सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

साहब बहादुर खेलेंगे होरी....हाँ खेलेंगे होरी


अभी कुछ देर पहले ही होली बैठकी से लौटा हूँ .मन मगन है.आज बहुत दिनों बाद इतनी रात में आसमान देखा -निरभ्र , खुला , विस्तीर्ण , अनंत, तारों से भरा...आ स मा न . विजया एकादशी क्या बीती कि होल्यारों की मौज शुरू हो गई दीख रही है.संगीत, स्वाद और सहिष्णुता से लबरेज रही आज की शाम. इतवार के दिन बहुत काम हो जाता है - औसत दिनों से कुछ अधिक आपाधापी और भाग दौड़ वाला .सुबह देर तनिक देर तक सोने का सुक्ख , फिर दूकान तक की हल्की दौड़ का दुक्ख.. दिन में दो अलग - अलग तरह के कार्यक्रमों में शामिल होने की दुनियादार हाय -हाय ये मजबूरी... कुछ कामधाम - कुछ भाषण -संबोधन जरूरी -गैर जरूरी.....दोपहर बाद के तीन बजते - बजते बुरी तरह चट गया था. खाना खाया और किताब पकड़ रजाई में स्थापित हो गया था. नींद आई लेकिन जल्द ही एक आत्मीय ब्लागर के फोन की घंटी से खुल गई..थोड़ी गपशप के बाद फिर रजाई में गुड़ुप्प..चाय के बाद मन के मँजीरे कुछ बजे. कुछ देर कंप्यूटर जी से जुगलबंदी की ..फिर बजी कालबेल .पता चला कि पड़ोसी जोशी जी डाक्टर जोशी जी के यहाँ आयोजित होली बैठकी में जाने को तैयार .. मय अपनी गड्डी के और यह सूचना भी कि इस नाचीज को वहाँ याद किया जा रहा है..चलो रे मना - व्यस्त रहने के लिए ही है इतवार बना।

आज सुबह- सुबह संगीत से सामना न हो सका था. यह कसर शाम को पूरे हो गई.. क्या रहा -कैसा रहा .. इस पर बात करना रपट लिखने जैसा होगा होगा. कहना इतना भर है कि दिन भर की थकान ,चटान सब दूर हो गई है और जैसे -जैसे रात गहरा रही है मन में हल्केपन की ध्वजा फहरा रही है थैंक्यू डाक्साब ! तो अब आप दवाइयों की बजाय संगीत से इलाज भी करने लगे !! अपना तो हो ही गया !!

रात है तो सोना भी है - सोना भी / ही पड़ेगा. सोने से पहले कुछ पढ़ना भी पड़ेगा. क्या पढूँ ? लग रहा है ' कुमाऊँनी होली संग्रह' से काम बन जाएगा शायद ...

राधे नंदकुँवर समुझाय रही
होरी खेलो फागुन रितु आय रही , राधे नंदकुँवर समुझाय रही.

बेला फूले , चमेली भी फूले , सर सरसों सरसाय रही
समझाय रही ,वो मनाय रही ..राधे नंदकुँवर समुझाय रही


अबीर गुलाल के थाल भरे हैं , केसर रंग छिड़काय रही
वो तो केसर रंग छिड़काय रही..राधे नंदकुँवर समुझाय रही.

साहब बहादुर खेलेंगे होरी....हाँ खेलेंगे होरी
संग लिए राधिका गोरी..राधे नंदकुँवर समुझाय रही.

बाकी सब ठीक . नई तारीख लग गई. अब तो आप भी शुरू कर ही लेवें अपनी होली अगर ना करी हो तो.. अगर करने का मन हो तो॥

बाबूजी , मैडमजी , दुनिया अपनी मौज में चलती रहेगी..दिल में होली जलती रहेगी.

क्या कहूँ ? शब्बा खैर या शुभ प्रभात ?

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

ये फूल मोमबत्तियाँ और टूटे सपने...

'ठंडा लोहा' में संकलित डा. धर्मवीर भारती की यह कविता एकांत, विरस ,कड़वे दिनों में बार-बार याद आती है। बहुत लंबे समय तक इसे कोर्स में पढ़ता - पढ़ाता रहा हूँ फिर भी यह हर बार कुछ नया अर्थ खोल जाती है, संभवत: इसीलिए भाती है।अब जबकि ब्लाग पर नए सिरे से कुछ लिखने का मन कर रहा है तब इसे ही चुना है उम्मीद है कि यह अपने समानधर्मा मित्रों को अच्छी लगेगी , सो प्रस्तुत है.

ये फूल, मोमबत्तियाँ और टूटे सपने
ये पागल क्षण, यह कामकाज, दफ़्तर - फ़ाइल
उचटा - सा जी, भत्ता -वेतन
ये सब सच हैं.

इनमें से रत्तीभर न किसी से कोई कम
अंधी गलियों में पथभ्रष्टों के ग़लत क़दम
या चंदा की छाया में भर-भर आने वाली आँखें नम
बच्चों की - सी दूधिया हँसी
या मन की लहरों पर उतराते हुए कफ़न
ये सब सच हैं.

जीवन है कुछ इतना विराट, इतना व्यापक
उसमें है सबके लिए जगह, सबका महत्व
ओ मेज़ों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वालो
यह दर्द तुम्हारा नहीं सिर्फ़,
यह सबका है, सबने पाया है प्यार
सभी ने खोया है, सबका जीवन है भार
और सब ढोते हैं,
बेचैन न हो ये दर्द अभी कुछ गहरे और उतरता है
फिर एक ज्योति मिल जाती है
जिसके मंजुल प्रकाश में सबके अर्थ नए खुलने लगते
ये सभी तार बन जाते हैं
कोई अंजान उंगलियाँ इन पर तैर-तैर
सबमें संगीत जगा देतीं अपने-अपने
गुथ जाते हैं ये सभी एक मीठी लय में
यह कामकाज संघर्ष विरस कड़वी बातें
ये फूल मोमबत्तियाँ और टूटे सपने...

यह दर्द विराट ज़िंदगी में होगा परिणत
है तुम्हें निराशा फिर तुम पाओगे ताक़त
उन अंगुलियों के आगे कर दो माथा नत
जिनके छू लेने भर से फूल सितारे बन जाते हैं ये मन के छाले
ओ मेजों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वाले
हर एक दर्द को नए अर्थ तक जाने दो...

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

अपना घोंसला



आज वेलेन्टाईन डे पर

घर से दूर

याद कर रहा हूँ

अपना चौका

अपना बेलन !

रोटी की गमक

तरकारी की तरावट

और उसे.. उसे

जिसने आटे की तरह

गूंथ दिया है खुद को!

प्रेम क्या है पता नहीं

वह अगर इंसान होता होगा

तो ...

उसे तुम जैसा ही होना चाहिए !


रविवार, 8 फ़रवरी 2009

चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी

पता नहीं ,यह कविता है कि उनींदे की लोरी।

बात बस इतनी भर है कि अभी ,इस वक्त नींद के गाँव से कोसों दूर हूँ . कुछ पढ़ने-लिखने -सुनने का मन नहीं -सा है. नेट पर आवारगी भी कुछ भारी पड़ रही है. सो, नीचे जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह सीधे-सीधे यहीं आनलाइन लिखा गया है. अगर यह कविता है तो क्या मान लूं कि कोई तुक है जो इस बेतुके वक्त में साथ -साथ है...खैर॥

अगर फुरसत है तो इसे देख लें.... क्या इसे ही आशुकविता कहते हैं ? बशर्ते अगर यह कविता मानी जाय तो !

हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी.

उँगलियाँ कुछ लिखना चाहें
सामने कागज खुला आकाश - सा है
मन में उठती हैं हिलोरें
पर उन्हें कहने में कुछ अवकाश - सा है

है अजब यह कशमकश
क्या-क्या लिखें -कैसा दिखें
लोग तो समझे है बस कविता - कहानी.

माना यह प्रतिकूल-पंकिल पक्ष
शुक्ल-पक्षी नेह को मुँह है बिराता
यह भी माना तमस अपने तीर लेकर
बेधता -सा बींधता -सा आ ही जाता

क्या कहीं ऐसा नहीं कि
मैं नए उन्मेष से विरमित -विरत हो
बस लिए बैठा हूँ कुछ सुधियाँ पुरानी ?

हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी.

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

कौन जोहे बाट किसी पागल मधुमास का



गाँव गया लौट आया
बस यही बात खली
चुक रहा है आकर्षण रक्तिम पलाश का.

महुए की नग्न देह सोने के फूल
जादू के हाथ कैसे जायें इन्हें भूल
गँवईपन रूठ गया
ऐसी बतास चली
अब कोई अर्थ नहीं स्वप्निल तलाश का.

दरपन की आँख में मौसम गदराया
फिर भी निठुर कोई पास नहीं आया
बन्द भई खुलते ही
हिरदय की प्रेम गली
कौन जोहे बाट किसी पागल मधुमास का.

डूब गया बिन देखे संयम - सनेह
अब तो रीती गागर जैसी यह देह
जीवन बस इतना ही
एक चिता अधजली
कौन छुए अंतस्तल अनजानी आस का.

गाँव गया लौट आया
बस यही बात खली
चुक रहा है आकर्षण रक्तिम पलाश का