रविवार, 30 अगस्त 2009

शिमला प्रसंग : कौन सुखाता है धूप होते ही अपनी छतरी


( २००५ के अपने शिमला प्रवास को याद करते हुए कुछ कवितायें )

१. / सामना

न्यू गेस्ट हाउस की
खुली खिड़की से झाँकते ही रहते हो
भाई देवदार.
भूलने में ही है भलाई
पर
कहो तो
कैसे भूल पाउँगा
मैं तुम्हारा प्यार .

२. / खिलौना गाड़ी

हरियाली के
ऊँचे - नीचे मैदान में
पहाड़ खेल रहे हैं खेल
भूधर की खुरदरी हथेली पर
लट्टू - सी घूमती है रेल.

३. / सुरंग

जाना है उस पार
ऐसा ही कुछ कहता है अंधकार
भीतर सिहरते हैं
हर्ष और भय साथ - साथ
छोटे - छोटे एक जोड़ी हाथ
पहाड़ो सीना देते हैं चीर
बुदबुदाती है हवा बार - बार.

४. / रिज पर

सुघड़ समतल संसार का
एक छोटा - सा आभास
नीचे दीखती हैं मकानों की छतें
सर्दियों में जिन पर
धूप सेंकती होगी बर्फ
ऊपर आसमान से होड़ करते पहाड़
एक सिरे पर खड़ा हैं
गाँधी बाबा का सादा बुत
यह जो दमक रही है चमकदार दुनिया
हमें बनाती हुई कूड़ा - कबाड़.

५. / समर हिल

रात में कवितायें सुनते हैं पेड़
स्टेशन उतारता है दिन भर की थकान
सड़क याद दिलाती है
बालूगंज के 'कृष्णा' की जलेबियों का स्वाद
लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी तल्ले से
आँख खोल देखो तो
घाटी में किताबों की तरह खुलते हैं बादल
कितना छोटा है मुलाकातों का सिलसिला
कल जब चला जाउँगा मैदानों में
साथी होंगे धूल - धक्कड़ - गुबार
तब नींद में थपकियाँ देंगे पहाड़
याद आएगी भूलती - सी याद.

६. / बारिश

बारिश में कौन भीगता है
कौन होता है आर्द्र
कौन निचोड़ता है अपने गीले वसन
कौन सुखाता है धूप होते ही अपनी छतरी
कई - कई सवालों के साथ लौटूँगा अपने बियाबान में
क्या पता यहीं कहीं किसी पेड़ तले
ठिठका होगा मन।

( शिमला की कुछ यादें यहाँ हैं । मन करे / फुरसत हो तो झाँक लें )

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

एक आनलाईन कबाड़ कविता

भीतर भरा पड़ा है कचरा कबाड़
ऊपर -ऊपर सब कुछ  शानदार.
खाट के नीचे रद्दी   का       अंबार
किताबें पत्रिकायें  पुराने अखबार.

बाहर जाओ तो  झोले झक्कड़ में
आती हैं पढ़ने सुनने लायक चीजें
दुनिया बटोर रही है माल -माया
पर ये बाबूजी तो इनपे ही रीझें.

चलो यह भी एक रंग है दुनिया है
यह भी है एक  निज का  ससार .
खाट के नीचे रद्दी का अंबार
किताबें पत्रिकायें पुराने अखबार.

अभी सुबह के  बजे हैं साढ़े छह
रात कबकी कर चुकी है बाय - बाय.
कम्पूटर कर रहा हूँ खिटर - पिटर
किचन में बन रही है फीकी चाय .

जीवन में बन्द नहीं हुए है छन्द के द्वार
इसीलिए शुरु किया  है कविता का कारोबार.
अब घाटा होय सो होय कोई फिकर नहीं
कबाड़ काम में ऐसा होता ही है यार !

भीतर भरा पड़ा है कचरा कबाड़
ऊपर -ऊपर सब कुछ शानदार.
खाट के नीचे रद्दी का अंबार
किताबें पत्रिकायें पुराने अखबार.

रविवार, 23 अगस्त 2009

एक बरस की 'पाखी' को बधाई और कविता 'उत्सर्ग एक्सप्रेस'


२३ अगस्त २००९ को इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी , नोएडा द्वारा प्रकाशित हिन्दी की महत्वपूर्ण मासिक पत्रिका 'पाखी' के एक बरस पूरे होने पर दिल्ली में 'पाखी महोत्सव' का आयोजन था जिसके तहत 'पाखी' के संजीव अंक का लोकार्पण , शब्द साधक सम्मान समारोह, वेबसाइट www.pakhi.in का लोकार्पण और 'साहित्य और पत्रकारिता में गाँव' शीर्षक संगोष्ठी का आयोजन किया गया , ऐसी खबर है. निमंत्रण था किन्तु अपनी व्यस्तता और 'दिल्ली दूर है' की कहन को यथार्थ में अनुभव करते हुए मैं इस आयोजन - उत्सव का हिस्सा बन सका. सो ,आज सोचा कि दूर से ही संपादक अपूर्व जोशी ,कार्यकारी संपादक प्रेम भारद्वाज और पूरी 'पाखी' टीम को बधाई दे दी जाय. बधाई हो बधाई !

परसों ही डाक से 'पाखी' का अगस्त अंक मिला है . अभी पूरा पढ़ नहीं पाया हूँ . संपादकीय 'हंगामा है क्यूँ बरपा' में 'कबाड़खाना' को 'हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े - लिखे जाने वाले ब्लाग' के रूप में उल्लिखित किए जाते देख खुशी हुई है.'कर्मनाशा' की शुरुआत तो बाद में हुई , मैंने अपनी पहली ब्लाग पोस्ट तो 'कबाड़खाना' पर ही लिखी थी. अच्छा लगता है स्वयं को 'कबाड़ी' कहलाना ! अब 'पाखी' नेट पर भी पढ़ी जा सकेगी , यह अच्छी बात है किन्तु शुरुआत में शायद कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण पूरी सामग्री हिन्दी में दीख नहीं रही है. उम्मीद है यह दिक्कत जल्द ही दूर हो जाएगी. बहरहाल, एक बरस पूरे होने पर तथा हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच अपनी महत्वपूर्ण जगह बना लेने पर 'पाखी' की पूरी तीम को बधाई !

प्रस्तुत है 'पाखी' के अगस्त २००९ अंक के आवरण की तस्वीर और इसी अंक में ही प्रकाशित अपनी एक कविता 'उत्सर्ग एक्सप्रेस' इस उम्मीद के साथ कि जो लोग इसे 'पाखी' के छपे हुए पन्नों पर पढ़ पाए होंगे / पढ़ पाने की स्थिति में होंगे वे संभवत: यहाँ पढ़ लेंगे और जरूरी समझेंगे तो अपनी अमूल्य राय भी देगें.

उत्सर्ग एक्सप्रेस / सिद्धेश्वर सिंह


(अपनी पीढ़ी के कवि अग्रज वीरेन डंगवाल से बतियाते हुए)

एक उदास उजाड़ उनींदा टीसन
इसे रेलवे स्टेशन की संज्ञा से विभूषित करना
एक संभ्रांत शब्द के साथ अन्याय होगा
एक जघन्य अपराध उस शब्दकोश के साथ भी
जो विलुप्त प्रजातियों की लुगदी के कायान्तरण पर
उदित हुआ है आश्चर्य की तरह
और शीशेदार आलमारी में लेटा है निश्चेष्ट।

जाड़े पाले के जादू में लिपटी हुई यह रात
बीत जाने को विकल व्याकुल नहीं है अभी
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे अभी-अभी उतरा हूँ
माल असबाब और बाल बच्चों के साथ
प्लेटफार्म पर मनुष्य कम दीखते हैं वानर अधिसंख्य
प़फर्श फाटक और लोहे की ठंडी मजबूत शहतीरों पर
काँपते कठुआये हमारे पूर्वज
एक दूसरे की देह की तपन को तापने में एकाग्र एकजुट।
बाहर अँधेरा है
थोड़ा अलग थोड़ा अधिक गाढ़ा
जैसा कि पाया जाता है आजकल
हम सबके भीतर भुरभुराता हुआ
कुछ रिक्शे
कुछ तिपहिए
इक्का दुक्का गाड़ियाँ जिन्हें मोटरकार कहा जाता था कभी
अब वे अपनी रंगत बनावट से नहीं
ब्रान्ड से जानी जाने लगी हैं
असमंजस में हूँ फिर भी तय करता हूँ-
थोड़ा ठहर लिया जाना चाहिए अभी
भोर होने का इंतजार करते हुए
जैसा कि आम समझदारी का चलन है इन दिनों
अभी कुछ देर और देख लिया जाय वानरों का करतब
उनकी बहुज्ञता और बदमाशी के मिश्रण का कारनामा
किसी किताब में तो मिलने से रहा
उनमें भी नहीं जो वजनी पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं
और फिलवक्त मेरे बैग में विराजमान हैं
गर्म कपड़ों साबुन-तौलिए बिस्कुट नमकीन के पूरक की तरह।

दिन भर भरपूर उजाला
दिन भर पारिवारिक प्रसंग
आशल कुशल संवाद स्वाद
मानो एक बुझते हुए कौड़े की गर्म राख में रमी गर्माहट।

दोपहर में फस्तक मेला
किताबों के कौतुक में इंसानों का रेवड़-
बच्चे किशोर युवा और अधियंख्य बूढ़े
जिनकी वाणी में ही बची है
अरुणाभा की खिसियाहट भरी आँच
स्टालों पर बेशुमार कागज हैं
पर एक भी कोरा नहीं
कंधे छिलते-टकराते हैं
देखता हूँ अगल-बगल
आवारा सज्दे वाले कैफ़ी
दुनिया बदलने को बेचैन राहुल
प्रियप्रवास बाँचते बाबा हरिऔध
अपनी असाध्य वीणा सहेजते सहलाते अज्ञेय
जाने वाले सिपाही से फूलों का पता पूछते मख्दूम
आदि-इत्यादि की श्रेणी से ऊपर-नीचे
साहित्याकाश के और भी दिपदिपाते ग्रह-उपग्रह-नक्षत्रा।

अनुमान करता हूँ
इसी भव्य भीड़-भभ्भड़ और बगल के कमरे में चल रही
कविता की कार्यशाला के बीच
फराकथाओं में देखी गई
किंतु आजकल प्राय: अदृश्य कही जाने वाली आत्मा की तरह
मुस्तैद होंगी चंद जोड़ी खुफिया निगाहें
वांछित नाक-नक्श पहचानने की क़वायद में तत्पर तल्लीन
अपराध-सा करने की लिजलिजाहट से भरकर
खरीदता हूँ दो चार सस्ती किताबें
और एक बड़े मेहराबदार दरवाजे से बाहर निकल आता हूँ
सड़क पर
जहाँ शोर और सन्नाटे रक्तिम आसव रिस रहा है लगातार-
बूँद-बूँद।

कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे आज ही लौटना है आधी रात के करीब
फिर वही टीसन
फिर वही वानर दल
फिर वही प्रतीक्षालय टुटही कुर्सियों वाला
फिर वही अँधेरा
फिर वही सर्द सन्नाटा-खुद से बोलता बतियाता।

कैसे कहूँ कि गया था तमसा के तट पर
वहाँ आदिकवि की कुटिया तो नहीं मिली
पर एक उदास उजाड़ उनींदा स्टेशन जरूर दिखाई दे गया
जहाँ से गुजरती हैं गिनी चुनी सुस्त रफ्रतार रेलगाड़ियाँ
मैं हतभाग्य
अपने ही हाहाकार से हलकान
मिजवाँ जा सका पन्दहा
जोकहरा सरायमीर
सुना है यहाँ की जरखेज जमीन पर
कभी अंकुरित होते थे कवि शायर तमाम
अब भी होते होंगे बेशक-जरूर-अवश्य
पर उनका जिक्र भर छापने लायक
हम ही नहीं बना पाये हैं एक अदद छापाघर
मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब की नेक सलाह
और अपनी तमाम सलाहियत के बावजूद
तनी हुई तोप के मुकाबिल
हम ही निकाल नहीं पाये हैं एक भी अठपेजी अखबार
यह दीगर-दूसरा किस्सा है कि
सब धरती को कागज
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को कलम बना लेने का
मंत्रा देने वाला जुलाहा अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा रेशा।

अँधेरे मुँह गया
अँधेरे मुँह पलट आया
गोया उजाले से मुँह चुराने जैसे मुहावरों का
अर्थ लिखता-वाक्य प्रयोग करता हुआ
गाड़ी अभी लेट है
कितनी पता नहीं
ऊँघता सहायक स्टेशन मास्टर भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है
वानरों के असमाप्य करतब में कट रही है रात
यह पूछो कि कब आएगी 'उत्सर्ग एक्सप्रेस'
पूछ सको तो पूछ लो
इस जगह का नाम
जिसे जिहवाग्र पर लाते हुए इन दिनों चौंक जाता हूँ जागरण के बावजूद
वैसे नींद के भीतर चौंक जाना कौन-सी बड़ी बात है।

गजब है सचमुच गजब
बेटे-बिटिया बड़े शान से इतराए
पूरी कॉलोनी को बताए फिर रहे हैं-
हम लोग एक दिन के लिए गए थे आजमगढ़।




शनिवार, 22 अगस्त 2009

कुत्ता _ बिल्ली डॊट काम@ दिल्ली


१६अगस्तकी दुपहरिया ढलने के क्रम में जब आलस्य और हल्की नींद की खुमारी अपने चरम पर थी तब याद आया कि बहुत दिन हुए बच्चों के लिए कोई कविता नहीं लिखी. ब्लाग और पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कवितायें तथा कवि गोष्ठियों में कविता प्रस्तुतियों की रपटें आदि देखकर बच्चे इस नाचीज को कवि तो मानने लगे हैं लेकिन खुद को यह मलाल जरूर रहता है कि मैं बच्चों के लिए अभी कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ. बिटिया छोटी थी तो उसके साथ खेल - तमाशा करते हुए कुछ कवितायें जरूर लिखी थीं. खैर , १६ अगस्त को दो कवितायें बन गईं जिनमें से एक तो यहाँ प्रस्तुत है और दूसरी को किसी पत्रिका के लिए भेजने का मन बन रहा है.प्रस्तुत कविता में बिल्ली और दिल्ली का तुक मिलाने की बड़ी परेशानी पेश आई. पहले 'सोने की किल्ली' था फिर खयाल आया कि आजकल अपने बच्चे जिस तरह की हिन्दी को बरत रहे हैं उसमें 'किल्ली' जैसे शब्दों की कोई जगह शायद नहीं बची है. अत: 'सोने की सिल्ली' कर दिया गया. अब सिल्ली को समझने में भी परेशानी पेश आए तो क्या किया जा सकता है. बताया जा सकता जैसे बर्फ की सिल्ली होती है वैसी कुछ सोने की सिल्ली होती होगी. अब आख्या - व्याख्या बन्द और कविता चालू. तो, अपने बच्चों हिमानी और अंचल के साथ 'कर्मनाशा' के सभी पाठकों के लिए प्रस्तुत है यह कविता -

कुत्ता _ बिल्ली डॊट काम @ दिल्ली

शेरू जी के बड्डे गिफ्ट में
देना है सोने की सिल्ली.
शापिंग करने दिल्ली जायें
सोच रहे हैं कुत्ता - बिल्ली.

बस से जायें या कि ट्रेन से
या फिर कर लें मोटर कार.
भों - भॊं म्याऊँ - म्याऊँ
छिड़ी हुई है एक तकरार .

बकरी बैठी पूँछ हिलाती
देख रही थी झगड़ा भारी.
बोली- चुप हो जाओ कंजूसो !
क्या खाली है जेब तुम्हारी ?

बस भी छोड़ो ट्रेन भी छोड़ो
छोड़ भी तुम मोटर कार .
एयरोप्लेन का टिकट कटाओ
आसमान में उड़ लो यार.

लेकिन उसमें चुप ही रहना
मत करना तुम भों-भों म्याऊँ.
वर्ना होस्टेस उतार ही देगी
जंगल में या बीच बदायूं.

शान्त हुए अब कुत्ता - बिल्ली
चुप होकर जाना है दिल्ली.
शेरू जी के बड्डे गिफ्ट में
देना है सोने की सिल्ली.

( चित्र गूगल सर्च से साभार)

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा


आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है.किसी समय यह हमारे लिए 'अट्टमी' या 'डोल धरना' हुआ करता था और एक दिन का नहीं पूरे सप्ताह भर का उत्सव हुआ करता था.भादों के महीने में जब बारिश की टिपिर - टिपिर झड़ी लगी होती थी तब यह आनंद का एक साप्ताहिक उत्सव हुआ करता था. पूरे टोले के घर - घर से रंग बिरंगी साड़ियाँ मांगकर तथा अपने गाँव-गिराँव व निकटवर्ती कस्बे में उपलब्ध सामग्री से झुलना सजाकर हम लोग अट्टमी मनाते थे. हर घर से चंदा होता था और आज की रात धनिया की पंजीरी के साथ आटे का चाँड़ा हुआ हलुआ प्रसाद के रूप में वितरित होता था. तब तक गाँव में बिजली नहीं आई थी इसलिए 'गेस' या पेट्रोमैक्स ( पंचलाइट ) के प्रकाश में यह सब संपन्न होता था. परंतु अब , आज के दिन मैं
यह सब क्यों याद कर रहा हूँ ?

नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में अब उस भूगोल से दूर हूँ जहाँ का किस्सा ऊपर बयान किया गया है .अब तो बिजली है ( न हो तो छोटे - मोटे काम के लिए इनवर्टर बाबा की जय !), बिजली से चलने वाले उपकरण हैं, बिजली न हो तो लगता है कि ऊपर वाले का दिया हुआ - साँसों की गति पर चलायमान यह उपकरण भी मिस्त्री - मैकेनिक की माँग कर रहा है, अब कीचड़ - कादों भरी गलियों की जगह अपने आशियाने के सामने खुली पक्की सड़क है, हाट - बाजार में सामान अँटा -भरा पड़ा है , आज के दिन पास वाले मंदिर में खूब सजावट है, दिन भर के फलाहारादि के बाद अभी शाम को किचन में तरह- तरह के 'व्रती' पकवान की तैयारी चल रही है जिनकी सोंधी गंध नथुनों के रास्ते हृदय में प्रविष्ट हो रही है किन्तु मन का मृगछौना वहीं उसी जगह व उसी कालखंड में लौट जाना चाहता है जहाँ धनिये की पंजीरी की गमक और एक बड़े से कड़ाहे में बन रहे चाँड़े हुए आटे के हलुए की सुवास है.पर, ऐसा हो सकता है क्या? नहीं ! फिर भी , फिर क्यों ?

अपने तईं पहले त्योहार व उत्सव सार्वजनिक थे अब लगभग सब व्यक्तिगत हैं . क्या इसीलिए बार - बार स्मृतियों के गलियारे में डोलना पड़ता है? क्या इसीलिए अतीत की उज्जवलता को वर्तमान के तमस - पट पर सिनेमाई करतब की तरह अवतरित होते हुए देखना - निरखना पड़ता है ? कहीं पढ़ा था कि स्मृति इसीलिए स्मृति होती है कि वह वर्तमान से दूर होती है. आज दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता रहा , पत्रिकाओं - किताबों का ढेर लगा है फिर भी बहुत कुछ अनपढ़ा - अनदेखा रह रह जाता है - फिर भी कहीं बाहर से लौटने पर बैग की जिप खोलते ही किताबें - पत्रिकायें क्यों झाँकने लगती हैं ? ऐसा नहीं है कि समय की रील को रिवाइंड करके एक टाइम मशीन बना ली जाय और व्यतीत में विचरण का निर्बाध आनंद लिया जाय , अगर ऐसा संभव है तो एक अदद टाइम मशीन भविष्य के भान के लिए भी होनी चाहिए. लगता है कि विकास के लिए कुछ न कुछ की बलि देनी ही पड़ती है. खैर , मन प्रान्तर में कहीं रागात्मकता की गूँज - अनूगूँज शेष है और देह व दिमाग काठ के नहीं हो गए हैं , आज के कठिन समय में यह कुछ कम तो नहीं !

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त. एक साथ दो - दो त्योहार ! ( और तीसरे दिन इतवार की छुट्टी ) ये दोनो ही त्योहार अतीत की तरफ खींच ले जाते हैं. १५ अगस्त के दिन याद आने लगता है गाँव का वह टुटहा प्राइमरी स्कूल जिसकी छत उड़ गई थी और महुए के पेड़ के नीचे क्लास लगा करती थी- बारिश हो तो छुट्टी. उन दिनों के स्कूल का १५ अगस्त यानि सादे कागज पर उकेरा गया और सरकंडे की डंडी में खोंसा गया तिरंगा , प्रभात फेरी , पीटी, लेजिम, खेलकूद, भाषण और ..लड्डू ..साथ ही पूरे दिन की छुट्टी..रेडियो पर देशभक्ति के गानों की बहार..अगर बारिश हो गई तो 'बारी' ( बगीचा ) में 'बरगत्ता' ( कबड्डी ) का खेल..

अब तो अपने आसपास सबकुछ लगभग इनडोर है- खेल भी और खेल की स्मृति भी. पर्व - त्योहार छुट्टी या अवकाश के पर्यायवाची - से हो गए हैं. त्योहारों का एक अर्थ शायद यह भी रह / हो गया है कि यादों की जुगाली कर ली जाय , नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में जुते हुए देह और दिमाग को थोड़ी छुट्टी दी जाय , भीतर - बाहर की कलुषता व गर्द - गुबार को स्मृतियों के रूईदार फाहे से पोंछ दिया जाय , अपने आसपास की धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा को उलीचकर अंतस तक उतार लिया जाय ताकि कुछ भला - भला लगे !
रात अब गहरा रही है , बाहर बारिश है . सावन, अरे नहीं , सावन तो लगभग सूखा ही बीत गया. अब तो भादों है , कल रात से झड़ी लगी हुई है. बारिश के गिरने की आवाज अंदर कमरे तक आ रही है और मैं त्योहारों के बहाने बह आई तरावट को महसूस करते हुए , रत्ना बसु की आवाज में 'सावन झरी लागेला धिरे - धीरे ' सुनते हुए , कल की डाक में आई एक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए सोने का उपक्रम करने जा रहा हूँ क्योंकि कल सुबह जल्दी जागना है -कल १५ अगस्त है स्वाधीनता दिवस.

तो , मित्रों ! आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त की बधाई !

अभी , इस क्षण ठीक से याद नहीं आ रहा है , यह किसकी कविता की पंक्ति है - ' अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात / खिड़की बन्द कर दो ' ! लेकिन क्या ईंट , गारे , सीमेंट, लोहा - लक्कड़ से बने मकान मे लगी काठ की शीशेदार खिड़कियों के बन्द कर देने से स्मृतियों की यह 'निर्दयी बरसात' थम जाएगी ? बाहर अब भी बारिश हो रही है - मद्धम, बाहर रोशनी कम है - मद्धम , मन में स्मृतियों का राग बज रहा है मद्धम - मद्धम !

सोमवार, 10 अगस्त 2009

कामना को कल्पना के फूल चुनते दो



पुरानी डायरी से नए सिरे से बतियाना अच्छा लगता है. आज सुबह - सुबह पुरानेपने में कुछ नया तलाश करने की मंशा से डायरी पलटी और लगा कि इस कविता को 'कर्मनाशा' पर शेयर करना चाहिए. सो फिलहाल और कोई लिखत -पढ़त नहीं आइए देखते हैं यह कविता -

कामना को कल्पना के फूल चुनते दो.

देखो मत रोको शपथ की आड़ लेकर-
शब्द को साँसों की लय पर गीत बुनने दो.

कौन जाने
क्या हुआ है आजकल.
उग रही है
उम्र की अभिनव फसल.

चलने दो जादू प्रबल आकर्षणों का,
मन को मन का अनसुना संगीत सुनने दो.

आँधियों को
दो बुलावा साथ मेरे.
ताकि टूटें
अजनबी रिश्तों के घेरे.

एक नई वरमाला के निर्माण ह्वेतु,
कामना को कल्पना के फूल चुनते दो.

(एक निवेदन : मेरी एक छोटी -सी गलती या कि प्रयोग करने की फितरत के चलते इस ब्लाग पर पोस्ट्स के साथ लगी सभी तस्वीरें डिलीट हो गई हैं . पाठको को हुई / हो रही असुविधा के लिए क्षमा चाहता हूँ .)