शहरनामा लिखने की वैसी सुदीर्घ और प्रौढ़ परम्परा के दर्शन हिन्दी में नहीं होते हैं जैसी कि वह उर्दू साहित्य में दिखाई देती है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी साहित्य में 'नगर शोभा वर्णन' के संदर्भ-प्रसंग नहीं हैं और न ही यह कि नगरों-शहरों की स्मृति - विस्मृति में हिन्दी वालों ने कोई कम आंसू बहाए हैं फिर भी पहली नजर में ऐसा लगता है कि शहर दर शहर भटकने, उजड़ने, बसने, बिखरने और बनने की जो जद्दोजहद आरम्भ से ही उर्दू भाषा और साहित्य से जुड़े तमाम घटकों के अनुभव जगत का यथार्थ बनी लगभग वैसा ही 'कितने शहरों में कितनी बार' का वाकया या हादसा हिन्दी के हिस्से में शायद कम आया है। अपनी पुस्तक 'उर्दू भाषा और साहित्य' में काव्य-शास्त्र संबंधी कुछ बातों का उल्लेख करते हुए फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं- 'शहर आशोब (में) किसी शहर के उजड़ने या बरबाद हो जाने पर उसके पुराने वैभव को दुःख के साथ याद किया जाता है। इस प्रकार की कविता अत्यन्त मार्मिक होती है'। उर्दू काव्य में शहरे-चराग़ां, शहरे-ख़ामोशां, शहरे-आरजू वगैरह का न केवल जिक्र आया है या कि किसी शहर के तसव्वुर में फकत 'वाह्-वाह् या 'हाय-हाय' ही की गई है बल्कि उसके समुचित वैविध्य,विस्तार और वर्णन के साथ यादगार कलात्मक प्रस्तुति भी की गई है। नास्टैल्जिया शहरनामे का केन्द्रीय सूत्र है जिसके रेशे-रेशे को उधेड्ना ही उसे दोबारा बुनना है। महाकवि ग़ालिब के शब्दों में कहें तो यह 'जले हुए जिस्म और दिल की जगह की राख को कुरेदने की जुस्तजू' है। शहरनामा न तो संस्मरण है और न ही यात्रा वृतांत अपितु मुझे लगता है कि यह किसी खास शहर से जुड़ी स्मृतियों के कबाड़खाने को खंगालते हुए एक-एक चीज को उलट-पुलट कर जस का तस रख देने का कलात्मक कारनामा है।
'चाँद तो अब भी निकलता होगा' राही मासूम रज़ा की एक तवील नज़्म है जिसे राही का 'शहरनामा अलीगढ़' भी कहा जा सकता है। वही अलीगढ़ , वही राही का 'शहरे-तमन्ना' जिसकी गोद में अवस्थित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को उन्होंने दूसरी माँ का दर्जा दिया है। गंगौली,गाजीपुर और अलीगढ़ राही के व्यक्तित्व - निर्माण की उर्वर भूमि हैं। अलीगढ़ में उन्होंने 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' शीर्षक से परमवीर अब्दुल हमीद की जीवनी लिखी,'आधा गांव' जैसा कालजयी उपन्यास लिखा और अपने 'पूरे दोस्त कुंवर पाल सिंह' को समर्पित किया। इसी अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया और यह वही अलीगढ़ है जिसके 'कूए यार' से रुस्वा होकर उन्हें बंबई या मुंबई के 'सूए दार, की जानिब चलना पड़ा जहां फिल्मी दुनिया के चकाचौंध में अपनी कलम के बूते अपनी एक सम्मानित जगह बनाकर रहते हुए भी वे निरंतर अपने शहरे-तमन्ना को याद करते रहे। प्रस्तुत हैं राही मासूम रज़ा की तवील नज़्म 'चाँद तो अब भी निकलता होगा' के कुछ चयनित अंश :
*
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग !
*
जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है !
*
कौन आया है मियां खाँ की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहाँ
सुबह होती है कहाँ
शाम कहाँ ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है !
*
चाँद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम !
राही मासूम रज़ा के महाकाव्य '१८५७' (बाद में 'क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित) की भूमिका 'गीतों का राजकुमार' कहे जाने वाले नीरज ने लिखी थी। कवि सम्मेलनों ,किताबों, कैसेटों के माध्यम से हिन्दी कविता को आम आदमी की जुबान तक पहुंचाने वाले कवि नीरज ने अपार लोकप्रियता हासिल की है। वे कविता की लोकप्रियता के जीवित कीर्तिमान है लेकिन उनकी यही लोकप्रियता हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि में 'शाप' बन गई । 'लोकप्रियता बनाम साहित्यिकता' के मुद्दे को हिन्दी के साहित्यिक विमर्श का विषय कभी बनने ही नहीं दिया गया और यदि कभी ऐसा हुआ भी तो उस पर कोई गंभीर चर्चा शायद ही कभी हुई हो । हां, 'पापुलर कल्चर' के अध्येता अब इस पर बात जरूर कर रहे हैं। राही अलीगढ़ छोड़कर मुंबई गये और नीरज कानपुर छोड़कर अलीगढ़ आ गए। राही फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाकर वहीं के हो गये और नीरज फिल्मी दुनिया का फेरा कर "कारवां गुजर गया गुबार देखते' हुए अलीगढ़ लौट आए पर कानपुर को भूल नहीं पाए। अपने शहरे तमन्ना को कोई भूलता है भला ! प्रस्तुत हैं नीरज के शहरनामा 'कानपुर के प्रति' के कुछ चयनित अंश :
*
कानपुर ! आह!आज तेरी याद आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है
आंख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिये
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है।
*
और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कालिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको
मेरी बगिया की हवा जो तू उधर से गुजरे
कुछ भी कहना न,बस सीने से लगाना उसको।
*
बात यह किन्तु सिर्फ जानती है 'मेस्टन रोड'
ट्यूब कितने कि मेरी साइकिल ने बदले हैं
और 'चित्रा' से जो चाहो तो पूछ लेना यह
मेरी तस्वीर में किस किसके रंग धुंधले हैं।
*
शोख मुस्कान वही और वही ढीठ नजर
साथ सांसों के यहां तक रे! चली आई है
तीन सौ मील की दूरी भी कोई दूरी है
प्रेम की गांठ तो मरके भी न खुल पई है।
*
कानपुर ! आज जो देखे तू अपने बेटे को
अपने 'नीरज' की जगह लाश उसकी पायेगा
सस्ता कुछ इतना यहाँ मैंने खुद को बेचा है
मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जायेगा।