इच्छाओं के जंगल में
दौड़ता फिरता है मन बावरा
कहीं ओर न छोर
बस रास्ते ही रास्ते हर ओर
एक दूसरे में गुम होता
जंगल हरा - भरा..
इस बीच लंबा गोता लग गया , शायद लंबा और गहरा भी। महीने भर से अधिक का ब्लॉग - विराम। इस ठिकाने पर पिछली पोस्ट १८ जुलाई को आई थी और आज २८ अगस्त है। इस बीच खूब यात्रायें हुई , खूब थकान और खूब काम व चाहा - अनचाहा आराम भी। इस बीच देश - दुनिया में खूब उथल - पुथल रही। बीती शाम टीवी पर समाचार देखते हुए मुझे बरबस एक गाना याद आ गया : आधा है चन्द्रमा रात आधी ..। इसके साथ यह भी याद आया कि कितने - कितने दिन हो गए कायदे से गाना सुने हुए , साझा किए हुए और तसव्वुरे जानां किए हुए... और यह भी कि लिखत - पढ़त का काम भी इस बीच बिल्कुल हुआ ही नहीं। कई मित्रों से वादा था कि उन्हें कुछ भेजना है लेकिन स्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि हो न सका..खैर..ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन से काम बंद है...!
कब होता है मनचाहा
कब खुलती है
नदी की धार में अपनी - सी नाव
कब थमता है
अपने इशारों पर समय का बहाव..
आज इतवार है। आज छुट्टी का दिन है। आज सुबह से सब आराम से चल रहा है। आज कुछ पढ़ा और अपनी पसंद का संगीत सुना भी।शाम को बेमकसद आवारगी भी की। आवारगी और बेमकसद...! आज रेशमा जी को सुना। रेशमा की आवाज मानो रेत के वन में एक करुण पुकार...। यह वही आवाज है जो आज से कई दशक पहले सुनी थी पहली बार.. चार दिनाँ दा प्यार ओ रब्बा... और लगातार कई - कई रूपों में आती रही है अब तक। इब्ने इंशा की शायरी मेरे हमदम मेरे दोस्त की तरह सगी - साथी है क्योंकि वह अपने मिजाज के साथ साधारणीकृत होती लगती है। आज इस ठिकाने के विराम को अपने पसंदीदा शायर के शब्द और पसंदीदा आवाज की मलिका के स्वर से तोड़ने का मन है। आइए पढ़ते - सुनते हैं यह ग़ज़ल..शब्द इब्ने इंशा के और स्वर रेशमा जी का :
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ।
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियाँ।
अहले वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियाँ।
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ।
ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी,
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियाँ।
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों,
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियाँ।