इस ठिकाने पर आप पिछली शताब्दी की पोलिश कविता के कुछ चुनिन्दा अनुवादों से रू-ब-रू हो चुके हैं। इसी क्रम में आज एक ( और) पोलिश कवयित्री अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का ( १९०९ - १९८४ ) की कुछ कवितायें पढ़वाने का मन है। पोलैंड इस कवयित्री को नाम 'अन्ना स्विर' जैसे छोटे नाम से भी जाना जाता है। उन्नीस बरस की उम्र से अन्ना की कवितायें छपने लगी थीं और दूसरे विश्वयुद्ध के समय वह पोलिश प्रतिरोध आन्दोलन से जुड़कर नर्स के रूप में उपचार सेवा कार्य तथा भूमिगत प्रकाशनों से भी सम्बद्ध रहीं। बाहरी दुनिया के कविता प्रेमियों से अन्ना का परिचय करवाने में 1980 में साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार प्राप्त करने वाले मशहूर पोलिश कवि, निबंधकार व अनुवादक चेस्लाव मिलेश की भी बड़ी भूमिका रही है। अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की कविताओं में स्त्री देह ( व मन ! ) , मातृत्व, दैहिकता व युद्ध के अनुभव जगत की विविध छवियाँ विद्यमान दिखाई हैं जिनसे गुजरना एक अलग तरह का अनुभव है। आइए , आज देखते पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायें...
अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की दो कवितायें
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )
०१- समुद्र और आदमी
समुद्र को तुम नहीं कर सकते वश में
चाहे फुसला कर
या फिर खुश होकर।
लेकिन तुम हँस तो सकते ही हो
उसकी शक्ल पर।
हँसी एक चीज है
उनके द्वारा खोजी गई
जिन्होंने एक लघु जीवन जिया
हँसी के उफान की तरह।
यह अनन्त समुद्र
कभी नहीं सीख पाएगा
हँसना।
०२- खुशनसीब था वह
बूढ़ा आदमी
घर से निकल पड़ता है किताबें थामे।
एक जर्मन सिपाही
छीन लेता है उसकी किताबें
और उछाल देता है कीचड़ में।
बूढ़ा आदमी समेटता है उन्हें
उसके मुँह पर
मुक्का मारता है सिपाही
लुढ़क जाता है बूढ़ा आदमी
और उसे लतिया कर भाग जाता है सिपाही ।
कीचड़ और खून में
लथपथ लेटा है बूढ़ा आदमी
वह महसूस कर रहा है अपने नीचे
किताबों का स्पन्दन।