गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

समुद्र , हँसी और किताबों का स्पन्दन : अन्ना स्विर

इस ठिकाने पर आप पिछली शताब्दी की पोलिश कविता के कुछ चुनिन्दा अनुवादों से रू-ब-रू हो चुके हैं। इसी क्रम में आज एक ( और) पोलिश कवयित्री अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का ( १९०९ - १९८४ ) की कुछ कवितायें पढ़वाने का मन है। पोलैंड इस  कवयित्री को  नाम  'अन्ना स्विर' जैसे छोटे नाम से भी जाना जाता है। उन्नीस बरस की उम्र से अन्ना की कवितायें छपने लगी थीं और दूसरे विश्वयुद्ध के समय वह पोलिश प्रतिरोध आन्दोलन से जुड़कर नर्स के रूप में उपचार सेवा कार्य  तथा  भूमिगत प्रकाशनों से भी सम्बद्ध रहीं। बाहरी दुनिया के कविता प्रेमियों से अन्ना का परिचय  करवाने में 1980 में साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार प्राप्त  करने वाले  मशहूर पोलिश कवि, निबंधकार व अनुवादक चेस्लाव मिलेश की भी बड़ी भूमिका रही है। अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की कविताओं में स्त्री देह ( व मन ! ) , मातृत्व, दैहिकता व युद्ध के अनुभव जगत की विविध छवियाँ विद्यमान दिखाई हैं जिनसे गुजरना एक अलग तरह का अनुभव है। आइए , आज देखते पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायें... 


अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की दो कवितायें
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )

०१- समुद्र और आदमी


समुद्र को तुम  नहीं कर सकते वश में
चाहे फुसला  कर
या फिर खुश होकर।
लेकिन तुम हँस तो सकते ही हो
उसकी शक्ल पर।

हँसी एक चीज है
उनके द्वारा खोजी गई
जिन्होंने एक लघु जीवन जिया
हँसी के उफान की तरह।

यह अनन्त समुद्र
कभी नहीं सीख पाएगा
हँसना।

०२- खुशनसीब था वह

बूढ़ा आदमी
घर से निकल पड़ता है किताबें थामे।
एक जर्मन सिपाही
छीन लेता है उसकी किताबें
और उछाल देता है कीचड़ में।

बूढ़ा आदमी समेटता है उन्हें
उसके मुँह पर
मुक्का मारता है सिपाही
लुढ़क जाता है बूढ़ा आदमी
और उसे लतिया कर भाग जाता है सिपाही ।

कीचड़ और खून में
लथपथ लेटा है बूढ़ा आदमी
वह महसूस कर रहा है अपने नीचे
किताबों  का स्पन्दन।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

हम एक ही सेब की दो समान फाँकें हैं


लिखत -पढ़त की साझेदारी के इस ठिकाने पर आप विश्व कविता के अनुवादों की सतत उपस्थिति से परिचित होते रहे हैं। इसी क्रम में आज बीसवी शताब्दी की तुर्की कविता के एक बड़े हस्ताक्षर ओक्ते रिफात ( १९१४ - १९८८) के रचना संसार की एक झलक से रू-ब- रू किया जाय। तुर्की  में 'नई 'कविता' आन्दोलन के इस प्रमुख रचनाकार  का विस्तृत जीवन परिचय तथा  कुछ और कवितायें जल्द ही । आज और अभी तो बस...
  

ओक्ते रिफात की दो कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


०१- कृतज्ञता ज्ञापन 

मुझे  कृतज्ञ होना चाहिए
अपने जूतों का
अपने कोट का।

मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
गिरती हुई बर्फ़ का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
आज का
आज के इस आनंदमय क्षण का।

मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
धरती और आकाश का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
उन सितारों का जिनका नाम भी  नहीं मालूम।

प्रार्थना करो
कि मैं बन जाऊँ पानी
कि मैं बन जाऊँ आग।

०२- पत्नी के लिए 

सभागारों में शीतलता व्याप रही है तुमसे
कोठरियों में
तुम्हारे साथ उतर आया है प्रकाश
तुम्हारे बिछावन में
आँख खोल रही है सुबह
ताकि शुरू  हो सके पूरे दिन भर की खुशी।

हम एक ही सेब की दो समान फाँकें हैं
एक ही हैं हमारे दिन और रात
एक ही हैं हमारे घर।

तुम्हारे कदम
जहाँ - जहाँ पड़ते हैं
वहाँ - वहाँ मुदित होकर बढ़ती जाती है घास
और जहाँ - जहाँ से
गुजर जाती हो तुम
वहाँ - वहाँ से दाखिल होने लगता है अकेलापन।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

रात बीतेगी अपने ही भँवर में डूबकर

The night is good fertile ground
for a sower of verses.
                      - Jorge Luis Borges
अभी रात है। आधी बीत चुकी ;आधी बीतने को बाकी ...तैयार। अभी  बस  कुछ  ही घंटे पहले तक शाम थी और अब से  बस कुछ ही घंटे बाद भोर होगी .. फिर सुबह , प्रात:काल। आजकल सुबह - सुबह कोहरा हो जाता है। सूरज उगने के बाद भी अपने ताप से गरमाता नहीं। रोशनी भी कुछ कम होती है। ऐसा लगता है कि दिन का कुछ हिस्सा भी गोया रात  का ही  विस्तार है। फिर भी दुनिया रोज बनती है , चलती है अपनी  ही रोजमर्रा की चाल। कामधाम हस्बमामूल चलता है। शाम जल्दी घिर आती है और एक मौका देती है कि दिन भर की टूट-फूट  की मरम्मत की जाय...बतियाया जाय खुद से.. ओह ! फिर से याद आ रही है Borges की...
I must enclose the tears of evening
in the hard diamond of the poem.

.....बहरहाल ,अभी रात अभी बाकी है, सुबह उठना है , समय से काम पर जाना है... और अभी , इस वक्त  ...सोने से पहले सात छोटी - छॊटी कवितायें..शीर्षकहीन ..आइए देखें..पढ़े ..



रात में बात : सात कवितायें
-

इच्छाओं के समुद्र में
उभ -चुभ
दिन और रात.

कहाँ है फुरसत
कब करें
खुद से मुलाकात ?


-

रात है
रात में है कोई बात।

दिन भर खोया रहा
जग में।
इस वक्त
अपने संग
अपना ही साथ।


३-

धूप हुई
उड़ गया
भाप बन पानी।

खुली हथेलियों में
बंद है
शायद कोई कहानी।

-

दिन चढ़ेगा
बढ़ेगा कुछ ताप।

निकलना होगा
घर से चुपचाप।
भाषाओं के जंगल में
अनसुना रह जाएगा
एकालाप।

-

शाम होगी
लौटना होगा बसेरे की ओर।

याद -सा करूँगा तुम्हें
और
अपनी ओर खींच - सी लेगी
कोई अदृश्य डोर।

-

यह कोई छाँव है
अदेखे पेड़ की
या कोई डेरा
कोई पड़ाव !

यह कोई घर है
या किसी नदी का तट
जहाँ रोज लौट आती है
हिचकोले खाती एक नाव !

-

बहुत चमकीला है
आज का चाँद
खिड़कियों से छनकर
आ रही है उजास।

रात बीतेगी
अपने ही भँवर में डूबकर
बना है
बना रहे यह अहसास।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

गुनगुनाती है कोई निरर्थक आवाज

Sand on the bottom whiter than chalk,
and the air drunk, like wine,
late sun lays bare
the rosy limbs of the pine trees.
                                 - Anna Akhmatova
अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खा़ना' पर पहले भी पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना  और विश्व कविता के प्रेमियों के  समक्ष रखना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए, न ही देर । सो ,आज एक बार फिर बिना किसी विस्तृत लिखत - पढ़त के प्रस्तुत है  उनकी एक  और कविता ......


अन्ना अख़्मातोवा की कविता
संध्या समय
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

उपवन का संगीत बजता है मेरे भीतर
और पूरित कर देता है अवर्णनीय उदासी से
उत्तरी समुद्रों से आने वाली तीखी हवा
बर्फ में जमी हुई सीपियों में
प्रवाहित कर देती है ताजेपन की सुवास.

मेरे गाउन की डोरियों को
आहिस्ते से स्पर्श कर
उसने कहा था " तुम हो मेरे सबसे अच्छे दोस्त"
आह , आलिंगन से कितनी अलग है
हाथों की यह हल्की - सी छुवन.

जैसे कि कोई पालतू बिल्ली
कोई चिड़िया
या घोड़ों को हाँकती हुई किसी लड़की को देखना
और जैसे
सुनहली बरौनियों के भीतर
शान्त थमी हुई हँसी जैसा कुछ - कुछ

सतह से लगभग चिपकी हुई बाड़ के पीछे से
गुनगुनाती है कोई निरर्थक आवाज -
" शुक्रिया , इस स्वर्गिक अनुभूति और आनन्द के लिए !
आज पहली बार
तुम्हें नसीब हुआ है अपने प्रियतम का संग - साथ."
----
( * अन्ना का पोर्टेट : ओल्गा देला -वोस-कार्दोवास्काया,१९१४ )



शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

नदी अपने आईने में अक्स देखेगी

...the river has water enough
to be poetic !


अभी एकाध दिन पहले अपने एक पसंदीदा ब्लॉग '...चाँद पुखराज का..' पर एक कविता पढ़ते हुए मशहूर भारतीय अंग्रेजी कवि ए.के.रामानुजन की कविता 'A River' की याद हो आई , उसे पढ़ लिया  तो इसी क्रम में केदार जी (केदारनाथ अग्रवाल) की कविता 'नदी आज उदास थी' की भी याद आई, उसे भी पढ़ा और ममांग दाई की 'River Poems' की कविताओं से भी खूब गुजरना  हो गया। यह सब तब हुआ जब अपने आसपास न तो कोई नदी थी और न ही उसमें प्रवाहित होने वाला जल। रात के एकांत में अपने घोंसले में  दुबककर बैठे एक पाखी की मानिंद संवाद व एलालाप करते एक कविता के बहाने कई - कई कविताओं की नदी बह चली। नवारुण भट्टाचार्य कहते हैं - 'आखिर एक अकेली कविता / मचा सकती है कितना कोलाहल' ,खैर कोलाहल मचा और 'तुमुल कोलाहल कलह में हृदय की बात' सुनते हुए उसी प्रवाह में  अपनी (भी)  यह कविता लिखी गई। आइए इसे  देखें...साझा करें..



नदी : राग विराग
                   ( सिद्धेश्वर सिंह )
नदी की
उदासी का हाल
बतायेंगी मछलियाँ
मछलियों की उदासी
प्रतिबिंबित होगी जल में - जाल में।

जाल की उदासी से
उदास हो जायेंगे मछुआरे
मछुआरों की उदासी
बाजार में भर देगी सन्नाटा।

जैसे - तैसे बीत जाएगा
एक अकेला दिन
शाम होगी उनींदी
रात उतरेगी चुप्पी से लबरेज
और आकाश के काले कैनवस पर
उभरने लगेगी उदास चाँद की पेंटिंग।

नदी अपने आईने में
अक्स देखेगी
अजनबी - सी लगेगी उसे अपनी पहचान।
खिन्न करेगा
मन:स्थिति का मारक विस्तार।

नदी उठेगी
निहारेगी अपने इर्दगिर्द
दुरुस्त करेगी अपने वाद्ययंत्र
अंजुरी भर जल पीकर
खँखारकर ठीक करेगी अपना रुँधा गला
और समय के रंगमंच पर
छेड़ देगी कोई नया राग।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

निज़ार क़ब्बानी : जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में....



I become ugly when I don't love
And I become ugly when I don't write.

निजार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) न केवल सीरिया में बल्कि साहित्य के समूचे अरब जगत में प्रेम , ऐंद्रिकता , दैहिकता और इहलौकिकता के कवि माने जाते हैं| उन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा , नई भाषा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ - मांस के स्त्री - पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस वजह से उनकी प्रशंसा भी हुई है और आलोचना भी किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने अपनी कविता के बल पर बहुत लोकप्रियता हासिल की है. तमाम नामचीन गायकों ने उनके काव्य को वाणी दी है. साहित्यिक संस्कारों वाले एक व्यवसायी परिवार में जन्में निजार ने दमिश्क विश्वविद्यालय से  विधि की उपाधि प्राप्त करने के बाद दुनिया के कई इलाकों में राजनयिक के रूप में अपनी सेवायें दीं जिनसे उनकी दृष्टि को व्यापकता मिली. उनके अंतरंग अनुभव जगत के निर्माण में  स्त्रियों की एक खास भूमिका रही है । चाहे वह मन चाहे पुरुष से विवाह  न कर पाने के कारण बहन विस्साल की आत्महत्या हो या बम धमाके में  पत्नी की मौत. 

Love me and say it out loud
I refuse that you love me mutely.

निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी जब वे सोलह साल के थे और इक्कीस बरस उम्र में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय  था और दुनिया के साथ अरब जगत का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई शक्ल ले रहा था। ऐसे में निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही उनकी लोकप्रियता का कारण बना। यह एक तरह से परम्परा से मुक्ति थी और अपनी दुनिया को अपनी ही आँखों से देखने हिमायत। यहा प्रेम एक 'टैबू' नहीं था और न ही कोई गैरदुनियावी चीज। वे लिखते हैं 'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ आता है जितनी स्वाभाविकता के साथ  कि सेब में मिठास आती है।'

Nothing protects us from death
Except woman and writing.

निजार कब्बानी  की कविताओं में में एक दैनन्दिन साधारणता है और देह से विलग होकर देह की बात किए  जाने की चतुराई जैसा छद्म नैतिक आग्रह भी नहीं है। उन पर दैहिकता और इरोटिसिज्म को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया गया. खैर वे लगातार लिखते रहे - मुख्यतरू कविता और गद्य भी। उनकी कविता साहित्य और  संगीत की जुगलबन्दी की एक ऐसी सफल - सराहनीय  कथा है जो  रीझने को मजबूर तो करती ही  है , रश्क भी कम पैदा नहीं करती। तभी तो लम्बे अरसे तक एक सफल राजनयिक के रूप में सेवायें देने के बाद जब लंदम में उनकी मृत्यु हुई तो तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपनी निजी विमान उनक्के पार्थिव शरीर को लाने के लिए लंदन भेजा और 'लंदन टाइम्स' ने उन्हें 'आधुनिक अरब जगत के सबसे प्रमुख प्रेम कवि  के रूप याद किया और 'वाशिंगटन पोस्ट' ने 'प्रेम कविता का शहंशाह' के रूप में याद किया


निज़ार क़ब्बानी की  दो प्रेम कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

01 -अनुनय

दूर रहो
मेरे दृष्टिपथ से
ताकि मैं रंगों में कर सकूँ अन्तर।

दूर हो जाओ 
मेरे हाथों की सीमा से
ताकि मैं जान सकूँ 
इस ब्रह्मांड का वास्तविक रूपाकार
और खोज कर सकूँ
कि अपनी पृथ्वी है सचमुच गोलाकार।

02 - विपर्यय

जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में
बदल - सा गया है 
ऊपर वाले का साम्राज्य।

संध्या शयन करती है 
मेरे कोट के भीतर
और पश्चिम दिशा से उदित होता है सूर्य।