली
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है
जो तुम्हारा ददा कहीं सिगरेट के सुट्टे मरता हुआ मिल जाय .'
लड़की की आंखों में छलक आई
आत्मीयता, अपनत्व और याचना से डर जाता है करगेती
और बताने लगता है -
'दरियागंज, बहादुरशाह जफ़र मार्ग, कनाट प्लेस, शकरपुर...
वहीं से निकलते हैं सारे अखबार
देखो शायद कहीं मिल जाय तुम्हारा ददा
लेकिन तुम लौट ही जाओ तो ठीक ठैरा
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है .'
लड़की अखबार के दफ़्तरों में दौड़ती है
कहीं नहीं मिलता है उसका भाई, उसका धीरू, उसका धीरज बिष्ट
लेकिन हर जगह - हर तीसरा आदमी
उसे धीरू जैसा ही लगता है
अपने - अपने गांवों से छिटककर
अखबार में उप संपादकी, प्रूफ़रीडरीडिंग या रिपोर्टिंग करता हुआ
लड़की सोचती है - क्यों आते हैं लोग दिल्ली
क्यों नही जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ ?
'जाती तो है दिल्ली पहाड़ की तरफ
जब 'सीजन' आता है
तब लग्जरी बसों , कारों, टैक्सियों में पसर कर
दिल्ली जरूर जाती है नैनीताल - मसूरी - रानीखेत - कौसानी
और वहां की हवा खाने के साथ -साथ
तुम्हें भी खा जाना चाहती है - काफल और स्ट्राबेरी की तरह
देखी होगी तुमने
कैमरा झुलाती, बीयर गटकती, घोड़े की पीठ पर उचकती हुई दिल्ली .'

'दैनिक प्रभात' के जोशी जी
लड़की को बताते हैं दिल्ली का इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र
समझाते हैं कि लौट जा
तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली
हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली
फिर भी यहां रहने को अभिशप्त हैं हम
हो सकता है धीरू भी यही अभिशाप...
आगे सुन नहीं पाती है लड़की
चल देती है मंडी हाउस की तरफ भगवानदास रोड पर
सुना है वहीं पर मिलते हैं नाटक करने वाले
धीरू भी तो करता था नाटक में पार्ट
कितने प्यार से दिखाता था कालेज की एलबम -
ओथेलो, बीवियों का मदरसा, तुगलक, पगला घोड़ा, कसाईबाड़ा...

प्रगति मैदान के बस स्टैंड पर
समोसे खाती हुई लड़की
आते - जाते - खड़े लोगों की बातें सुनती है
लेकिन समझ नहीं पाती
लोगों को देखती है लेकिन पहचान नहीं पाती
लड़की लड़कियों को गौर से देखती है -
पीछे से कती हुई स्कर्ट में झांकती टांगें
आजाद हिलती हुई छातियां
बाहर निकल पड़ने को आतुर नितम्ब
शर्म से डूब जान चाहती है लड़की
लेकिन धीरू...ददा, कहां हो तुम !

लड़की सुबह से शाम तक
हर जगह चक्कर काटती है
चिराग दिल्ली से लेकर चांदनी चौक तक
पंजाबी बाग से ओखला - जामिया तक
हर जगह मिल जाते है धीरू जैसे लोग
लेकिन धीरू नहीं मिलता
हर जगह मिल जाते हैं नए लोग
कुछ अच्छे, कुछ आत्मीय
और कुछ सट्ट से चप्पल मार देने लायक
लड़की थक - हारकर पर्स में बचे हुए पैसे गिनती है -
बासठ रुपए साठ पैसे
और चुपचाप आई.एस.बी.टी. आ कर
भवाली डिपो की बस में बैठ जाती है
खिड़की से सिर टिकाते ही
एक बूंद आंसू टपकता है
और बस की दीवार पर एक लकीर बन जाती है
कौन पोंछेगा इस लकीर को -
कोई और लड़की ?
या वर्कशाप का क्लीनर या कि धीरू ??

जाओ लड़की !
यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी
उस पहाड़ पर
जो पर्यटन विभाग के ब्रोशर में में छपे
रंग - बिरंगे, नाचते - गाते पहाड़ से बिल्कुल अलग है
जहां से हर साल, हर रोज
तुम्हारे धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू
दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं
लेकिन तुम्हारी तरह
उन्हें खोजने के लिए कोई नहीं आता कभी
कभी - कभार आती हैं तो गलत पते वाली चिठ्ठियां
आते हैं तो पंत, पांडे,जोशी, बिष्ट, मेहरा
जैसे लोगों के हाथ संदेश
लेकिन उन धीरुओं तक
नहीं पहुंच पाती हैं चिठ्ठियां - नहीं पहुंच पाते हैं संदेश
तुम क्यों आई हो ?
क्यों कर रही हो तुम सबसे अलग तरह की बात ??

सुनो दिल्ली
मैं आभार मानता हूं तुम्हारा
तुमने लड़की को ऐसे लोगों से मिलवाया
जिन्हें लोगों में गिनने हुए शर्म नहीं आती
अच्छा किया कि ऐसे लोगों से नहीं मिलवाया
जो उसे या तो मशीन बना देते या फिर लाश
मेरे लड़की अब भी तुम्हारे कब्जे में है
देखो ! उसे सुरक्षित यमुना पर करा दो
उसकी बस धीरे- धीरे तुम्हारी सड़कों पर रेंग रही है
बस की दीवार पर गिरा
उसकी आंख का एक अकेला आंसू
अभी भी गीला है
पहाड़ की परिचित हवा उसे सोख लेने को व्याकुल है ।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय...


कवि के रूप में सबसे पहले कबीर को जाना. जब स्कूल जाना शुरू किया तो पहली पढ़ाई-लिखाई बस यही थी कि काठ की तख्ती पर खड़िया घोलकर गोल-गोल कुछ लिखो. यह एक ऐसी लिपि थी जिसे या तो हम समझते थे या फ़िर हमारे अध्यापक. इसी गोल-गोल लिपि ने आगे चलकर यह सिखाया कि यह धरती,यह चांद,यह सूरज सब गोल हैं,चूल्हे पर पकने वाली रोटी की तरह. इसी गोल-गोल लिपि ने यह भी सिखाया कि जितना बस चले गोल-मोल न करना, चलना तो सीधी राह पर; भले ही पनघट की डगर बड़ी कठिन व रपटीली क्यों न हो- गोल बनकर बे-पेंदी का लोटा न हो जाना. शुरूआती कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय की ऊंची पढ़ाई तक कबीर का साथ हरदम रहा .कोर्स की किताबें कहती रहीं कि अब तक जिसे 'दोहा' कहते रहे वह 'साखी' है, कबीर के बारे में फ़लां विद्वान ने यह कहा है -वह कहा है, वह कवि पहले हैं कि समाज सुधारक? उनकी भाषा पंचमेल खिचड़ी है कि भोजपुरी? कभी -कभार तो यह भी लगने लगा था कि कबीर ने जितनी सीधी,सच्ची,सरल भाषा-शैली में कविता कही है उतनी ही कठिन शब्दावली और क्लिष्ट संदर्भ-प्रसंगों के साथ उनकी कविताओं की व्याख्या का व्यामोह रचकर आखिरकार 'हम हिन्दी वाले' चाहते क्या है? खैर,जब-जब अपने इर्दगिर्द कुछ टूटता-दरकता रहा,लोभ,लिप्सा और लालच लुब्ध करने की कवायद करते रहे तब-तब कबीर की लुकाठी ही बरजती रही -सावधान करती रही और तमाम पोथी-पतरा,पाठ-कुपाठ से परे 'ढ़ाई आखर' को सर्वोपरि मानने की सीख देती रही.

कबीर को संगीतकारों ने खूब गाया है और आगे भी गाते रहेंगे. कवियों,कलाकारों,गायको का 'बीजक' के रास्ते से बार -बार गुजरना उस बीजमंत्र की तलाश ही तो है जो 'जल में कुंभ,कुंभ में जल' है. जैसे साफ़ पानी में अपना चेहरा साफ़ दीखता है,वैसे ही कबीर की लगभग समूची कविता मुझ पाठक और कविता प्रेमी को साफ़ दीखती है -अपनी उस अर्थछवि के साथ जो इस क्रूर,कठिन,कलुषित काल में जायज है,जरूरी है और जिन्दगी के गीत गाने के पक्ष में खड़ी है. जब कबीर के शब्दों को आबिदा परवीन का स्वर मिल जाय तो क्या कहने ! प्रस्तुत है- 'साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय...




( चित्र : www.punjabilok.com से साभार)

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

नुस्खए- इश्क

वो अजब घड़ी थी कि जिस घड़ी
लिया दर्स नुस्खए- इश्क का,
कि किताब अक्ल की ताक पर

ज्यूं धरी थी वूं ही धरी रही .

( सिराज औरंगाबादी )

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

दीवानगी और दर्शन की चाहत....गायकी के दो अंदाज


( इस आवाज और इसके जादू के बारे में इतना कुछ कहा - सुना - लिखा गया है और अगले वक्तों में इतना कुछ कहा - सुना - लिखा जाएगा कि मेरे लिखे की क्या औकात.मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि सुबह-सुबह जब यह अद्भुत स्वर मेरे भीतर उतर जाता है तब मुझे पूरे दिन भर रोजमर्रा के रंजो-गम से थोड़ी ही सही निजात -सी मिल जाती है,महसूस होता है कि संवेदनाओं की तितलियों के पर अभी पूरी तरह नुचे नहीं हैं और अंतस की जो भी टूटन - फ़ूटन तथा सीवन की उधड़न - उखड़न है उसकी मरम्मत हो रही है ,रफ़ूगरी का करिश्मा अब भी कामयाब हो रहा है.ऐसा अजगुत बहुत सारे लोगों के साथ होता रहा है,होता रहेगा , होना भी चाहिए. अब यह दीगर बात है कि कुछ लोगों की नजर में यह पलायन व पिछड़ापन माना जाता हो, व्यावहारिकता के पैमाने से बाहर और परे. परन्तु ,क्या करें साहब, 'सब कुछ सीखा हमने ना सीखी....' अब मैं अपनी बकबक बन्द करूं. मित्रों ! प्रस्तुत हैं आबिदा परवीन की गायकी के दो अंदाज.आप सुनें और अपने तरीके से आनंदित होवें )


जब से तूने मुझे दीवाना बना रक्खा है.
संग हर शख्स ने हाथों में उठा रक्खा है.

उसके दिल पर भी कड़ी इश्क में गुजरी होगी.
नाम जिसने भी मोहब्बत का सजा रक्खा है.

पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्यों हो,
मैंने तुमको भी कभी अपना खुदा रक्खा है.

अब मेरी दीद की दुनिया भी तमाशाई है,
तूने क्या मुझको मोहब्बत में बना रक्खा है.

पी जा अय्याम की तल्खी को भी हंस के 'नासिर',
गम को सहने में भी कुदरत ने मजा रक्खा है.
(हकीम नासिर)

१-जब से तूने मुझे.....




२- घूंघट ओले ना लुक सजणां.......



(ऊपर लगा चित्र मेरी बेटी हिमानी ने वाटर कलर से बनाया है .हिमानी जी आठवीं कक्षा की विद्यार्थी हैं,चित्रकारी व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं,कुछ कवितायें भी लिखी हैं और हां, उन्हें आबिदा आंटी के गाने अच्छे लगते हैं)