निजार क़ब्बानी ( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल1998 ) न केवल सीरिया में बल्कि समूचे अरब के साहित्य में प्रेम, ऐंद्रिकता, दैहिकता और इहलौकिकता के महाकवि माने जाते हैं। उनकी कविताओं में प्रेम और स्त्रियों की खास
जगह है। वे
लिखते हैं कि
'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ
आता है जितनी स्वाभाविकता
के साथ कि
सेब में मिठास आती है।' निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके
रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी
जब वे सोलह
साल के थे
और इक्कीस बरस उम्र
में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था।
जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह
द्वितीय विश्वयुद्ध का समय
था और दुनिया के साथ अरब जगत
का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई
शक्ल ले रहा
था। ऐसे में
निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक
नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही
उनकी लोकप्रियता का सबसे
प्रमुख कारण बना।
निजार क़ब्बानी की कविताओं के मेरे
किए बहुत सारे अनुवाद वेब पर
और पत्र- पत्रिकाओं में छपे
हैं, आगे भी
आने वाले हैं। मुझे खुशी है कि
इन्हे कविता प्रेमियों द्वारा सराहा गया। आभार सहित आज इसी
क्रम में प्रस्तुत हैं उनकी तीन कवितायें :
निजार क़ब्बानी :तीन कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
०१- तुम्हारे हाथ
चुप रहो
कुछ न बोलो।
सबसे सुन्दर ध्वनियाँ हैं
मेज पर रखे तुम्हारे हाथ।
०२- निर्णय
चूँकि शब्दों से ऊँचा है
तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम
इसलिए लिया है निर्णय
कि रहूँगा मौन।
०३ - पूर्ववत
पहले से मैं बदल गया हूँ बहुत
कभी चाहा था मैंने
कि विलग कर दो सारे वसन
और बन बन जाओ
संगमरमर का एक नग्न वन।
अब चाहता हूँ
तुम वैसी ही रहो
रहस्य के आवरण में गुम।
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(चित्रकृति : बोल्दिनी, गूगल सर्च से साभार)
(चित्रकृति : बोल्दिनी, गूगल सर्च से साभार)