किसी प्रिय कवि को पढ़ना और बार - बार पढ़ना सिर्फ पढ़ना नहीं होता है। यह किसी बात को सुनना भर नहीं होता है। यह डूबना होता है और डूबने से उबरना भी। प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते हुए कुछ लिखना हो जाय तो बस यह हो जाना होता है। आज अभी कुछ देर पहले पढ़ते- लिखते , गुनते - बुनते लिखी गई अपनी यह एक कविता साझा है। आइए इसे देखते - पढ़ते हैं.....
बोलती हुई बात
*
प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
गलती रही बर्फ़
बनकर नदी
बनकर नदी
नींद थी
नहीं थे स्वप्न
नहीं थे स्वप्न
मैं न था
तुम थे साथ
तुम थे साथ
यह कौन - सी यात्रा थी
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
* *
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
दूब की नोक से सिहरता व्योम
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
किस्से - कहानियों जितना अपना होना
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
कवि तुम
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।
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