शनिवार, 31 दिसंबर 2011

आएगा अच्छा समय विश्वास है

आज साल २०११ का अंतिम दिन..दिन भी कहाँ..अब शाम रात होने की ओर अग्रसर है। कल से नया साल..नए साल का पहला दिन। माना कि बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी फिर भी ..आएगा अच्छा समय विश्वास है..। नए साल पर 'कर्मनाशा' के सभी मित्रों को शुभकामनायें - मुबारकबाद !

                                                                (चित्र : एम०जी० क्रिएशंस के शुभकामना संदेश से साभार)
नए साल पर..

सर्दियां आ गईं सुस्ताइए,
धूप को ओढिए बिछाइए।

बर्फ़ के बेदाग़ सफे पर अपना,
नाम लिखिए और भूल जाइए.


माना सचमुच ज़िंदगी है रंजोग़म,
फिर भी खुशियां बांटिए ग़म खाइए।

आएगा अच्छा समय विश्वास है,
बस इसी विश्वास में रम जाइए।

प्यार का एहसास एक अलाव है,
आग अपने प्यार की सुलगाइए।

हो मुबारक आपको यह साल !
कम से कम इस साल मत भरमाइए।






गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

राह दिखायेंगे ढाई अक्षर

आज  ही अब से कुछ  ही देर पहले  कंप्यूटर पर कुछ खुटर - पुटर करते हुए कुछ - कुछ लिखा है....कविता की शक्ल में। यह जानते हुए कि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे'। फिर भी , मन में कुछ आया। कुछ अच्छा लगा , कुछ भाया  तो जो भीतर था वह वह शब्द / पद की शक्ल में बाहर निकल आया। आइए , सोने से पहले इसे  सहेजते हैं  ...साझा करते हैं :

संग - साथ

अंधेरे में
जब सूझता न  हो
हाथ को हाथ
तब तुम रहो संग
चलो साथ -साथ।

हाथ में हो
तुम्हारा गर्म हाथ
डर जाए डर
भाग जाए भय
ठहर जाए
अदृश्य होने को आकुल
कोई टूटती - सी अधबनी लय।

भले ही
हो  बेहद बेतुका वक़्त
फिर भी
मिल जाए तुक से तुक
साँस की भाप का इंजन
देर तक दूर तक
चलता रहे छुक -छुक।

न दिखे राह
न हो निश्चित गंतव्य
अनवरत
अट्टहास  करता रहे गहन अंधकार
पर रहे यकीन
राह दिखायेंगे ढाई अक्षर
हर जगह  हर पल हर बार।
---

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

तुम्हारी आँखों में

निज़ार को जब पढ़ना शुरु किया तो नेरुदा की याद आती रही और अब  नेरुदा को पढ़ता हूँ  तो निज़ार याद आने लगते हैं। प्रेम  को इसी दुनिया में उपजते हुए देखने और  प्रेम के  स्पर्श से इसी दुनिया  सुन्दर होते हुए देखने की ललक , लालसा और लड़ाई दोनो कवियों के यहाँ है। नेरुदा के बारे में फिर कभी आज तो बस निज़ार की बात करने का मन है।

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल 1998) की कविताओं के मेरे किए अनुवाद आप 'कर्मनाशा' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं।  प्रेम के रंग में रँगा - रचा  और प्रेम  को तरह - तरह से रँगने - रचने वाले इस कवि  को बार - बार  पढ़ने / पढ़वाने का मन करता है। 


दो कवितायें / निज़ार क़ब्बानी
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

०१- आँखें अथाह 

अपनी अथाह आँखों के साथ तुम !

तुम्हारा प्रेम
असीम
रहस्यमय
पावन।

जीवन और मृ्त्यु की भाँति
तुम्हारा प्रेम
अपुनरावृत।

०२- तुम्हारी आँखों में

जब मैं यात्रा करता हूँ
तुम्हारी आँखों में
लगता है सवार हूँ जादुई कालीन पर
जिसे उड़ाए लिए चले जाते हैं
वायलेट और गुलाब के बादल।

मैं परिक्रमा करता हूँ
पृथ्वी की तरह
तुम्हारी आँखों में।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

जो सुनाई दे उसे गाओ

वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) रूसी कविता की एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताओं के अनुवाद दुनिया भर की कई भाषाओं में हो चुके हैं। अंग्रेजी के माध्यम से विश्व कविता की एक झलक से परिचित होने वाले हम जैसे लोगों के लिए अंगेरेजी में उपलब्ध उनका संग्रह  'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स'  है । इसमें संकलित कविताओं का अनुवाद वेरा के पति स्टेवेन सेम्योर ने किया है। उनकी कवितायें  कलेवर में बहुत छोटी हैं और वे बेहद छोटी समझी जाने वाली स्थितियों - मन:स्थितियों पर  लिखी गई हैं लेकिन कविता  से  जो कुछ बाहर आता है वह एक बड़ा , व्यापक ,तीक्ष्ण और मारक अनुभव जगत होता है। उनकी बहुत सी कवितायें आप पहले भी   कई  जगह पढ़ चुके  है। आइए आज पढ़ते हैं  दो और कवितायें :



वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


01-निर्माण

प्रेम !
नहीं?
चलो इसका निर्माण करें
हो गया !
आगे?

चलो अब निर्मित करें:
      ध्यान
        कोमलता
          साहस
            ईर्ष्या
              तृप्ति
                 झूठ।

02-संवाद

-  मेरे लिए गाओ सबसे सुन्दर गान
-  मुझे  पता नहीं गीत के बोल
-  तो गाओ स्वरलिपियाँ
-  मुझे पता नहीं स्वरलिपियों का
-  तो बस यूँ गुनगुनाओ
-  भूल गई है धुन

अगर ऐसा है
तो अपना कान लाओ
मेरे कान के करीब
और जो सुनाई दे उसे गाओ।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

जहाँ भय से परे है मन

रवीन्द्रनाथ टैगोर को पहली बार हाईस्कूल में  अंग्रेजी के कोर्स  में पढ़ा था। वह एक  छोटा - सा नाटक था 'सेक्रीफाइस'। बाद में स्कूल की लाइब्रेरी से  ही उनकी एक और किताब निकाली थी , उसका शीर्षक 'चित्रांगदा' था शायद। कुछ समय बाद उनका एक उपन्यास पढ़ा 'नौका डूबी'।  इस उपन्यास की कथाभूमि ग़ाज़ीपुर है और उसमें वर्णित  जगहें सब  देखी हुई हैं।  यह  सब स्कूल के दिनों की बात है। एक दिन क्लास में अपने हिन्दी अध्यापक से पूछा कि 'रवीन्द्रनाथ टैगोर और रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक ही है क्या?' अध्यापक ने गौर से देखा, घूरा और कहा कि 'वे  तो एक ही हैं लेकिन तुम अपने कोर्स की किताबें पढ़ने में मन लगाओ। अभी तुम्हारी उम्र नहीं  है टैगोर को पढ़ने की।' पता नहीं टैगोर को पढ़ने की उम्र  कभी हुई  या नहीं या कि  कब होगी  पता नहीं लेकिन सच यह है कि  एक उम्र चाहिए उन्हें पढ़ने - गुनने - सुनने के लिए। टैगोर की 'गीतांजलि' में संकलित एक कविता Where the mind is without fear .. को  इस बीच  अपने कस्बे  में  कई  बार फरमाइश पर बच्चों और बड़ों की गोष्ठियों सुनाया है। इसके  कुछ हिन्दी अनुवाद  भी देखे - पढ़े है । आज शाम को कुछ यूँ ही लिखते - पढ़ते  इस कविता का एक अनुवाद किया है। यह मात्र  भाषांतर नहीं है। मेरे लिए एक तरह का पुनर्सृजन है तो ही , साथ में कविगुरु के प्रति नमन और पुण्य स्मरण भी। आइए इसे  साझा करते हैं :

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता
जहाँ भय  से परे है मन
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

जहाँ मुक्त है ज्ञान
जहाँ भय  से परे है मन
और उन्नत है  मस्तक - ललाट।
और जहाँ जगत को
सँकरी घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में
नहीं दिया गया है बाँट।

जहाँ सत्य के अतल तल से
अवतरित होते हैं शब्द
जहाँ श्लथ प्रयासरत भुजायें
तलाश करती हैं पूर्णता का उर्ध्व
जहाँ प्रवाहित है तर्क की स्पष्ट धार।
सुनसान रेतीले बियाबान प्रान्तर में
मृत रीतें अब भी
विस्मृत न कर पाई हैं सहज राह
और गतिमय है यात्रा लगातार।

जहाँ मानस में
उपजते हैं विपुल विचार
व्यापक सक्रियता के पथ पर
तुमसे अग्रगामी होता जाता है पंथ।
और पहुँच जाता है
स्वतंत्रता के स्वर्ग में
लाँघता हुआ  दिशायें - दिगन्त।

हे प्रभु
हे ईश्वर
हे करुणानिधान।
जाग्रत हो
जागे मेरा देश
गाये स्वातंत्र्य का नव गान।
---
( पेंटिंग : गगनेन्द्रनाथ टैगोर की चित्रकृति )

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

दूर तलक यह फैली घाटी

याद तो नहीं था लेकिन सुबह - सुबह अख़बार ने याद दिलाया कि आज नैनीताल का 'हैप्पी बड्डे' है। किसी शहर का , किसी स्थान का जन्म दिन ! हाँ, पिछले कुछ समय से यह होने लगा है। सुना है आज नैनीताल में तरह - तरह के कार्यक्रम भी हो रहे हैं। सोचा कि अपनी स्मृतियों में जो नैनीताल बसा है  उसे लेकर क्या किया जाय ? दिन में तो समय नहीं मिला लेकिन अभी कुछ देर पहले  पुरानी डायरियों से गुजरते हुए नैनीताल को खूब याद किया। मन हुआ कि सबके साथ दो कवितायें साझा की जाय जि्न्हें तब लिखा था जब मैदानों के समतल प्रदेश से  एक विद्यार्थी कि हैसियत से  इस शहर में आया था और पूरा एक दशक रहा। यह कविता तब की है जब मैं बी०ए० फ़र्स्ट ईयर का स्टूडेंट था । वह  और समय था , और दुनिया ! कवितायें पढ़ने तथा लिखने की और समझ के दिन ! वे दिन स्मृति में तो हैं ही डयरी के पन्नों पर भी विद्यमान हैं। जो भी हो , आइए इन कविताओं को  देखते - पढ़ते हैं...


०१- पर्वत राग

पहाड़ हँसते हैं
जब किसी आवारा बादल का 
मासूम बच्चा
मेरी खिड़कियों के शीशे पर
दस्तक देता है।

और पहाड़ रोते भी हैं
जब मैं देवदारु वन को देखते - देखते
तुम्हारे नाम की नज़्म लिखना
अक्सर भूल जाता हूँ।

०२- स्नोव्यू से हिमालय को देखते हुए

ओ हिमगिरि
हिम में मुँह ढँक कर
थोड़ा और हँसो।

दूर तलक
यह फैली घाटी
तरुओं से आच्छादित।
छोटे - छोटे से मकान यह
लगते जैसे नए खिलौने
लेकर खेल रहा पर्वत शिशु
होकर के आह्लादित।

बादल के आँचल में अपना
मुख मत ढँके रहो।

इतने धवल हुए तुम कैसे
मन में जग रही जिज्ञासा
रजत ज्योत्सना
श्वेत कमल
इन सबका मिश्रण कैसे पाया
कुछ तो मुझसे करो खुलासा।

युग - युग तक तुमको चाहूँगा
मन में बसे रहो।
---


शनिवार, 12 नवंबर 2011

बारिश में भीग रहे हैं बुद्ध

आज जिस कविता को 'कर्मनाशा' के पाठकों व प्रेमियों के साथा साझा करने का मन है उसका पहला ड्राफ़्ट मई २०१० के आखिरी सप्ताह में हिमाचल यात्रा के दौरान केलंग में  यूँ ही लिखा गया था। केलंग  लाहुल-स्पिति जिले का मुख्यालय है जहाँ कवि अजेय रहते हैं। होटल चन्द्रभागा के जिस कमरे में मैं  लाहुली साहित्य -  संस्कृति के 'इनसाइक्लोपीडिया' तोबदन जी  के साथ ठहरा था उसकी खिड़की से  बुद्ध की एक प्रतिमा दिखाई देती थी । नीचे लगा चित्र वही है मेरे मोबाइल फोन से खींचा हुआ। लगभग सप्ताह भर के हमारे  प्रवास में  बर्फ़बारी  और बारिश  में भीगते बुद्ध से रोज  कई - कई बार साक्षात्कार होता रहा । सामने की पहाड़ी पर  गोंपा दीखता था  और नीचे केलंग । किसी दिन , शायद बुद्ध पूर्णिमा के दिन ,  सुबह - सुबह  घर की याद करते हुए इसको लिखा था। अभी इधर  एकाध महीने से डायरियों, फाइलों, नोटबुक्स और  छुट्टा कागजों पर लिखी- बिखरी कविताओं को समेटने में  लगा हूँ तो इसको  एक बार  री- राइट  किया है। अब यह कविता जैसी भी है ,आइए इसे देखते - पढ़ते हैं :


बारिश में बुद्ध

हिमशिखरों से कुछ नीचे
और उर्वर सतह से थोड़ा ऊपर
अकेले विराज रहे हैं बुद्ध।

उधर दूसरी पहाड़ी ढलान पर
दूर दिखाई दे रहा है गोंपा
किन्तु उतना दूर नहीं
कि जितनी दूर से आ रही है बारिश
अपनी पूरी आहट और आवाज के साथ।
जहाँ से
जिस लोक से आ रही है बारिश
वहाँ भी तो अक्सर आते जाते होंगे बुद्ध
परखते होंगे प्रकृति का रसायन
या मनुष्य देहों की आँच से निर्मित
इन्द्रधनुष में
खोजते होंगे अपने मन का रंग।

कमरे की खिड़की से
दिखाई दे रहे हैं आर्द्र होते बुद्ध
उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार।
मैं गिनता हूँ उंगलियों पर बीतते जाते दिन
आती हुई रातें
और सपना होता एक संसार।

यहाँ भी हैं वहीं बुद्ध
जिन्हें देखा था सारनाथ-  काशी में
या चौखाम - तेजू - इम्फाल में।
वही बुद्ध
जिन्हें छुटपन से  देखता आया हूँ
इतिहास की  वजनी किताबों में
कविता में
सिनेमा के पर्दे पर
संग्रहालयों के गलियारे में
सजावटी सामान की दुकानों पर
पर उन्हें देखने से बचता रह स्वयं के भीतर
हर जगह -  हर बार।

यह चन्द्रभागा है
नदी के नाम का एक होटल आरामदेह
केलंग की आबादी से तनिक विलग एक और केलंग
जैसे देह से विलग कोई दूसरी देह
काठ और कंक्रीट का एक किलानुमा निर्माण
कुछ दिन का मेरा अपना अस्थायी आवास
फिर प्रयाण
फिर प्रस्थान
फिर निष्क्रमण
जग के बारे में भी
ऐसा ही कहते पाए जाते हैं मुखर गुणीजन
और इस प्रक्रिया में बार - बार उद्धृत किए जाते हैं बुद्ध।

बुद्ध बहुत मूल्यवान हैं हमारे लिए
उनके होने से होता है सबकुछ
उनके होने से कुछ भी नहीं रह जाता है सबकुछ।
टटोलता हूँ अपना समान
काले रंग की छतरी बैग में है अब भी विद्यमान
चलूँ तान दूँ उनके शीश पर
बारिश में भीग रहे हैं बुद्ध
और उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार
मैं इसी संसार में हूँ
और सपना होता जा रहा है संसार।
---


मंगलवार, 8 नवंबर 2011

मेरे हृदय ने खोले अपने हृदय - द्वार

हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३४-१९६७)  की कवितायें पढ़ते समय हम इस बात से सजग रहते हैं कि पोलिश कविता की समृद्ध और गौरवमयी परम्परा में वह एक महत्वपूर्ण  व बेहद जरूरी कड़ी हैं । मेरे द्वारा किए गए ( किए जा रहे) उनकी  बहुत - सी कविताओं के अनुवाद  आप यहाँ  इस ठिकाने  'कर्मनाशा' पर , हमारे सामूहिक ब्लॉग 'कबाड़ख़ाना' पर  तथा   'शब्द योग' , 'अक्षर' व कुछ अन्य  पत्र - पत्रिकाओं में  पढ़ चुके हैं। संतोष है  कि विश्व कविता से प्रेम रखने वाली हिन्दी बिरादरी में इन्हें पसन्द किया गया है। आभार।  इसी क्रम में आज प्रस्तुत है एक  उनकी  एक और कविता : 


हालीना पोस्वियातोव्सका की कविता

विवश राग 
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मैंने प्रेम के वृक्ष से तोड़ ली एक टहनी
और उसको
दबा दिया मिट्टी की तह में
देखो तो
किस कदर खिल उठा है मेरा उपवन।

संभव नहीं
कि कर दी जाय प्रेम की हत्या
किसी भी तरह।

यदि तुम उसे दफ़्न कर दो धरती में
तो वह उग आएगा दोबारा
यदि तुम उसे उछाल दो हवा में
तो पंख बन जायेंगे उसके पल्लव
यदि तुम उसे गर्त कर दो पानी में
तो वह तैरेगा बेखौफ़ मछली की तरह
और यदि ज़ज्ब दो उसे रात में
तो और निखर आएगी उसकी कान्ति।

इसलिए
मैंने चाहा कि प्रेम को दफ़्न कर दूँ अपने हृदय में
लेकिन मेरा हृदय बन गया प्रेम का वास- स्थान
मेरे हृदय ने खोले अपने हृदय - द्वार
इसकी हृदय - भित्तियों को भर दिया गीत - संगीत से
और मेरा हृदय नृत्य करने लगा पंजों के बल।

इसलिए
मैंने प्रेम को दफ़्न कर लिया अपने मस्तिष्क में
किन्तु लोग पूछने लगे
कि क्यों मेरा ललाट हो गया है फूल की मानिन्द
कि क्यों मेरी आँखें चमकने लगी हैं सितारों की तरह
और क्यों मेरे होंठ हो गए हैं
सुबह की लालिमा से भी अधिकाधिक सुर्ख।

मैंने आत्मसात कार लिया प्रेम को
और सहेज लिया इसे सहज ही
किन्तु इसके आस्वाद के लिए मैं हूँ अवश
लोग पूछते हैं कि क्यों मेरे हाथ बंधनयुक्त हैं प्रेम से
और क्यों मैं हूँ उसकी परिधि में पराधीन।

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

धूप के अक्षर

इस बीच पुराने कागज -पत्तर और फाइलों की छँटाई करने के क्रम में कई बार पुरानी डायरी और अपनी कई - कई पुरानी कविताओं से सुदीर्घ साक्षात्कार उपलब्ध हुआ है। यह एक तरह से पुराने दिनों के भीतर के तहखाने में उतरने की एक सीढ़ी की शक्ल में सामने आया है। तब की अपनी दुनिया और दुनिया के बारे में तब की अपनी सोच और उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की निशानदेही की जाँच - परख का अपना ही आनंद है इस बहाने। इसमें कुछ कविताओं को साझा कर चुका हूँ। आज के दिन जिस कविता को साझा करना चाह रहा हूँ वह डायरी में 'मिट्टी का सूरज' शीर्षक से संग्रहीत है लेकिन वह 'पहल' पत्रिका के अंक - ३१ में 'प्रतीक्षा' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। आइए इसे देखें - पढें...

(पेंटिंग The Sower: वॉन गॉग)
प्रतीक्षा

धूप के अक्षर
अँधेरी रात की काली स्लेट पर
आसानी से लिखे जा सकते हैं
कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारे हाथों में
चन्द्रमा की चॉक हो।

इसके लिए मिट्टी ही काफी है
वही मिट्टी
जो तुम्हारे चेहरे पर चिपकी है
तुम्हारे कपड़ों पर धूल की शक्ल में जिन्दा है
तुम्हारी सुन्दर जिल्द वाली किताबों में
धीरे - धीरे भर रही है।

तुम सूरज के पुजारी हो न?
तो सुनो
यह मिट्टी यूँ ही जमने दो परत - दर पर॥

देख लेना
किसी दिन कोई सूरज
यहीं से ,बिल्कुल यहीं से
उगता हुआ दिखाई देगा
और मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा।
---

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

चाहे जितना भी विस्तृत हो तिमिर लोक

किन उपकरणों का दीपक,
किसका जलता है तेल?
किसकि वर्त्ति, कौन करता
इसका ज्वाला से मेल ?
                     - महादेवी वर्मा

आज दीपावली है - दीप उत्सव, उजास का पर्व। अंधकार की सत्ता के विरुद्ध प्रकाश का संघर्ष। आज 'कर्मनाशा' के सभी पाठकों और प्रेमियों को बहुत - बहुत शुभकामनायें ! बीती रात सोने से पहले महादेवी  वर्मा और अज्ञेय की  कविताओं से गुजरते हुए बार - बार 'दीपक'  शब्द से रू-ब-रू होते हुए कुछ सोचा और कुछ यूँ ही लिखा - कविता जैसा। आइए आज इसे सबके साथ साझा करते हैं :

 चार शब्द दीप

०१-

कुछ है
जिससे  जन्म लेती है रोशनी
कोइ है
जो अपदस्थ करता है
अन्धकार के क्रूर तानाशाह को
कोई है
जो जलाता है अपना अस्तित्व

तब उदित होती है
रात के काले कैनवस पर एक उजली लकीर।

०२-

इस साधारण से शब्द का
पर्यायवाची नहीं है अंधकार
न ही
यह रंगमंच है किसी कुटिल क्रीड़ा का

रात का होना है प्रभात
और सतत जलता हुआ दीप।

०३-

चाहे जितनी भी बड़ी हो
अंधकार की काली स्लेट
चाहे जितना भी विस्तृत हो तिमिर लोक
भले आकाश की कक्षा में अनुस्थित हो चाँद

फिर भी
धुँधले न हों
उजाले के अक्षर
और ख्त्म न हो रोशनी की चॉक।

०४-

बनी रहे
उजास की अशेष आस
शेष न हो
स्वयं पर सहज विश्वास

आओ करें
रोशनी को राजतिलक
तम को भेज दें वनवास।
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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

साक्ष्य , विलोम और यूँ ही

पिछली पोस्ट में पुरानी डायरी से एक कविता सबके साथ साझा की गई थी। इसे ठीकठाक माना गया , आभार। उस डायरी में लगभग सभी शुरुआती कवितायें हैं जो विद्यार्थी जीवन  के दौरान लिखी गई थीं। आज जब इतने बरस बाद अक्सर उन अनगढ़ अभिव्यक्तियों से रू- ब- रू  होना होता है तब ( उस वक्त की ) अपनी तमाम तरह की ( गंभीर ) बेवकूफियों पर हँसी आती है और साथ ही  प्राय: स्मृतियों  के संग्रहालय की  टेढ़ी - मेढ़ी वीथिकाओं से गुजरते ऐसा भी लगता है कि वे भी क्या दिन थे !  अब तो ...बरबस याद आ जाते हैं रहीम - 
   
                                                 रहिमन अब वे बिरछ कहं,जिनकर छाँह गंभीर।
   बागन बिच - बिच देखिअत,  सेंहुँड़, कुंज करीर॥

स्मृति का अपना विलक्षण लोक है। अतीत की अपनी मायावी दुनिया है। वर्तमान की अपनी एक निरन्तरता है जो रोज नए - नए  रूप दिखाती है और नई चुनौतियाँ और नई उम्मीदें लेकर आती है फिर कहीं कुछ है जो 'ढूँढ़्ता है फिर वही फुरसत के रात दिन।' यह अच्छी तरह पता है  'तसव्वुरे जानां किए हुए' बैठे रहने से काम नहीं चलने वाला है फिर भी  पुरानी डायरी और उसमें दर्ज शुरुआती कविताओं के मार्फत  कभी - कभार व्यतीत में विचरण कर लेने में  कोई बुराई नहीं है शायद।  तो आइए , आज देखते - पढ़ते  साझा करते हैं ये तीन ( पुरानी ) कवितायें  :

स्मृति - त्रिवेणी :  तीन ( पुरानी ) कवितायें


०१- साक्ष्य

बर्फ़ अब भी गिरती है
और खालीपन भर - सा जाता है।
इस निर्जन शहर में
लोग ( शायद ) अब भी रहते हैं
क्योंकि -
पगडंडियों पर
पाँवों के इक्का - दुक्का निशान हैं
कहीं - कहीं खून के धब्बे
और एक अशब्द चीख भी।

०२- विलोम

मैं
इस गली के नुक्क्कड़ पर लगा
एक उदास लैम्प पोस्ट।
अब मैं रोशनी बाँटता नहीं
रोशनी पीता हूँ
और
बे - वजह ही
दिन को रात बनाने की
असफल कोशिश में लिप्त रहता हूँ।

०३- यूँ ही

तुम्हरी हँसी को मैं
हरसिंगार के फूलों की
अंतहीन बारिश नहीं कहूँगा
और यह भी नहीं कि
चाँदनी की प्यालियों से उफनकर
बहती हुई
मदिर - धार है तुम्हारी हँसी।
बल्कि यह कि  -
टाइपराइटर के खट - खट जैसी
कोई एक आवाज है तुम्हारी हँसी
जो मुझे फिलहाल अच्छी लग रही है।
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मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

धुन्ध की नर्म महीन चादर के आरपार

डायरी में क्या है ?
स्मृति
स्मृति में क्या ?

पीले उदास पड़ गए पन्नों  पर
अब भी 
एक उजली इबारत।

आज बहुत दिनों बाद ( कविताओं की )  पुरानी डायरी  से संवाद हुआ। शबो -रोज के  सतत जारी तमाशे के बीच से  चुपके से चुराया गया कुछ वक्त उसके साथ बिताया गया और  स्मृति सरोवर में स्नान कर ( एक बार ) फिर आज की अपनी दुनिया में सुरक्षित वापसी - परावर्तन। कभी  कभार लगता है कि स्मृति एक ऐसा खोह है जहाँ 'तुमुल कोलाहल कलह' से विलग होकर , बच कर कुछ देर आत्म संवाद  किया जा सकता है और 'हृदय की बात' तनिक सुनी जा सकती है। कभी - कभार यह भी लगता है कि यह सब कुछ  वास्तविकता से अस्थायी विस्थापन - विचलन का कोई  शरण्य तो नहीं  है शायद?  फिर भी स्मृति का अपना एक संसार है , एक अपनी दुनिया , इसी दुनिया में अवस्थित - उपस्थित एक 'दूसरी दुनिया'। फिर भी इसमे कोई शक - शुबहा  नहीं कि आज की अपनी निज की जो भी दुनिया है वह  कमोबेश उस स्मृति की दुनिया के मलबे पर ही अपनी नींव जमाए बैठी है।बहरहाल, पुरानी डायरी  से संवाद  के क्रम में आज यह  बहुत पुरानी कविता सबके साथ साझा करने का मन है।  आइए , इसे देखें- पढ़े :


ऐसा कोई आदमी

पेड़ अब भी
चुप रहने का संकेत करते होंगे।
चाँद अब भी
लड़ियाकाँटा की खिड़की से कूदकर
झील में आहिस्ता - आहिस्ता उतरता होगा।
ठंडी सड़क के ऊपर होस्टल की बत्तियाँ
अब भी काफी देर तक जलती होंगी।

लेकिन रात की आधी उम्र गुजर जाने के बाद                           
पाषाण देवी मंदिर से सटे
हनुमान मन्दिर में
शायद ही अब कोई आता होगा
और देर रात गए तक
चुपचाप बैठा सोचता होगा -
                  स्वयं के बारे में नहीं
                  किसी देवता के बारे में नहीं
                  मनुष्य और उसके होने के बारे में।

झील के गहरे पानी में
जब कोई बड़ी मछली  सहसा उछलती होगी
पुजारी एकाएक उठकर
कुछ खोजने - सा लगता होगा
तब शायद ही कोई चौंक  कर उठता होगा
और मद्धिम बारिश में भीगते हुए
कंधों पर ढेर सारा अदृश्य बोझ लादे
धुन्ध की नर्म महीन चादर को
चिन्दी- चिन्दी करता हुआ
मल्लीताल  की ओर लौटता होगा।

सोचता हूँ
ऐसा कोई आदमी
शायद ही अब तुम्हारे शहर में रहता होगा
और यह भी
कि तुम्हारा शहर
शायद ही अब भी वैसा ही दिखता होगा!
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रविवार, 9 अक्तूबर 2011

समय में यात्रारत चाँद : टॉमस ट्रांसट्रोमर

टॉमस ट्रांसट्रोमर विश्व  के सर्वाधिक  प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवियों में से एक हैं। १९३१ में जन्मे  स्वीडन  के  इस ८० वर्षीय कवि  को २०११ के साहित्य के नोबेल  पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है।  उनकी कवितायें दुनिया भर की तमाम भाषाओं में अनूदित होती रही हैं।  आइए आज पढ़ते - देखते हैं उनकी कुछ  कवितायें :


टॉमस ट्रांसट्रोमर की कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

अप्रेल और चुप्पियाँ

बिसर गया है वसंत
गाढ़ी मखमली वंचनायें
रेंग रही हैं मेरी ओर
बिना किसी परावर्तन के।

अगर चमक रही हैं
कुछ चीजें
तो वे हैं बस पीताभ पुष्प।

अपने ही प्रतिबिंब में
ले लिया गया हूँ मैं
जैसे कोई  वायलिन बंद हो जाती है
अपने खोल के भीतर।

कोई एक बात
जिसे कहना चाहता हूँ मैं
वह यह कि  पहुँच से दूर है दीप्ति
जैसे रेहन की दुकान से
चमकते हैं चाँदी के जेवर ।

तीन हाइकू

खिला है वनपुष्प
फिसल रहे हैं तेल - टैंकर्स परे
और चाँद है पूर्ण।
*
मध्यकालीन दुर्ग
पराया शहर, अडोल सिंह - मानव
निचाट रंगभूमि।
 *
और प्रवाहमान है रात
पूरब से पच्छिम की ओर
समय में यात्रारत चाँद के साथ।
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टॉमस ट्रांसट्रोमर की  कुछ कवितायें  'कबाड़ख़ाना' पर )

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ

इधर कुछ समय से ब्लॉग की दुनिया में आवाजाही बहुत कम हुई है। लिखने - पढ़ने के क्रम में भी व्यवधान हुआ है, फिर भी  कुछ न कुछ भीतर घुमड़ता ही रहता है । आज अपनी एक कविता 'बनता हुआ मकान' की याद हो आई है। इसे आज से पाँच - छह बरस पहले लिखा गया था। हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया के  पाठकों के साथ इसको साझा करने का मन है। आइए  देखते - पढ़ते है यह कविता :
  

बनता हुआ मकान
                           
यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा अधूरा निर्माण
आधा अधूरा उजाड़
जैसे आधा - अधूरा प्यार
जैसे आधी अधूरी नफरत।

यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा - सा है फर्श
लगता है जमीन अभी पक रही है
इधर - उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन - टीवी की केबिल भी कहीं नहीं दीखती।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी संपूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक खामोश सिसकी भी।

अभी तो सबकुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे - धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ायेंगे तिलचट्टे।

आश्चर्य है जब तक आउँगा यहाँ
अपने दल बल छल प्रपंच के साथ
तब तक कितने - कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान।
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शनिवार, 24 सितंबर 2011

यह कोई निरर्थक जुमला नहीं है

अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें आप 'कर्मनाशा' पर कई बार पढ़ चुके हैं। रूसी साहित्य  के इस जगमगाते सितारे से अपनी  पहचान  बहुत आत्मीय है  और उसके काव्य संसार में विचरण  करना भला लगता है। आइए आज देखते - पढ़ते हैं अन्ना की दो कवितायें: 




अन्ना अख़्मातोवा  की दो कवितायें 
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


01-लुब्ध नहीं करता है झील के पिछवाड़े का चाँद

लुब्ध नहीं करता है झील के पिछवाड़े का चाँद
और खुलता है
एक सूने , प्रकाशमान घर की खिड़की की तरह
जहाँ कुछ ग़मगीन चीजें घटित हो चुकी हैं

गोया
लाया गया है घर का मालिक मुर्दा - बेजान
मालकिन भाग गई है अपने यार के साथ
एक छोटी बच्ची खो गई है कहीं
और उसके जूते पाए गए हैं चरमराती चारपाई के नीचे.

हम देख नहीं पा रहे हैं
महसूस कर रहे हैं बेतुकी बातें -
उदासी
बाजों - उल्लुओं की आवाजें
और बगीचे की उमस के बीच
गरजती , कोलाहल करती  हुई हवा...
- मगर हम
 नहीं करते हैं कोई बातचीत.

02- तुम किस तरह देख सकोगे नेवा की जानिब ?

कहो
तुम किस तरह देख सकोगे नेवा की जानिब ?
तुम किस तरह लाँघ सकोगे  इसके पुल ?
यह कोई निरर्थक जुमला नहीं है
जबसे  आए हो तुम मेरे निकट
एक दुखी इंसान की मिल गई है मुझे पहचान.

नुकीले पंख पसारे मँडरा रही हैं काली परियाँ
कयामत का दिन आता जा रहा है पास
और बर्फ के भीतर
गुलाबों की तरह खिल रही है
रसभरी जैसे सुर्ख रंगों वाली आतिशबाजी.

रविवार, 28 अगस्त 2011

इच्छाओं का जंगल और विराम से बाहर



इच्छाओं के जंगल में
दौड़ता  फिरता है मन बावरा
कहीं ओर न छोर
बस रास्ते ही रास्ते हर ओर 
एक दूसरे में गुम होता
जंगल हरा - भरा..

इस बीच लंबा गोता लग गया , शायद लंबा और गहरा भी। महीने भर से अधिक का ब्लॉग - विराम। इस ठिकाने पर पिछली पोस्ट १८ जुलाई को आई थी और आज २८ अगस्त है। इस बीच खूब यात्रायें हुई , खूब थकान और खूब काम व चाहा - अनचाहा आराम भी। इस बीच देश - दुनिया में खूब उथल - पुथल रही। बीती शाम टीवी पर समाचार देखते हुए  मुझे बरबस एक गाना याद आ गया : आधा है चन्द्रमा रात आधी ..। इसके साथ यह भी याद आया कि कितने - कितने दिन हो गए कायदे से गाना सुने हुए , साझा किए हुए और तसव्वुरे जानां किए हुए... और यह भी कि लिखत - पढ़त का काम भी इस बीच बिल्कुल हुआ ही नहीं। कई मित्रों से वादा था कि उन्हें कुछ  भेजना है  लेकिन स्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि  हो न सका..खैर..ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन से काम बंद है...! 

कब होता है मनचाहा
कब खुलती है 
नदी की धार में  अपनी - सी नाव
कब थमता है
अपने इशारों पर  समय का बहाव..

आज इतवार है। आज छुट्टी का दिन है। आज सुबह से सब आराम से चल रहा है। आज कुछ पढ़ा और अपनी पसंद का संगीत सुना भी।शाम को बेमकसद आवारगी भी की। आवारगी और बेमकसद...! आज रेशमा जी को सुना। रेशमा की आवाज मानो रेत के वन में एक करुण पुकार...। यह वही आवाज है जो आज से कई दशक पहले  सुनी थी पहली बार.. चार दिनाँ दा प्यार ओ रब्बा... और  लगातार कई - कई  रूपों में आती रही है अब तक। इब्ने इंशा की शायरी  मेरे हमदम मेरे दोस्त  की  तरह सगी - साथी है क्योंकि वह अपने मिजाज के साथ साधारणीकृत  होती लगती है। आज इस ठिकाने के विराम को अपने पसंदीदा शायर के शब्द और पसंदीदा आवाज की मलिका के स्वर से तोड़ने का मन है। आइए पढ़ते - सुनते हैं यह ग़ज़ल..शब्द इब्ने इंशा के और स्वर रेशमा जी का : 


देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ।
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियाँ।

अहले वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियाँ।
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ।

ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी,
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियाँ।

अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों,
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियाँ।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

मन न भए दस बीस

पिछले सप्ताह अपनी  पाँच कवितायें  'एक सीधी लकीर' शीर्षक से 'असुविधा' पर आई हैं। उनमें से दो को यहाँ आज सबके साथ साझा करने का मन  हुआ है। और क्या कहूँ...

०१- निरगुन

सादे कागज पर
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर।

दो लकीरों के बीच
इतनी सारी जगह
कि समा जाए सारा संसार।
नामूल्लेख के लिए
इतना छोटा शब्द
कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार।

एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर
शायद इसी के गुन गाते हैं
अपने निरगुन में सतगुरु कबीर।

०२- उलटबाँसी

दाखिल होते हैं 
इस घर में
हाथ पर धरे
निज शीश।

सीधी होती जाती हैं
उलझी उलटबाँसियाँ
अपनी ही कथा लगती हैं 
सब कथायें।
जिनके बारे में 
कहा जा रहा है
कि 'मन न भए दस बीस'।
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शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

बीते दिनों का अनबीता बयान

'बीतता कुछ भी नहीं है' ...यह निर्मल वर्मा कहते हैं और यह भी कि 'समय वहाँ - वहाँ है , जहाँ - जहाँ हम बीते हैं।'  फिर भी 'अपनी दुनिया' की  प्रचलित शब्दावली  में कहूँ तो बीते  दिनों की 'दूसरी दुनिया'  को याद करते हुए आज  कुछ कवितायें प्रस्तुत हैं :


०१- स्मृति

वह शहर
जहाँ एक झील थी
सतत रंग बदलती हुई।

यह शहर
जहाँ एक झील है श्वेत श्याम
स्मृतियों में जज्ब।

०२- अलबम

तस्वीरों में दिखतें है
चेहरे तमाम
याद आते हैं कुछ के नाम।

कुछ बेनाम
और कुछ ऐसे भी
जिनके लिए खोज न सका
अब तक कोई नाम।

०३- डायरी

कुछ शब्द
कुछ रेखायें
और ढेर सारा हाशिया।

बीते दिनों का
अनबीता बयान
एक संग्रहालय
स्वयं का स्वयं के लिए।


०४- टाइपराइटर

उदित होता था
एक जादू
जाना - पहचाना।

उंगलियाँ रखतीं थीं
कुंजीपटल पर अपने निशान
और कागज पर
उभरता जाता था अंत:साक्ष्य।

०५- चिठ्ठी

एक समय की बात

सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति
हुआ करता था डाकिया
और उसका थैला
मानो जादुई चिराग।
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रविवार, 3 जुलाई 2011

सतत रक्तस्रावित पाटल - सदृश निज हृदय

ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का ( २१ अक्टूबर १९२१ - १८ अप्रेल १९४२  ) की कुछ कवितायें आप  यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं। आधुनिक पोलिश कविता के बड़े नामों  से अलग यह एक ऐसा नाम है जिसके बारे में जानकारी प्राय: अल्प है। नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत  तरीके  से प्रतिरोध की मुहिम में संलग्न रही। अवैधानिक घोषित किए गए पत्र  'पोलैंड लाइव्स'  के वितरण के काम  को उसने अंजाम दिया। ८ मई १९४१ को  उसे गिरफ़्तार विशेष रूप से स्त्री बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया। वहीं १८ अप्रेल १९४२ को  अन्य ११ स्त्री बंदियों के साथ फायरिंग स्क्वाड द्वारा मृत्य की ओर धकेल  दिया गया।रावेन्सब्रुक  के बंदी जीवन के दौरान ग्राज़्यना  क्रोस्तोवस्का ने  कवितायें लिखी थीं जिनमें से कुछ का प्रसारण १९४३ में कैंप के मुताल्लिक एक समाचार में  बीबीसी से हुआ था। मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन जीने वाली इस कवयित्री की कविताओं से गुजरते हुए साफ लगता है कि वह तो अभी ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु:ख और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी आ गई। इस युवा कवि की कविताओं में सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और तन्हाई से उपजी की तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। आइए आज साझा करते हैं ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का  की दो कवितायें :



दो कवितायें : ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- स्वप्न

एक स्वप्न हुआ करता था मेरे पास
जिसमें तुम बाँच रहे होते थे अपनी कवितायें  
जैसे कि वे लिखे गए हों
किसी व्यतीत समय में।
जैसे कि वे दर्ज हों
मृत्यु के बाद  किसी भूरी पोथी में।

तुम नजर आते जाते हो
और महीन
और पीले
और लघुकाय
अंतत: हो जाते हो अदृश्य।

सबसे आखीर में
गायब होते हैं तुम्हारे हाथ
और बिना किसी नुकसान के
बची रह जाती हैं कवितायें।

और कविताओं की काया में
बचा रहता है किसी का हृदय।

०२- गवाक्ष के उस पार

उन्मुक्त - आह्लादित अंधड़ के बीच
पवन दोलायमान है
गवाक्ष के उस  पार।
लेकिन सलाखों के पीछे
कम से कम
इसे तुम सुन तो  सकते हो।

जीवन :  जरा सोचो
मात्र बीस बरस के वयस का  जीवन
और अपनी रातों के स्वप्न
डूबते जा रहे हैं लगातार
अभी तक :  कुछ नहीं
कैसा दिखाई देगा संसार
जिसे देखते चले आए थे हम?

मैं छिपाती हूँ
दुख में डूबा
सतत रक्तस्रावित पाटल - सदृश निज हृदय
लेकिन अगर हृदय हो  खाली
तो क्या होना चाहिए मुझे पछतावा?
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( मेरे द्वारा अनूदित ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कुछ कवितायें  कोलकाता  से सद्य: प्रकाशित  कविता केंद्रित पत्रिका  'अक्षर'  के प्रवेशांक में प्रकाशित हुई  हैं )
 

शनिवार, 25 जून 2011

सितारों को सब पता है

पिछले कुछ महीनों से  लिखना - पढ़ना बहुत कम हुआ है। संगीत सुनना तो बहुत ही कम। बाहर बरामदे में बैठकर पेड़ - पौधों से बतियाना भी लगता है कि शायद इतिहास की बात हो। इधर गर्मी खूब पड़ रही है, खूब पसीना आ रहा है ;टपकता , चिन- चिन करता पसीना। लेकिन आज सुबह से फुरसत नसीब हुई है।झपकी ली, हल्की बारिश को देखा, निरुद्देश्य छत पर गया, कुछ पढ़ा , कुछ सुना और अब कुछ लिखा है - कविता के शिल्प में। आइए इसे देखें साझा करें...ये दो कवितायें..



तलाश -१

दूर तक जाते हैं दु:ख के तार
वहाँ भी
जहाँ हम नहीं होते साकार।

धुँधलके में कौंधता है
एक चेहरा अस्पष्ट
उधड़ती चली जाती हैं
रहस्य की तमाम सीवनें
और प्रकट होने लगता है एक अस्तित्व।

बात - बतकही की कामना से
भरी होती है हृदय की सुराही
फिर भी
गले में अटक जाती है कोई फाँस
और छलक नहीं पाता है
शब्दों का सादा जल।

इसी पृथ्वी पर
मैं हूँ और तुम भी
यहीं स्थापित है हमारा यथार्थ
और यहीं
पगलाए हिरन - सा
अनवरत दौड़ रहा है कोई स्वप्न।

हथेलियों की सतह पर
कोई अक्स उभरता है बार - बार
दु:ख उन्हें दुलारता है
और घटता जाता है
दूरियों का अंबार।

तलाश -२

रात में बात करते हैं सितारे
उन्हें सब पता है
किस्से हमारे - तुम्हारे।

वे सुनाते हैं
सदियों पुरानी कथायें
दिखाते हैं
कई प्रकाशवर्ष दूर के दृश्य
और खोज लाते हैं
वे गुमशुदा शिलायें भी
जिन पर कभी  बड़े जतन से
उकेरा गया था कोई नाम।

सितारों को सब पता है
उनके लिए कुछ भी नहीं है गोपनीय
दिक्काल  की सीमाओं के आरपार
बनी रहती है उनकी आवाजाही
तभी तो
नजूमियों और प्रेमियों को
खूब भाता है उनका सानिध्य।

चाँद की लालटेन थामे
हम अब भी गिनते हैं सितारे
क्योंकि वे जानते हैं
किस्से हमारे - तुम्हारे।
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( पेंटिंग : मरीना पेत्रो )


शनिवार, 18 जून 2011

कागज और मोमिया रंग : निज़ार क़ब्बानी की कवितायें

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) की कविताओं के मेरे किए अनुवाद आप 'कर्मनाशा' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। मुझे खुशी है कि सीरिया के इस बड़े कवि को हिन्दी  कविता के प्रेमियों की बिरादरी में पसंद किया गया है। एक पाठक की हैसियत से मुझे बस इतना  भर कहना है  कि  प्रेम का यह अमर गायक  साधारणता  को साधारणता में ही उदात्त बनाता है ; वह भी इसी दुनिया में  , इसी दुनिया के इंसानों की बोली बानी और कहने  के अंदाज में। आइए आज  साझा करते हैं उनकी चार कवितायें :


निज़ार क़ब्बानी की चार कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- ज्यामिति

मेरे जुनून की चौहद्दियों के बाहर
नहीं है
तुम्हारा कोई वास्तविक समय।

मैं हूँ तुम्हारा समय
मेरी बाँहों के दिशासूचक यंत्र के बाहर
नहीं हैं तुम्हारे स्पष्ट आयाम।

मैं हूँ तुम्हारे सकल आयाम
तुम्हारे कोण
तुम्हारे वृत्त
तुम्हारी ढलानें
और तुम्हारी सरल रेखायें।

०२- पुरुष -  प्रकृति

किसी स्त्री को प्यार करने के लिए
एक पुरुष को चहिए होता है
एक मिनट

और
उसे भूल जाने के लिए
शताब्दियाँ।

०३- कप और गुलाब

कॉफीहाउस में गया
यह सोचकर
कि भुला दूँगा अपना प्यार
और दफ़्न कर दूँगा सारे दु:ख।

किन्तु
तुम उभर आईं
मेरी कॉफी कप के तल से
एक सफेद गुलाब बनकर।

०४- बालपन के साथ

आज की रात
मैं  नहीं रहूँगा तुम्हारे साथ
मैं नहीं रहूँगा किसी भी स्थान पर।

मैं ले आया हूँ बैंगनी पाल वाले जलयान
और ऐसी रेलगाड़ियाँ
जिनका ठहराव
नियत है केवल तुम्हारी आँखों के स्टेशनों पर।

मैंने तैयार किए हैं
कागज के जहाज
जो उड़ान भरते हैं प्यार की ऊर्जा से।

मैं ले आया हूँ
कागज और मोमिया रंग
और तय किया है
कि व्यतीत करूँगा संपूर्ण रात्रि
अपने बालपन के साथ।

बुधवार, 15 जून 2011

बाबा नागार्जुन की 'पंचायती डायरी' का एक पृष्ठ


आज ज्येष्ठ पूर्णिमा है। आज की शाम पूरब के आसमान में  पूरा - पूरा गोल - गोल चाँद दिखाई दे रहा है। आज की ही रात काफी लंबा चंद्रग्रहण होगा। आज कैलेन्डर बता रहा है कि कबीर जयन्ती है। कबीर की कविता और उनके किस्से बचपन से सुनता आ रहा हूँ। आज ही नागार्जुन की जन्मशती है। नागार्जुन हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार  यानि बाबा नागार्जुन ; जिनकी जन्मशती हिन्दी पट्टी में खूब जोर - शोर से मनाई जा रही है। आज शाम को अपने निवास पर एक गोष्ठी करने का मन था किन्तु कुछ अपरिहार्य व्यस्तताओं और तबीयत थोड़ी ढीली होने के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा है। नागार्जुन - जन्मशती के आयोजनों के क्रम में ५ और ६ जून २०११ को रामगढ़ ,नैनीताल स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'नागार्जुन और समकालीन हिन्दी लेखन' शीर्षक कार्यक्रम में भाग लेकर  लौटा हूँ। इस आयोजन में बहुत सारे लोगों ने व्याख्यान दिया , बाबा के संस्मरण सुनाए और उनकी कविताओं का पाठ किया। सृजन पीठ के निदेशक प्रो० बटरोही के निर्देशन में संपन्न यह एक सादा और गरिमापूर्ण कार्यक्रम रहा। उद्घाटन सत्र के अतिरिक्त यह आयोजन तीन सत्रों 'नागार्जुन एवं समकालीन हिन्दी लेखन' , 'नागार्जुन की याद' और 'उत्तराखंड के रचनाकारों का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य' में बँटा था। सभी सत्र बढ़िया तरीके से संचालित व संपन्न हुए किन्तु आज  मैं दूसरे सत्र 'नागार्जुन की याद' का उल्लेख खास तौर पर करना  चाहता हूँ। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो० वाचस्पति ने की उन्होंने  बाबा की 'पंचायती डायरी'  की चुनिन्दा प्रविष्टियों को पहली बार हिन्दी की लिखने - पढ़ने वाली बिरादरी के सामने  प्रस्तुत किया। 'पंचायती डायरी'  का किस्सा यह है कि  किसी समय बाबा को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने एक नई नकोर एक्ज्क्यूटिव डायरी भेंट की थी जो उन्होंने वाचस्पति जी को  सौंप दी । जब वे जहरीखाल, काशीपुर और खटीमा में वाचस्पति जी के साथ रहने के लिए आते थे तो इसमें कुछ - कुछ लिखा करते थे और वहाँ आने - जाने - ठहरने वाले सभी लोगों  को छूट थी कि वे इस डायरी में लिख सकते थे। धीरे- धीरे यह एक पंचायती डायरी बन गई जो अभी वाचस्पति जी के पास सुरक्षित है। रामगढ़ में जब इसका खुलासा हुआ तो यह हम सबके लिए एक 'एक्स्क्लूसिव' खबर थी और आज जब देश - दुनिया में नागार्जुन जन्मशती की धूम है तो निश्चित रूप से इसका प्रकाशन होना जल्द होना चहिए। रामगढ़ में मैंने अपने मोबाइल कैमरे से इस डायरी के एक पृष्ठ की फोटो खींच ली थी जिस पर बाबा ने एक कविता लिखी है। आज नागार्जुन जन्मशती  के मौके पर 'जनता के कवि' के प्रति नमन  सहित इस अप्रकाशित कविता को 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों के लिए  यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ :

देर तक झुका रहा

देर तक झुका रहा
अपनी परछाईं देखता रहा देर तक
उसके अन्दर
झु
का

हा

देर तक...

अगले ही क्षण
नदी गायब थी
वो झरना
हो
थी !

सोमवार, 13 जून 2011

हम अवतरित हुए हैं एकान्त और चमत्कार से



इस बीच पिछले दो - ढाई महीनों से काम के आधिक्य और यात्राओं के चलते लिखना - पढ़ना, संगीत सुनना - सुनाना बहुत कम ही हो सका। यात्राओं में कुछ ऐसी किताबें पढ़ डालीं जिनको पढ़ा जाना काफी लंबे समय से टल रहा था। स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए दो - चार अनुवाद भी कर डाले। इधर खूब गर्मी झेली और ठंड का भी खूब आनंद लिया। अल्मोड़ा, जागेश्वर, मुक्तेश्वर,रामगढ़ की सर्दी का आनंद लेते हुए व लखनऊ , सतना , दिल्ली और बिलासपुर की तपन और उमस को झेलते हुए बार - बार अरुणाचल को याद किया जहाँ प्राय: दो ही मौसम देखे मैंने - जाड़ा और बरसात। आजकल मेरे लिए अरुणाचल को याद करना वहाँ बिताये अपने जीवन के साढ़े आठ बरसों के साथ ममांग दाई की कविताओं को भी याद करना होता है। आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी ये कवितायें :


ममांग दाई की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- जन्म स्थान

हम बारिश के बच्चे हैं
बादल - स्त्री की संतान
पाषाणों के सहोदर
पले है बाँस और गुल्म के पालने में
अपनी लंबी बखरियों में
हम शयन करते हैं
जब आती है सुबह तो पातें है स्वयं को तरोताजा।

हमारी उपत्यका में
कोई नहीं अजनबी - अनचीन्हा
तत्क्षण प्रकट हो जाता है परिचय
हम बढ़ते जाते है वंश दर वंश।
बहुत साधारण है हमारा प्रारब्ध।
किसी हरे अँखुए की तरह
अपनी दिशा में तल्लीन
हम अग्रसर होते हैं अपने पथ पर
जैसे चलते हैं सूर्य और चंद्र।

जल की पहली बूँद ने
जन्म दिया मनुष्य को
और रक्तिम आच्छद से हरित तने तक
विस्तारित करता रहा समीरण।

हम अवतरित हुए हैं
एकान्त और चमत्कार से।

०२- मुझे चाहिए

मेरे प्रियतम
मुझे चाहिए
प्रात:काल का महावर
मुझे चाहिए
ढलती दोपहर की स्वर्णिम सिकड़ी
मुझे चाहिए
चन्द्रमा की पायल
ताकि मैं नृत्य कर सकूँ
पुन: तुम्हारे संग।

मुझसे साझा करो
अपने हृदयंगम रहस्य
अपनी साँसें दो मुझे
फिर से।
कथायें सुनाओ मुझे मानवीय भूलों की
और बतलाओ
कि क्यों परिवर्तित नहीं होता है प्रतिबिंब।

गुरुवार, 2 जून 2011

चाँद और साइकिल : दो कवियों का शहरनामा

शहरनामा लिखने की वैसी सुदीर्घ और प्रौढ़ परम्परा के दर्शन हिन्दी में नहीं होते हैं जैसी कि वह उर्दू साहित्य में दिखाई देती है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी साहित्य में 'नगर शोभा वर्णन' के संदर्भ-प्रसंग नहीं हैं और न ही यह कि नगरों-शहरों की स्मृति - विस्मृति में हिन्दी वालों ने कोई कम आंसू बहाए हैं फिर भी पहली नजर में ऐसा लगता है कि शहर दर शहर भटकने, उजड़ने, बसने, बिखरने और बनने की जो जद्दोजहद आरम्भ से ही उर्दू भाषा और साहित्य से जुड़े तमाम घटकों के अनुभव जगत का यथार्थ बनी लगभग वैसा ही 'कितने शहरों में कितनी बार' का वाकया या हादसा हिन्दी के हिस्से में शायद कम आया है। अपनी पुस्तक 'उर्दू भाषा और साहित्य' में काव्य-शास्त्र संबंधी कुछ बातों का उल्लेख करते हुए फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं- 'शहर आशोब (में) किसी शहर के उजड़ने या बरबाद हो जाने पर उसके पुराने वैभव को दुःख के साथ याद किया जाता है। इस प्रकार की कविता अत्यन्त मार्मिक होती है'उर्दू काव्य में शहरे-चराग़ां, शहरे-ख़ामोशां, शहरे-आरजू वगैरह का न केवल जिक्र आया है या कि किसी शहर के तसव्वुर में फकत 'वाह्-वाह् या 'हाय-हाय' ही की गई है बल्कि उसके समुचित वैविध्य,विस्तार और वर्णन के साथ यादगार कलात्मक प्रस्तुति भी की गई है। नास्टैल्जिया शहरनामे का केन्द्रीय सूत्र है जिसके रेशे-रेशे को उधेड्ना ही उसे दोबारा बुनना है। महाकवि ग़ालिब के शब्दों में कहें तो यह 'जले हुए जिस्म और दिल की जगह की राख को कुरेदने की जुस्तजू' है। शहरनामा न तो संस्मरण है और न ही यात्रा वृतांत अपितु मुझे लगता है कि यह किसी खास शहर से जुड़ी स्मृतियों के कबाड़खाने को खंगालते हुए एक-एक चीज को उलट-पुलट कर जस का तस रख देने का कलात्मक कारनामा है।



'चाँद तो अब भी निकलता होगा' राही मासूम रज़ा की एक तवील नज़्म है जिसे राही का 'शहरनामा अलीगढ़' भी कहा जा सकता है। वही अलीगढ़ , वही राही का 'शहरे-तमन्ना' जिसकी गोद में अवस्थित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को उन्होंने दूसरी माँ का दर्जा दिया है। गंगौली,गाजीपुर और अलीगढ़ राही के व्यक्तित्व - निर्माण की उर्वर भूमि हैं। अलीगढ़ में उन्होंने 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' शीर्षक से परमवीर अब्दुल हमीद की जीवनी लिखी,'आधा गांव' जैसा कालजयी उपन्यास लिखा और अपने 'पूरे दोस्त कुंवर पाल सिंह' को समर्पित किया। इसी अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया और यह वही अलीगढ़ है जिसके 'कूए यार' से रुस्वा होकर उन्हें बंबई या मुंबई के 'सूए दार, की जानिब चलना पड़ा जहां फिल्मी दुनिया के चकाचौंध में अपनी कलम के बूते अपनी एक सम्मानित जगह बनाकर रहते हुए भी वे निरंतर अपने शहरे-तमन्ना को याद करते रहे। प्रस्तुत हैं राही मासूम रज़ा की तवील नज़्म 'चाँद तो अब भी निकलता होगा' के कुछ चयनित अंश : 

*
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग !
*
जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है !
*
कौन आया है मियां खाँ की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहाँ
सुबह होती है कहाँ
शाम कहाँ ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है !
*
चाँद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम !



राही मासूम रज़ा के महाकाव्य '१८५७' (बाद में 'क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित) की भूमिका 'गीतों का राजकुमार' कहे जाने वाले नीरज ने लिखी थी। कवि सम्मेलनों ,किताबों, कैसेटों के माध्यम से हिन्दी कविता को आम आदमी की जुबान तक पहुंचाने वाले कवि नीरज ने अपार लोकप्रियता हासिल की है। वे कविता की लोकप्रियता के जीवित कीर्तिमान है लेकिन उनकी यही लोकप्रियता हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि में 'शाप' बन गई । 'लोकप्रियता बनाम साहित्यिकता' के मुद्दे को हिन्दी के साहित्यिक विमर्श का विषय कभी बनने ही नहीं दिया गया और यदि कभी ऐसा हुआ भी तो उस पर कोई गंभीर चर्चा शायद ही कभी हुई हो । हां, 'पापुलर कल्चर' के अध्येता अब इस पर बात जरूर कर रहे हैं। राही अलीगढ़ छोड़कर मुंबई गये और नीरज कानपुर छोड़कर अलीगढ़ आ गए। राही फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाकर वहीं के हो गये और नीरज फिल्मी दुनिया का फेरा कर "कारवां गुजर गया गुबार देखते' हुए अलीगढ़ लौट आए पर कानपुर को भूल नहीं पाए। अपने शहरे तमन्ना को कोई भूलता है भला ! प्रस्तुत हैं नीरज के शहरनामा 'कानपुर के प्रति' के कुछ चयनित अंश :

*
कानपुर ! आह!आज तेरी याद आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है
आंख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिये
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है।
*
और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कालिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको
मेरी बगिया की हवा जो तू उधर से गुजरे
कुछ भी कहना न,बस सीने से लगाना उसको।
*
बात यह किन्तु सिर्फ जानती है 'मेस्टन रोड'
ट्यूब कितने कि मेरी साइकिल ने बदले हैं
और 'चित्रा' से जो चाहो तो पूछ लेना यह
मेरी तस्वीर में किस किसके रंग धुंधले हैं।
*
शोख मुस्कान वही और वही ढीठ नजर
साथ सांसों के यहां तक रे! चली आई है
तीन सौ मील की दूरी भी कोई दूरी है
प्रेम की गांठ तो मरके भी न खुल पई है।
*
कानपुर ! आज जो देखे तू अपने बेटे को
अपने 'नीरज' की जगह लाश उसकी पायेगा
सस्ता कुछ इतना यहाँ मैंने खुद को बेचा है
मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जायेगा।