समकालीन रूसी कविता की एक प्रमुख हस्ताक्षर वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) की बहुत सी कवितायें आप इस ठिकाने पर और अन्यत्र पढ़ चुके है। आज इसी क्रम में प्रस्तुत हैं उनकी दो ( और) कवितायें। वेरा की कवितायें अक्सर कलेवर में बहुत ही कृशकाय होती हैं लेकिन उनके भीतर जो विचार , प्रसंग व स्थिति(यों) की सरणि विद्यमान होती है वह न केवल कई तहों में बुनी हुई रहती है बल्कि कई तहों को खोलने वाली भी होती है। उनके यहाँ प्रेम सतह पर है; जो स्थूल भी है और उघड़ा हुआ भी लेकिन उसी के भीतर विषाद व विराग का 'रिजोनेंस' भी सतत उपस्थित है। उनकी कविताओं के कोई शीषक भी नहीं होते हैं प्राय:। उनकी अधिकांश कविताओं से साक्षात होते हुए पहली नजर में उन्हें स्त्रीवादी , इहलौकिकतावादी , क्षणवादी , देहवादी और न जाने क्या - क्या कहा जा सकता है और इससे आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है कि अक्सर उनके प्रेम की सीमा व विस्तार का दायरा 'इरोटिसिज्म' तक (भी )तक पहुँच जाता है। जो भी हो, उनकी कविताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता, आइए देखते - पढ़ते हैं ये दो कवितायें....
वेरा पावलोवा की दो कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
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पीठ पर मेरी भार
गर्भ में मेरे एक प्रकाश.
अब मुझ में रहो,
उगाओ जड़ें.
जब तुम हो उपरिवत
मुझे हो रहा है भान
विजयी व गर्वित होने का
मानो तुम्हें बाहर निकाल रही हूँ मैं
घेराबंदी से घिरे शहर के बहिरंग।.
30
प्रेम के बाद निढाल पसरते हुए:
"देखो
भर गई है सारी की सारी छत
सितारों से"
"और हो सकता है
उनमें से किसी एक पर
वास करता हो जीवन"
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(चित्र : निकोलस क्रैग की चित्रकृति, गूगल छवि से साभार)