मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

बिछोह से खुलते हैं मोह के नए मानी






पतझर

पील़ा पड़ गया पत्ता
झरने को है वृक्ष से
समय - समुद्र में
विलीन होने को विकल है एक बूँद।

बीते वक्त पर खीझना भी है रीझना भी
ऐसे ही चलना है जीवन को
सोचें क्या किया ? करना है क्या ?

पढ़ना है पुराने हर्फ
निकालना है नये अर्थ
नई इबारतों से भरना है
नए साल के कोरे कागज का हाशिया।

बिछोह से खुलते हैं मोह के नए मानी
जाओ पुराने साल
हमें नए वर्ष की करने दो अगवानी।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है


आज बड़ा दिन है। अब तो कुछ ही देर में 'है' के स्थान पर 'था' कहना पड़ेगा। आज क्या किया? सुबह थोड़ी देर से सुबह हुई। हर काम में थोड़ी - थोड़ी देरी हुई जैसे कि आज शाम भी थोड़ी देर से हुई लेकिन इस अलसाई सुबह में नाश्ते के बाद हुआ यह कि छत पर लेटे - लेटे याद किया कि आज पोलैंड की मशहूर कवयित्री हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) के जीवन प्रंसंगों पर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिल गई थी और उसे अनुवाद करने के लिए रख लिया गया है। इसी क्रम में हालीना की बहुत सी कवितायें याद आ गईं और आलस्य को बाहर और परे करते हुए कागज की सतह पर कुछ घसीट लिया गया यूँ ही। आप चाहें तो इसे कविता की तरह पढ़ सकते हैं । और क्या कहूँ....



अंकुरण
( हालीना पोस्वियातोव्सका की कविताओं से गुजरते हुए )

यहाँ जमी हुई ओस है
और यहीं है पिघलती हुई बर्फ़
यहीं पर धूप के कैनवस पर उभरते हैं चित्र
और पानी पर लिखी जाती है प्रेम की इबारत।

सात समुद्रों और सात आसमानों को लाँघकर
बार - बार इसी पृथ्वी पर लौटती है देह
जिसमें वास करने को व्याकुल है एक आत्मा अतृप्त
मधुमक्खियाँ बताती हैं इसी ठिकाने की राह
और अपनत्व के छत्ते से टपकने लगता है शहद।

कविता क्या है
शायद शब्दों का खेल कोई एक
शायद स्वर और व्यंजनों की क्रीड़ा अबूझ
धीरे - धीरे हम प्रविष्ट होते हैं एक दु:ख भरे संसार में
जहाँ से झाँकता है प्रेम का उद्दीप्त सूर्य
और आवाजों की अनंत आँखों से देखते हैं
उदासी की उपत्यका में लहलहाते सूरजमुखी के खेत।

एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।
हम पाते हैं कि भीतर ही भीतर
अस्तित्व होता जा रहा है लगभग आर्द्र
और जीवन की सूखी चट्टानों पर अंकुरण को विकल है
एक छोटे - से बीज में छिपा जंगल का समूचा ऐश्वर्य।
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हालीना पोस्वियातोव्सका की कुछ कविताओं के अनुवाद यहाँ और यहाँ भी....

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

वान गॉग इसे उठाकर रोप देता है अपने कैनवस पर

हालीना पोस्वियातोव्सका की बहुत सी कविताओं के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं। आज एक खास कविता, इसमें पोलैंड की इस महान कवयित्री का जीवन और निजी अनुभव संसार तो है ही महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग का एक चित्र * भी अपनी पूरी भव्यता व दिव्यता के साथ चमक रहा है।कविता का तो जैसा - तैसा अनुवाद कर दिया लेकिन चित्र का ! तो आइए ,पढ़ते - देखते हैं यह कविता और कलाकृति - सूरजमुखी ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):






सूरजमुखी

( हालीना पोस्वियातोव्सका की कविता और वान गॉग का एक चित्र )

प्रेम में डूबा हुआ
एक ऊँचा लंबा सूरजमुखी
हाँ यही तो है
उसके नाम का समानार्थी शब्द।

चौड़ी पत्तियों से झाँकती
अपनी हजारों खुली पुतलियों के साथ
वह उठाती है अपना आकाशोन्मुख शीश
और सूरज रूपान्तरित हो जाता है
मधुमक्खियों के एक छत्ते में।

नीली भिनभिनाहटों में
बदलने लगता है सूरजमुखी
और चहुँदिशि फैल जाती है सुनहली दीप्ति।

और फरिश्तों के
मस्तिष्क मात्र में विद्यमान वान गॉग
इसे उठाकर रोप देता है अपने कैनवस पर
और चमक बिखेरने का देता है आदेश।
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* चित्र : गूगल सर्च से साभार


शनिवार, 19 दिसंबर 2009

भँवरे की एक गूँज हिलाकर रख देती थी समूचा भुवन

त्रैमासिक पत्रिका 'बया' ( संपादक : गौरीनाथ) के जुलाई - सितम्बर २००९ के अंक में अपनी चार कवितायें प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बहुत से पाठकों तक हो सकता है कि 'बया' की पहुँच न हो किन्तु यह एक अच्छी और पठनीय पत्रिका है जो अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होती है। कविता अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचे यही सोच ये कवितायें (एक बार फिर) प्रस्तुत हैं:


चार कवितायें : सिद्धेश्वर सिंह

०१- पुस्तक समीक्षा

कागज -
उजला चमकीला
मुलायम सुचिक्कण

छपाई -
अच्छी पठनीय
फांट-सुंदर

आवरण -
बढ़िया शानदार
कलात्मक आकर्षक

आकार -
डिमाई क्राउन रायल जेबी
(चाहे जो समझ लें)

कीमत -
थोड़ी अधिक
( क्या करें इस महँगाई का
वैसे भी,
बिकती कहाँ हैं हि्न्दी की किताबें )

पुरस्कार -
लगभग तय
( जय जय जय )

अखबारों में बची नहीं जगह
पत्रिकाओं में शेष हैं इक्का - दुक्का पृष्ठ
सुना है ब्लाग भी कोई जगह है
( विस्तार के भय से
वहाँ का हाल -चाल फिर कभी।)

साहित्य के मर्मज्ञ पाठकवॄंद
अब आप ही बतायें
एक अदद कितबिया पर
आखिरकार कितना लिखा जाय !

अत:
अस्तु
अतएव -
इति समीक्षा।

२. इंटरनेट पर कवि

कवि अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य
दिक्काल की सीमाओं से परे
नाच रहे हैं उसके शब्द
विश्वग्राम के निविड़ नुक्कड़ पर।

कवि अभिभूत है
अब नहीं रहा तनिक भी संशय
कि एक न एक दिन
भूतपूर्व हो जायेंगे छपे हुए शब्द
और पुरातात्विक उत्खनन के बाद ही
सतह पर उतरायेगी किताबों की दुनिया
जिन पर साफ पढ़े जा सकेंगे
दीमकों - तिलचट्टों - गुबरैलों के खुरदरे हस्ताक्षर।

कवि अब भी लौटता है बारम्बार
कुदाल खुरपी खटिया बँहगी सिल लोढ़ा
और..और उन तमाम उपादानों की ओर
जिनका तिरोहित होना लाजमी है
तभी तो दीखती हैं जड़ें
जिन्हें देख -देख होता है वह मुग्ध मुदित ।

सारे सतगुरु सारे संत कह गए हैं
कागज की पुड़िया है यह निस्सार संसार
इसे गलना है गल जाना है
सब कुछ हो जाना है कागज से विलग विरक्त
जैसे कि यह इंटरनेट
जिस पर अब कवि है अपनी कविता के साथ।

रात के एकान्त अँधेरे में
जब जुगनू भी बुझा देते हैं अपनी लालटेन
तब कोई शख्स
चोर की तरह खोलता है एक जंग लगा बक्सा
और निकालता है पीले पड़ चुके पत्र
जिनके लिखने का फार्मूला कहीं गुम हो गया है।

आओ एक काम करें
इंटरनेट खँगालें और किसी पाठक को करें ईमेल
देखें कि वह कहाँ है
इस विपुला पॄथ्वी
और अनंत आकाश के बीच
कवि तो अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य.

३.वेलेन्टाइन डे

शोध के लायक है
एक अकेले दिन का इतिहास
और प्रतिशोध की संभावना से परिपूर्ण भूगोल
कैसा - किस तरह का हो
इस दिवस का नागरिकशास्त्र..
सब चुप्प
सब चौकन्ने
सब चकित
इस शामिलबाजे में
भीतर ही भीतर बज रहा है कोई राग.

आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर स्मॄतियों में सहेज रहा हूँ
अपना चौका
अपने बासन
रोटी की गमक
तरकारी की तरावट
चूल्हे पर दिपदिप करती आग.

और उसे.. उसे
जिसने आटे की तरह
गूंथ दिया है खुद को चुपचाप।
सुना है इसी दिन
पता चलता है संस्कॄति के पैमाने का ताप।

मैं मूढ़ - मैं मूरख क्या जानूँ
प्यार है किस चिड़िया का नाम
आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर
तुम्हें याद करते हुए
क्या कर रहा हूँ - क्या पुण्य - क्या पाप !

०४- लैपटाप

जोगियों की तुंबी में
समा जाया करता था पूरा त्रिलोक
जल की एक बूँद में
बिला जाया करते थे वॄहदाकार भूधर
भँवरे की एक गूँज
हिलाकर रख देती थी समूचा भुवन
ये सब बहुत दूर की कौड़ियाँ नहीं हैं
समय के पाँसे पर अभी भी अमिट है उनकी छाप.

अब इस यंत्र इस जुगत का
किस तरह बखान किया जाय
किन शब्दों में गाई जाय इसकी विरुदावली -
दिनोंदिन सिकुड़ रही है इसकी देह
और फैलता जा रहा है मस्तिष्क
लोहा -लक्कड़ प्लास्टिक- कचकड़ तार - बेतार
इन्हीं उपादानों ने रचा है यह संसार
इसका बोझ नही लगता है बोझ
इसी की काया में है हमारे समय की मुक्ति
हमारे काल का मोक्ष.

नाना रूप धर रिझाती हुई
यह नये युग की माया है
जैसे अपनी ही काया का विस्तार
जैसे अपनी देह को देखती हुई देह
हम सब यंत्र जुगत मशीन
हम सब विदेह.

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

बाज़ार , जाम , कविता.. और ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ?


अपने गाँव से कस्बे तक पहुँच कर बाज़ार को पार करना और कार्यस्थल तक पहुँचना व वहाँ से वापसी ट्रैफिक जाम की वजह से दिनोंदिन एक दुखदायी काम होता जा रहा है। आज से कुछ साल पहले तक इस जगह ऐसा नहीं होता था। लोगबाग कहते हैं अपना कस्बा अब शहर होता जा रहा है , देखो तो बाज़ार में रौनक बढ़ती जा रही है। क्या करूँ इसी बाज़ार से रोजाना गुजरना होता है। पहले तो 'हमारा बजाज' बाज़ार के बीच से बड़ी आसानी से गुजर जाया करता था किन्तु अब जाम की वजह से रुकना ही पड़ता है , एक तरह से रेंगना पड़ता है और इसी जाम की कृपा से 'रौनक' के दर्शन हो जाया करते हैं। जाम में फँसे - फँसे ही अक्सर अगल - बगल के लोगों से जब दुआ - सलाम हो जाती है तो याद अता है कि बहुत दिनों से कहीं की सोशल विजिट नहीं हुई । परसों इसी तह की 'जाममय' स्थिति में नई मोटर साईकिल पर सवार एक पुराने परिचित सज्जन से 'नमस्ते - नमस्ते' हो गई , कुशल क्षेम का समानुपातिक वितरण - सा हो गया और उलाहना भी कि 'कभी घर आओ ना..' और तत्क्षण एक कवितानुमा अभिव्यक्ति नमूदार हो गई -

दिसम्बर की
एक ढलती हुई शाम
लगा हुआ है
बाज़ार में जाम
इसी में , इसी बहाने
हो गई उनसे दुआ सलाम।

ऊपर लिखी पंक्तियों को यदि कविता मान लिया जाय तो जाम में झींकने और बाज़ार की 'रौनक' के बीच रीझने - खीझने के जादू से खुद को बचाते हुए अपने कार्यस्थल और वापसी में अपने घोंसले तक पहुँच जाने के अंतराल के बीच कविता / कवितानुमा चीज ही तो मरहम का काम करती जान पड़ती है नहीं तो तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के समानान्तर आत्मीय अनुकूलन कहाँ से मिले ! समझदार लोग कहते हैं कविता एक शरण्य है; जगत और जीवन की तपती रेत में मुग्धता का मायाजाल रचने वाली मरीचिका जैसी छलना ..छलावा। जयशंकर प्रसाद के शब्दों कहें तो - 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे' जैसा कुछ..। वे सही ही होंगे , समझदार जो हैं लेकिन अपन को अगर मूर्खता के मजे लेने की आदत - सी हो गई है तो क्या करें ! कहा भी गया है - 'सबसे भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति'।

शाम को घर आया
ऊपर - ऊपर सुरक्षित - साबूत
अंदर से जगह- जगह छिलन - खँरोंचे - खराश।
इसके लिए कोई मलहम नहीं ड्राअर में शायद
कविता की एक छोटी - सी किताब उठाई
चिनचिनाहट कुछ कम हुई
लगा कि यह फर्स्ट एड है कुछ खास।

कविता की किताबों और साहित्य शास्त्र / काव्यशास्त्र की पोथियों में कविता के बनने , बदलने , बिगड़ने और मनुष्यता की अविराम नदी में यूँ ही मंथर गति से बहने के बाबत बहुत कुछ कहा गया है / कहा जाता रहेगा। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में कविताओं की खूब आमद - आमद है और कहीं से यह भी सुनने को मिलने लग पड़ा है कि ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ? इसका उत्तर तो उन लोगों के पास होगा जो इस बनती हुई विधा में सक्रियता और सार्थकता के साथ सतत हस्तक्षेप कर रहे हैं और इस बात पर उनकी निगाह भी होगी जो इस माध्यम का शास्त्र लिख रहे होंगे। अपन को इससे क्या काम? अपन तो अपने में ही गुम। चुपचाप किए जा रहे हैं अपना काम।

कविता क्या है?
क्या पता !
शब्द क्या हैं पता है
शिल्प कैसा?
नो प्राब्लम चलेगा कैसा भी
आओ संवेदना को छुयें
जो होती जा रही है निरन्तर लापता।

फिलहाल तो बाज़ार से रोजाना गुजरते हुए कभी - कभार खरीददार की तरह तथा अक्सर 'बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ' का भाव लिए कस्बे के शहर बनने की प्रक्रिया का साक्षात्कार करते हुए ट्रैफिक जाम को डेवलपमेन्ट के एक 'इंडीकेटर' की तरह ( ! ) देखते - देखते बुधवार की साप्ताहिक बन्दी के कारण बीच बाज़ार से आज अपना चौदह साल पुराना स्कूटर अपेक्षाकृत आसानी से पार कर ले जाना सुखद रहा - अगले छ: दिनों तक याद रहने लायक... और इसी में कुछ कविता या कवितानुमा या ब्लाग कविता जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रकट हो गई हैं जिन्हें सबके साथ साझा करने का मन कर रहा है। तो लीजिए :



बाज़ार : कुछ यूँ ही

०१-

बाज़ार तो खुद बाज़ार का भी नहीं !
किसका?
पता नहीं !
फिर भी गर्म है बाज़ार का बाज़ार
ख़ुद का मोल लगाए घूम रहे हैं खरीददार !
और कहते हैं-
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदर नहीं हूँ
अब आप ही बतायें
क्या मैं सही हूँ?

०२-

इमर्तियाँ छानते
कारीगर को देखकर
रुक गया
चौदह साल पुराना स्कूटर।
अंतस में भर गई मिठास
फिर भी
हाथ न गया
अपने ही पाकेट के पास।
याद आई
इ से इमली
बड़ी ई से ईख
भाव पूछा
तो संख्या की जगह
कानों तक पहुँची कोई चीख।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से पिघल रही है जिसकी धवल देह


रामगढ़ ( जिला : नैनीताल ) उत्तराखंड महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'हिन्दी कहानी और कविता पर अंतरंग बातचीत' के दो दिवसीय आयोजन ( ३० एवं ३१ अक्टूबर २००९ ) के दो दिनों के दौरान तीन कवितायें लिखी थीं जिनमें से दो को तो इसी जगह प्रस्तुत कर चुका हूँ। आज अभी कुछ मिनट पहले कविताओं की कंप्यूटरी फाइल को उलट - पुलट करते हुए तीसरी कविता को दोबारा लिखा - सा है और मन कर रहा है इसे हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में सबके साथ साझा कर लिया जाय , सो कविता को अपनी बात कहने का स्पेस देते हुए और स्वयं अधिक कुछ न कहते हुए आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :





वही हिमालय वही नगाधिराज

अभी तो
कवि कविता करते हैं
और कहानीकार बुनते हैं कोई कहानी
आलोचक चुप ही रहते हैं
उन्हें नहीं सूझता गुण - दोष।

अभी तो
आलमारियों में बन्द हैं किताबें
जो खुद से बतियाती हैं निश्शब्द
सड़क पहचानती है सबके पैरों के निशान
पेड़ इशारा करते हैं हिमशिखरों की ओर।

संगोष्ठी के समापन पर
करतल ध्वनि करता है हिमालय
शायद कोई नहीं देख रहा है
विदा में उठा हुआ उसका हाथ।

मैदानों में उतरकर
कवि कविता करते रहेंगे
कहानीकार बुनते रहेंगे कहानियाँ
आलोचक चुप्पी तोड़ेंगे और निकालेंगे मीन - मेख
फिर भी
सबके सपनों में आएगा हिमालय।

हाँ , वही हिमालय
वही नगाधिराज
जिसके लिए प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले
सुमित्रानंदन ने अपनी कविताओं में लुटाया है बेशुमार सोना।
वही हिमालय
जहाँ महादेवी वर्मा को बादल में दिखा था रूपसी का केशपाश।
वही हिमालय
जहाँ खिलते हैं बुराँश
और जहाँ ग्लेशियरों की उर्वर कोख से
मैदानों को आर्द्र करने के लिए जन्म लेती हैं सदानीरा नदियाँ।

आइए, यह भी याद करें
यह वही हिमालय है - वही नगाधिराज
हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से
पिघल रही है जिसकी धवल देह
और कोपेनहेगेन के सम्म्लेन द्वार तक
शायद पहुँच रही होगी जिसकी करुण पुकार।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

जैसे कि किसी लम्बे वाक्य से गिर पड़ता है एक शब्द

कल दिलीप चित्रे नहीं रहे। साहित्य और सिनेमा तथा चित्रकला की दुनिया में उन्हें बहुत आदर के साथ याद किया जाता है। अब यह कहते हुए कितना अजीब-सा लग रहा है कि वे हमारे बीच नहीं हैं। हमारे साथ अगर कुछ है तो उनका विपुल सृजन और बेशुमार यादें। शायद ऐसे ही मौकों के लिए 'प्यारे हरिचंद जू' ने कहा था कि ' कहानी रहि जायेगी' और दिलीप चित्रे जी की कहानी रहेगी , रहि जायेगी॥

कल देर रात उन पर एक श्रद्धंजलि पोस्ट लिखी थी , लिखी क्या थी कंपाइल की थी। बहुत दिनों दे उनकी कुछ कविताये अपने 'कंपूटरजी' के 'अनुवाद के लिए ' नाम्नी फोल्डर पड़ी थीं / पड़ी हैं और आलस्य तथा कार्याधिक्य के कारण 'आज नहीं तो कल' चलता रहा। अभी कुछ देर पहले दिलीप चित्रे जी की एक कविता 'Father Returning Home' का अनुवाद किया है दिवंगत सृजनकर्ता के प्रति पूरे आदर और सम्मान के साथ श्रद्धांजलि स्वरूप इसे साझा कर रहा हूँ :



घर वापस आते हुए पिता
( दिलीप चित्रे की कविता अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ))


देर शाम की रेलगाड़ी से
यात्रा करते हैं मेरे पिता
चुप्पी मारे यात्रियों के साथ
पीली रोशनी के साए में
खड़े हैं वे।
आँखे जो कुछ नहीं देखना चाहती हैं फिलहाल
उन्हीं से गुजर कर पीछे छूटते जा रहे हैं उपनगर।
गीली हैं उनकी पैन्ट व कमीज
काली बरसाती पर लगे हैं कीचड़ के धब्बे
और बाहर निकलने को बेचैन हैं उनके झोले में ठुँसी किताबें।
उम्र के भार से मंद हो चली उनकी आँखों में
उतर रहा है घर का रास्ता
बारिश से आर्द्र हुई इस रात में।

अब मैं देख सकता हूँ कि वे ट्रेन से उतर रहे हैं
वैसे ही जैसे कि किसी लम्बे वाक्य से गिर पड़ता है एक शब्द
वे हड़बड़ी में पार कर रहे हैं स्लेटी प्लेटफार्म की लम्बाई
फलाँग रहे हैं रेल की पटरियाँ और दाखिल हो जाते हैं गली में
कीचड़ से चिपचिपी हो चुकी हैं उनकी चप्पलें
फिर भी कम नहीं होती है उनकी हड़बड़ी।

घर वापसी - एक बार फिर
मैं उन्हें देखता हूँ -
पनियल चाय पीते
बासी रोटी कुतरते
किताब पढ़ते
वे संडास में दाखिल होते हैं ताकि विचार कर सकें
कि मनुष्य की बनाई दुनिया में
क्यों बढ़ रहा है मनुष्य का विलगाव
बाहर आकर वे काँपते दीखते हैं सिंक के पास
उनके भूरे हाथों से बह रहा है ठंडा पानी
कलाई के बुढ़ाते बालों से चिपकी हैं कुछ जल-बूँदें।
उनके रूठे - से बच्चे अक्सर टाल जाते हैं
साथ बाँटना मजाक और गुप्त बातें।

अब वे सोने चले जायेंगे
और सुनते रहेंगे रुके हुए समय को अपने रेडियो पर
वे सपने देखेंगे पुरखे - पुरनिया और नाती पोते के
वे सोचेंगे बंजारों के बारे में
जो एक सँकरे दर्रे से दाखिल हो रहे हैं किसी उपमहाद्वीप में।

क्योंकि पता चल गया है प्रेम का पता !




प्रेम

यह क्या है?
क्या पता !

यह क्यों है?
पता नहीं !

यह कैसा है?
क्या जाने !

यह कहाँ है?
अपने पते पर !

इसका पता ?
क्या पता !

क्या लापता ?
नहीं तो
यह मैंने कब कहा !

तो क्या कहा ?
प्रेम : मैंने कहा ।

और कुछ शेष ?
नहीं।

क्यों ?
क्योंकि पता चल गया है प्रेम का पता !

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

बाहर निकाल लो मेरी त्वचा से अपनी सुवास

निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें आप पहले भी पढ़ चुके हैं।यह कवि बार - बार अपनी ओर खींचता है । हर बार लगता है कि यह तो हमारी ही , हमारे ही मन की बात अपनी कविता में कर रहा है।इसमें ऐसा नया क्या है? शताब्दियों से मनुष्य के भीतर जो भी रागात्मक नाद बज रहा है बस उसी के अनुनाद को ही तो इसने वाणी दी है।आइए, आज उनकी इस छोटी - सी इस कविता के बहाने अपने भीतर के संसार में तनिक झाँके , पसंदीदा लिरिकल मोमेंट्स को पकड़े और थोड़ा- सा रूमानी हो जायें ! और क्या ! !


अवसर
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

खींच लो यह खंजर
जो धँसा है मेरे हृदय के पार्श्व में
मुझे जीने दो
बाहर निकाल लो मेरी त्वचा से अपनी सुवास।
मुझे एक अवसर दो :
कि मैं मिल सकूँ एक नई स्त्री से
कि मैं अपनी डायरी से मिटा दूँ तुम्हारा नाम
कि मैं काट दूँ तुम्हारे केशों की वेणियों को
जो बनी हुई हैं मेरी ग्रीवा की फाँस।

मुझे एक अवसर दो
कि नई राहों का अन्वेषण कर सकूँ
ऐसी राहें जिन पर कभी चला नहीं तुम्हारे साथ
ऐसे ठिकाने तलाशूँ
जहाँ कभी बैठा नहीं तुम्हारे संग
उन स्थलों का उत्खनन करूँ
जिन्होंने विस्मृत कर दिया है तुम्हारी स्मृति को।

मुझे एक अवसर दो
कि उस स्त्री को खोज सकूँ
जिसे मैंने बिसार दिया तुम्हारे लिए
और तुम्हारे लिए हत्या कर दी उसकी।

मैं फिर से जीना चाहता हूँ
एक अवसर दो मुझे
बस एक।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

काल का गवैया गाए जा रहा है राग भोपाल


घर में अंग्रेजी का अखबार देर से आता है - दिन में ११ बजे के आसपास , सो उसे रात को ही बाँचता हूँ फुरसत से। कल रात में अखबार पढ़ते हुए देखा कि पूरा एक पेज भोपाल गैस कांड / गैस त्रासदी पर है मय तस्वीरों के। बहुत देर तक मन में उथल - पुथल होती रही और आधी रात गए कुछ यूँ ही लिख लिया गया। आप चाहें तो इसे कविता भी कह सकते हैं :

राग भोपाल

चौथाई सदी से
बज रहा है यह
ध्वनि के सहयात्री हैं -
धूल - धक्कड़
धुआँ
आँसू
आग।

चौथाई सदी से
साल दर साल
तस्वीरें
लेख
कविता
फ़िल्म
सभा - संगत
और भी बहुत कुछ।

चौथाई सदी से
हम गिन रहे हैं दिन महीने साल
घिसने लग गए हैं उंगलियों के पोर
हलक में बार -बार उतरता है पिघला क्रंदन
नथुनों से गई नहीं है अभी मृत्यु -गंध।

जिजीविषा
चौथाई सदी से डाले जा रही है
जीवन की अंगीठी में कोयले काले - काले
और उभर रही है उजली आग
सुनो!
अगर सुन सको तो
सुनो !
अगर कान के परदे अब भी टँगे हैं सही जगह तो
काल का गवैया
गाए जा रहा है राग भोपाल
और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

प्रेम कई तरह से आपको छूता है : कविता और कलाकृति की जुगलबंदी


कुछ समय पहले मैंने 'कबाड़खाना' पर रानी जयचन्द्रन की कविताओं के कुछ अनुवाद प्रस्तुत किए थे। इन कविताओं के चुनाव के पीछे मंशा यही थी कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता में आजकल क्या / कैसा चल रहा है , उससे रू-ब-रू हुआ जाय और प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते की रागात्मक डोर को स्पर्श किया जाय।अब जबकि हमारे चारों ओर प्रकृति के बिगड़ते चेहरे पर विमर्श का बोलबाला है किन्तु उसको बचाने - बनाने - सँवारने के काम में वह गर्मजोशी और सक्रियता नहीं है जो होनी चाहिए , जो जरूरी ही नहीं अनिवार्य भी है।

रानी जयचन्द्रन की कवितायें हमारे भीतर की बची हुई संवेदनशीलता को नम बनाए रखने में मदद करती हैं साथ ही वह बात को कहने का एक अलग मुहावरा भी सामने रखती हैं।अनुवाद में मैं उनकी बात को कितना पकड़ पाया यह तो सहृदय पाठक जानें किन्तु यह देखकर खुशी हुई कि एक चित्रकार को इससे चित्र बनाने की प्रेरणा मिली। इसी बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि कविता और चित्रकला के सम्मिलन का निमित्त मेरे द्वारा किया गया एक अनुवाद बना। अधिकांश लोगों के लिए यह एक साधारण बात हो सकती है किन्तु मेरे लिए यह एक खुशी का अवसर है और अनुवाद जैसे श्रमसाध्य काम की स्वीकृति भी।

भाई रवीन्द्र व्यास के कई रूप हैं - वे एक चित्रकार और ब्लागर हैं उन्होंने 'वेबदुनिया' के अपने साप्ताहिक कालम में रानी जयचन्द्रन की कविता 'जादुई प्रेम' को आधार बनाकर या उसके बहाने या उससे प्रेरित होकर एक चित्र बनाया है और बहुत अच्छा आलेख लिखा है जो इस कविता को देखे जाने के ( एक अलग ) नजरिए की ओर इशारा करता है। शुक्रिया रवीन्द्र भाई ! लीजिए 'वेबदुनिया' से साभार और यथावत प्रस्तुत है रवीन्द्र जी का वह चित्र और आलेख :

चाँदनी की रश्मियों से चित्रित छायाएँ
( रानी जयचंद्रन की कविता और प्रेरित कलाकृति )


प्रेम कई तरह से आपको छूता है, स्पर्श करता है. आपकी साँसों को महका देता है। और यह सब इतने महीन और नायाब तरीकों से होता है कि कई बार आप उसे समझ नहीं पाते। यह एक तरह का जादू है। यह कभी भी, कहीं भी फूट पड़ता है, खिल उठता है, महक उठता है। इसी जादुई अहसास से जब प्रेमी अपनी आँखों से जो कुछ भी देखता है उसे वह प्रेममय जान पड़ता है।

उसे लगता है कायनात का हर जर्रा प्रेममय है। हर तरफ प्रेम के दृश्य हैं, हर तरफ प्रेम के ही बिम्ब हैं और हर तरफ प्रेम के ही फूल खिले हैं। रानी जयचंद्रन केरल की युवा कवयित्री हैं। उनकी कविताओं का नया संग्रह हाल ही में आया है जिसमें कुछ कविताओं का अनुवाद एक ब्लॉगर और कवि सिद्धेश्वर ने किया है। रानी की एक कविता है जादुई प्रेम। इसमें केरल की प्राकृतिक सुंदरता तो है ही लेकिन उससे भी सुंदर है रानी की वह प्रेमिल आँख जिसके जरिए वह प्रकृति का मार्मिक और खूबसूरत मानवीयकरण करती हैं।
कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

अस्ताचल के आलिंगन में आबद्ध
डूबता सूरज
समुद्र से कर रहा है प्यार
इस सौन्दर्य के वशीकरण में बँधकर
देर तक खड़ी रह जाती हूँ मैं
और करती हूँ इस अद्भुत मिलन का साक्षात्कार।

यह एक आम दृश्य है। हम सब ने इसे कभी न कभी, कहीं न कहीं देखा है लेकिन क्या हमने इसका साक्षात्कार किया है। इसे महसूस किया है। एक कवयित्री एक आम दृश्य को अपनी विलक्षण प्रेमिल निगाह से उसे एक अद्वितीयता दे रही है। आगे की पंक्तियों पर गौर फरमाएँ-

प्यार की प्रतिज्ञाओं और उम्मीदों से भरी
भीनी हवा के जादुई स्पर्श से
अभिभूत और आनंदित मैं
व्यतीत करती हूँ अपना ज्यादातर वक्त
यहीं इसी जगह
और मुक्त हो देखती हूँ
जल में काँपते चाँद को बारम्बार।

हम हमारा ज्यादातर समय कहाँ व्यतीत करते हैं। शायद अधिकांश समय हम नकली और भड़कीले चीजों को देखने में नष्ट कर देते हैं। भड़कीले और शोरभरे दृश्यों को देखने में नष्ट कर देते हैं। लेकिन एक कवयित्री हमें दृश्य दिखा रही है जिसमें सुंदरता है, बिम्ब है और इस दृश्य के जरिये उदात्त मानवीय भावनाएँ अभिव्यक्त हो रही हैं। यहाँ भीनी हवा का अहसास ही नहीं है उसका जादुई स्पर्श है, और मुक्त होकर जल में काँपते चाँद को देखने का विरल अनुभव भी। यह हमारे अनुभव को कुछ ज्यादा मानवीय बनाता है, ज्यादा सुंदर बनाता है।

इस अद्भुत मिलन के दृश्य से
भीगकर भारी हुई पृथ्वी
खड़ी रह गई है तृप्त -विभोर।
और चाँदनी की रश्मियों से चित्रित
बनी - अधबनी छायाएँ
फैलती ही जाती हैं वसुन्धरा के चित्रपट पर
यहाँ-वहाँ हर ओर।

और कविता का असल मर्म आखिर में खुलता है कि यह अद्भुत मिलन का दृश्य है जिससे भीगकर हमारी यह पृथ्वी भारी हो गई है और उसकी छायाएँ वसुंधरा पर फैलती जा रही हैं। यह प्रेम का ही विस्तार है। प्रेम ही हमें उदात्त बनाता है, विशाल बनाता है और आंतरिक खुशी के साथ आंतरिक वैभव भी प्रदान करता है। जिस तरह सूर्य, प्रृथ्वी, हवा, चाँद और मिलन से यह कविता वैभवपूर्ण और विशाल बनती है यह सिर्फ प्रेम की वजह से ही संभव है।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

'मधुशाला' के रचयिता के जन्मदिन पर 'मधुशाला'

आज अपनी कैसेटॊ के कबाड़ में से एक कैसेट निकाली गई है और उसकी गर्द पोंछकर उस दिन / उन दिनों को याद किया गया है जब उसे खरीदा गया था। कैसेट पर तारीख पड़ी है : अल्मोड़ा -२१ जून १९९३. यह भी तमाम तारीखों की तरह एक तारीख भर है- एक तिथि , एक दिनांक, बस और क्या? लेकिन अपने तईं यह दिन एक तिथि भर नहीं है। उस समय तीन सप्ताह पहले ही अपना विवाह हुआ था और अपन हिमालयी यात्रा पर थे. इस दिन को दो खास वजहों से याद करते हैं हम । पहला तो यह कि जिस होटल में अपन रुके थे वहाँ के खटमलों ने रात भर सोने नहीं दिया था और दूसरा यह कि लाला बाजार की एक छोटी - सी दुकान से एक कैसेट खरीदी थी : मधुशाला।

मधुशाला : हाँ यह वही किताब थी जिसे दसवीं में पढ़ते समय लगभग कंठस्थ कर लिया था और स्कूल की अंताक्षरी में अपनी धूम मची हुई थी। यह देख चाचा ने किताब छिपा दी थी कहीं लड़का बिगड़ न जाय , वैसे भी हाईस्कूल में है , खैर वह तो एक लम्बी कथा है। आज तो बस्द यही कहना है अब तो सारा संगीत कंप्यूटर और मोबाइल की मेमोरी में है सो कबाड़ में से कैसेट खोजी गई है और मधुशाला को याद किया गया है। ऐसा क्यों भला? आज ऐसा क्या खास है? आज अखबार में भी कोई जिक्र नहीं !

आज २७ नवम्बर को बच्चन जी को उनके जन्मदिन पर बहुत आदर के साथ याद करते हुए सुनते हैं 'मधुशाला'
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?'
असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ-
'राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला'।



स्वर : बच्चन जी और मन्ना डे
संगीत : जयदेव

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

मैं जेब में लिपस्टिक साथ लिए चलती हूँ


अभी कुछ देर पहले कुछ पढ़ते - पढ़ते मन हुआ कि इस कविता का अनुवाद अभी बस अभी किया ही जाय और हो गया। अब जैसा भी बन पड़ा है..आइए देखते - पढ़ते हैं पोलैंड की मशहूर कवयित्री हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) की यह कविता ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):

लिपस्टिक

मैं जबसे तुमसे मिली हूँ
अपनी जेब में एक लिपस्टिक रखने लगी हूँ
कितनी बेवकूफी से भरा काम है
लिपस्टिक साथ लेकर चलना.,
जब तुम मेरी तरफ संजीदगी से देखते हो
जैसे कि तुम मेरी आँखों में
कोई गॊथिक चर्च देख रहे होते हो.
लेकिन मैं कोई पूजा की जगह नहीं हूँ
बल्कि मैं तो कोई जंगल हूँ
या घास का मैदान .

मैं तुम्हारे हाथों में दबी पत्तियों की सरसराहट हूँ.
हमारे पीछे एक छुटकी नदी
लड़खड़ाती हुई बहती है
यह समय की नदी हो जैसे
और तुम इसे अपनी अंगुलियों के रास्ते बहने देते हो
इसके बहाव में कभी नहीं डालते हो जाल.

और जब मैं तुम्हें
अपने अधबने होठों से कहती हूँ अलविदा
तो वे रह जाते हैं अनछुए
लेकिन जब से मैंने जाना है
कि बहुत सुन्दर है तुम्हारा मुखारविन्द
तब से मैं जेब में लिपस्टिक साथ लिए चलती हूँ।
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( हालीना पोस्वियातोव्सका की पाँच कवितायें यहाँ देखी - पढ़ी जा सकती हैं )

नैना मिलाइके..( एक बार फिर ) शामिलबाजे में..


* आज 'कर्मनाशा' के पिछले पन्नों को पलटकर देखते हुए याद आया कि बहुत दिन हुए अपना पसंदीदा संगीत आपके साथ साझा किए हुए.!
ऐसा क्यों हुआ होगा भला ?


* क्या इसलिए कि इस बीच काम अधिक रहा ? क्या इसलिए कि इस बीच यात्रायें बहुत रहीं ? क्या इसलिए कि संगीत और शायरी के लिए अलाटेड सुबह - सुबह का वक्त दूसरी चीजों की भेंट चढ़ गया ? क्या इसलिए कि इस बीच पढ़ने - लिखने के काम ने कुछ गति पकड़ी है ? क्या इसलिए कि आलस्य कुछ कम हुआ है ? क्या इसलिए कि मन दूसरी चीजों में उलझा रहा ?


* खैर , जो भी हो संगीत सुना भी कम गया और सझा भी कम ही किया गया। ऐसा ही कुछ शायरी के साथ भी हुआ है..।


* आज मन है कि अपना पसंदीदा संगीत एकाधिक बार आपके साथ साझा किया जाय। इस क्रम में सबसे पहले हिन्दी - उर्दू की साझी शायरी और संगीत के बाबा अमीर खुसरो साहब की रचना 'नैना मिलाइके..' की बात करते हैं। सभी जानते हैं कि यह एक ऐसी रचना है जिसे संगीतकारों ने संभवत: सबसे अधिक गाया है। इसके कई - कई रूप हमारे निकट प्रचलित हैं। कई - कई आवाजें इसे गा - गुनगुना कर धन्य हुई हैं और हमारे कानों को उनके होने की सार्थकता का अहसास कराया है।


* नैना मिलाइके..' के कई रूप हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में प्रस्तुत किए गए हैं। आज से कुछ समय पूर्व ' नैना मिलाइके..' का आबिदा परवीन का गाया वर्जन 'कबाड़खा़ना' पर प्रस्तुत किया गया था जो अब 'लाइफलागर' की कृपा से उड़ गया है। लाइव ट्रैफिक फ़ीड अक्सर बताता है कि इसको वहाँ तलाश किया गया था ( और नहीं पाया गया होगा !) सो , अब आज 'कर्मनाशा' के शामिलबाजे में अपने स्तर पर खोई हुई - सी चीज को सुनते हैं और मन ही मन कुछ बुनते - गुनते हैं...


* और क्या कहा जाय

बस सुनें

अमीर खुसरो की यह रचना (आबिदा जी कहाँ - कहाँ की, किन - किन कवियों की कविता की सैर कराई है इसमें! )
और ..

आबिदा परवीन का स्वर !





वैसे , आप की क्या राय है ? जल्द ही कुछ और स्वरों में ' नैना मिलाइके..


सोमवार, 23 नवंबर 2009

कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस

खुशी और संतोष की बात है कि कुछ दिन पहले ही 'कर्मनाशा' पर पहली बार (निज़ार क़ब्बानी की कवितायें) अनुवाद प्रस्तुत किया और उसे पसन्द भी किया गया। इस ठिए पर आने वाले सभी साथियों के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करते हुए मन कर रहा है अनुवाद की पोस्ट्स को एक अंतराल बाद लगाया जाय। मित्रों और कविता प्रेमियों के उत्साहवर्धन से आलस्य टूटा है और अनुवाद का काम एक गति पकड़ चुका है । शुक्रिया दोस्तो !

अन्ना अख़्मातोवा की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कबाड़ख़ाना' पर
पहले पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

सो ,आज बिना किसी विस्तृत पूर्वकथन के प्रस्तुत है अन्ना अख़्मातोवा एक कविता ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब
स्त्री किसी एक का भी नहीं करती है प्रतिवाद.

कितनी खुश हूँ मैं आज के दिन
रंगहीन बर्फ के तल में जल है गतिहीन
और नरम चमकदार कफ़न के बगल में
खड़ी मैं
पुकार रही हूँ - मदद करो मेरे ईश.

कोई है, जो मेरी चिठ्ठियों को बचा ले !
ताकि हमारे परवर्ती कायम कर सकें कोई राय
कि तुम कितने बहादुर और बुद्धिमान थे
उन्हें पूरी स्पष्टता के साथ
यह तो पता चले
कि तुम्हारी शानदार जीवनी में
शायद छोड़ दिए गए हैं कई अंतराल.

कितनी मीठा है यह दुनियावी मद्य
कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस
ऐसा हो कि बच्चे किसी समय
अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ सकें मेरा नाम
और कुछ सीख सकें
इस दुखान्त कथा के बहाने
और मुस्कुरायें मंद - मंद....

चूँकि तुमने मुझको
न तो प्यार दिया है न ही शान्ति
इसलिए
बख्शो मुझे कड़वा ऐश्वर्य.

बुधवार, 18 नवंबर 2009

'पृथ्वी पर एक जगह' को मंडलोई सम्मान / शिरीष कुमार मौर्य को बधाई !



युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के कविता संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह' को प्रतिष्ठित लक्षमण प्रसाद मंडलोई सम्मान देने की घोषणा की गई है और यह खबर बहुत प्रमुखता से भाई बोधिसत्व ने अपने ब्लाग 'विनयपत्रिका' पर बहुत महत्व के साथ प्रकाशित की है। शिरीष मेरे पसंदीदा कवियों में हैं और उनके ब्लाग 'अनुनाद' का भी मैं नियमित विजिटर हूँ उनके इस प्रशंसित , सम्मानित कविता संग्रह पर एक समीक्षात्मक आलेख मैंने कुछ माह पूर्व लिखा था जो पाक्षिक पत्र 'नैनीताल समाचार' के १४ - ३१ मई २००९ के अंक में प्रकाशित हुआ था। उसे आज इस खुशी के मौके पर पर यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ हो सकता है कि इससे 'पृथ्वी पर एक जगह' को देखने , पढ़ने और सराहने में हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के सथियों को किंचित मदद मिल सके। यदि ऐसा भी हो तो शिरीष और उनकी कविता के पाठक इसे एक सूचना का परिशिष्ट भर मान लें।


आज अपने इस साथी , कवि, ब्लागर, रेखाचित्रकार, अनुवादक और शिक्षक की किताब को सम्मानित होते देखना सुखकर है।




पृथ्वी पर एक जरूरी जगह

* सिद्धेश्वर सिंह

यह सुखद है कि पिछले एक - दो वर्षों से हिन्दी की युवा कविता के कई महत्वपूर्ण संग्रह सामने आए हैं. केवल परिमाण की दृष्टि से अपितु गुणात्मकता से भी युवा कविता की एक महत्वपूर्ण उपस्थिति से हिन्दी समाज रू- - रू हुआ है. यहां पर यह भी देखा जाना आवश्यक है कि जब हमारा लगभग समूचा परिवेश अपने ही रचे हुए हाहाकार से हैरत में है हलकान है, तब कविता जीवन और जगत में कितना कोलाहल मचाने में सक्षम हो सकने की स्थिति में है? फिर भी इसमें कोई दो राय नहीं कि समय , समाज और सत्ता के निरन्तर गझिन होते दुराग्रह -दुष्चक्र में व्यक्ति के भीतर संवेदनशीलता , तरावट, तरलता नमी को बचाए रखने की प्रक्रिया में कविता की भूमिका कम नहीं हुई है वरन वह लगातार बढती ही जा रही है. इसी बात को युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के शब्दों में कुछ इस तरह कहा जा सकता है -

सुन लें वे जिन्हें सुनाई देता है
समझ आता है जिन्हें वे समझ लें अच्छी तरह
कि बोलना
और बोलना सही समय पर सही बात का
बेहद जरूरी है

'पृथ्वी पर एक जगह' शिरीष कुमार मौर्य का नया और क्रम के लिहाज से उनका तीसरा संग्रह है जिसमें कुल इक्यासी कवितायें संग्रहीत है. ऐसे समय में जब आमतौर पर हिन्दी के कविता संग्रह कृशकाय होते जा रहे हैं तब २१५ पृष्ठों की यह किताब धैर्य से पढ़े जाने की मांग करती है. इन इक्यासी कविताओं में अण्तिम हिस्से की तेरह कवितायें विभिन्न रागों पर / रागों से प्रभावित होकर लिखी गई हैं जो एक विलक्षण अनुभूति की अभिव्यक्त छवियाँ हैं.आज की युवा पीढ़ी जब सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने के शार्टकट के रास्ते पर दौड़ लगा रही दीख रही है और अल्पकाल में ही सब कुछ समेट लेने की जल्दबाजी के प्रति मोहग्रस्त है तब एक युवा कवि की कविता में संगीत की समझ और उसकी संवेदना का सहज , सरल और सान्द्र प्रकटीकरण बहुत बड़ी बात है -

सचमुच गाए बिना भी सुना जा सकता है गीत
जरूरी नही
कि हर चीज़ दे सिर्फ़ कानों से
सुनाई.

शिरीष केवल कवि भर नही हैं उन्होंने विश्व कविता के पटल से येहूदा आमीखाई, ओटो रैने, क्रू सेंग, हंस मानूस एजेंत्सबर्गर टामस ट्रान्सटोमर आदि कवियों की कविताओं के महत्वपूर्ण उल्लेखनीय अनुवाद भी किए हैं. निश्चित रूप से इन अनुवादों से उनकी भाषा और भावाभियक्ति की उर्वरता में वृद्धि हुई है. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में कविता और कविता के अनुवाद पर केन्द्रित अपने ब्लाग 'अनुनाद डाट ब्लागस्पाट डाट काम' के माध्यम से अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम पर वे अपनी सक्रिय उपस्थ्ति निरन्तर बनाए हुए हैं. साथ ही 'अनुनाद' पत्रिका के संपादक और विश्विद्यालय के प्राध्यापक के रूप में तो वे विद्यमान हैं ही. २००४ में मिले प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार ने अपने समकालीनों में उन्हें नई पहचान दी है. ऊँचे पहाड़ों से उर्ध्वगामिता , समतल मैदानों से सहजता और ऊबड़ - खाबड़ पठारों से बहुविध विविधता- बहुलता से निर्मित कवि का जीवन उसकी कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. अपने परिवेश , अपने परिवार, अपने दोस्त -मित्र और अपने निकट के संसार से कवि का गहरा राग यहाँ सतत विद्यमान है . 'गालियाँ' , 'रानीखेत से हिमालय' , 'सौराल', 'बारह बरस बाद अपने गाँव में', 'दोस्तों के डेरे पर एक शाम' , 'गैरसैंण' , 'इटारसी भुसावल पैसेंजर', 'दादी की चिठ्ठियाँ', ' बेटे की स्कूली किताबें देखते हुए' जैसी कवितायें कवि के अनुभव जगत का एक ऐसा कोलाज़ पेश करती हैं जो कि दरअसल हमारे हिस्से की वह दुनिया है जिसके सबसे निकट रहते हुए भी हम सब उसी के बारे में शायद सबसे कम जानते हैं और अगर जानते भी हैं तो सबसे कम बात करते हैं. जिन चीज़ों से हमारी दुनिया बनती है उसी दुनिया के एक - एक रेशे को उधेड़कर दोबारा बुनना एक यंत्रणादायक - यातना भरी प्रक्रिया है , वैसे देखा जाय तो रचना एक यातना ही तो है , बाहर से भीतर और भीतर से बाहर के संसार के बीच अव्यक्त को व्यक्त करने का एक पुल या सेतु. इस संग्रह से गुजरते हुए निस्संकोच कहा जा सकता है कवि ने अपने अपने परिवेश को बखूबी जिया है , उसे शाब्दिक अभिव्यक्ति में अवतरित करने की यंत्रणा झेली है साथ यह भी कहा जाना जरूरी है उसकी अभियक्ति में ईमानदारी की गहरी छाप देखी जा सकती है

कुछ भी हो मगर वे होती है
और हम भी बसायें उन्हें तो वे होंगी
जैसे हम ना भी करें प्रेम तो वह होगा
हमारे लिए जीवन में कहीं कहीं

'पृथ्वी पर एक जगह' में अधिकतर बड़े कलेवर की कवितायें हैं जिन्हें हिन्दी की प्रचलित शब्दावली में लंबी कवितायें कहे जाने की परिपाटी है. अब यह भी क्या खूब है कि समय के हमारे इस हिस्से में चीजें जितनी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती जा रही हैं उसी के विपर्यय अनुपात उनके बारे में कहे जाने की जरूरत विस्तृत और विस्तीर्ण होती जा रही है. कवि अपने समय के इस विपर्यय को पहचानने , परखने और प्रस्तुत करने के काम में सन्नध दिखाई देता है उसका मानना है कि दुनिया सिर्फ वही नहीं है जो दिखाई देती है , एक वह दुनिया है जिसमें हम सब रहते भी हैं और उससे बाहर और परे होने का भ्रम भी पाले हुए हैं.कविता का एक बड़ा काम है भ्रमभंग और उसके भग्नावशेषों पर एक निर्मल , निष्कलुष, साफ , सहज, संवेदनशील,सरल दुनिया की निर्मिति के पथ का अन्वेषण. कवि शब्दों के संसार में विचरण करते हुए एक ऐसी ही दुनिया के निर्माण का रास्ता तलाश करता हुआ दिखाई देता है. वह दुनिया को बदलने के लिए उतना आतुर - आकुल नहीं दीखता है जितना कि आज से कुछ समय पहले की हिन्दी कविता दिखाई देती थी और अक्सर ( बकौल गोरख पांडेय ) 'अक्षर -अक्षर शब्द -शब्द से छापामार' करती हुई नजर आती थी .वह उस समय का मुहावरा तो था , उस समय बदलते हुए वैश्विक परिवेश में बदलाव की उपस्थिति सतह पर आनी जरूरी भी थी किन्तु आज के गुंफित समय में बदलाव का बहाव तल में अधिक है तट सतह पर प्राय: कम और बहुत कुछ गोपन, अनिर्वच तथा अगोचर भी. गोपन को अगोपन, अनिर्वच को व्यक्त और अगोचर देखने की समझदारी में हस्तक्षेप करती हुई इस महापृथ्वी पर गतिमान एक दुनिया है जो इन कविताओं के माध्यम से प्रकट होती है

बच्चो !
गाय पर निबन्ध लिखना
तो दूध का ज़िक्र करना
डाकिए पर निबन्ध लिखना तो चिठ्ठी का जिक्र करना
लेकिन कभी लिखना पड़े
मुल्क के सबसे अच्छे शहर के बारे में कोई निबन्ध
तो पन्ना खाली छोड़ देना
क्योंकि वो
अभी बसा ही नही है कहीं

इस किताब के ब्लर्ब पर हमारे समय के प्रमुख कवि और उभरते हुए समर्थवान आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने एक जगह लिखा है - ' शिरीष की रचनाओं में ताजा , स्वस्थ, निर्मल और अकुंठित सौन्दर्य है , जो चीज़ों के निकटस्थ निरीक्षण और आत्मीय अनुचिंतन से जन्मा है. उनमें बिम्बों के अंतराल की काफी अच्छी समझ है, मात्रा और अनुपात की अचूक और संतुलित दृष्टि है और एक उमड़ता हुआ भावुक आवेग , पर वह उसी समय वैग्यानिक चेतना से अनुशासित है.' आज की हिन्दी युवा कविता पर प्राय़: यह आरोप लगाया जाता है कि वह भाषा के चरखे पर बहुत महीन कताई करती हुई दिखाई देती है , संभवत: इसीलिए पढ़ने लिखने वालों की व्यापक दुनिया का हिस्सा बनने में कहीं पीछे भी रह जाती है लेकिन यह सच है कि ऐसा कहते हुए हम कविता के भाव और शिल्प जगत के साथ ज्यादती तो करते ही हैं , कविता से कुछ अधिक - अतिरिक्त माँग भी कर जाते हैं. प्रत्येक कवि अपनी आँख से अपनी दुनिया को देख - परख - पहचान रहा होता है और चूँकि उसकी आँख समय की प्रतिनिधि आँख होती है, सबको [पता है कि समय कोई रुकी हुई चीज़ नहीं है, इसलिए कविता की काया में तात्कालिकता के लक्षण तलाश करना बहुत वाज़िब नहीं होता. इस आलोक में शिरीष के प्रस्तुत संग्रह की कुछ कवितायें अगर किंचित गूढ़ और तनिक गुरु - गंभीर - गहरी लगती हैं तो यही कहा जा सकता है समय की बहती हुई अविराम नदी में उनका जल उलीचने के लिए हथेलियों का जुड़ाव होना अभी शेष है .साथ ही यह भी कि यदि कुछ कवितायें जैसे 'शनि', ' बनारस से 'निकला हुआ आदमी', 'टीकाराम पोखरियाल की वसंत कथा' आदि को पढ़ते हुए यह लगे कि इनके कलेवर को कुछ समेटा जा सकता था तो एक पाठक के नाते कम से कम मुझे तो यही लगता है कि हर एक छोटे -से बीज के के भीतर एक छतनार वृक्ष छिपा हुआ होता है , कवि उसकी जड़ों के साथ तने -टहनियों ,पत्तियों को ही नहीं देख रहा होता है बल्कि उसकी छाया में सूखती -छीजती पत्तियों की ओट तले अपने जगह बनाती हुई चींटियों पर भी पैनी और आत्मीय निगाह बनाए रखना कवि होने की अनिवार्य शर्त है


'पृथ्वी पर एक जगह' एक ऐसा कविता संग्रह है जिसपर केवल वाह और आह कहकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है. मेरी अल्पबुद्धि के हिसाब से एक अच्छी कविता का गुण यह भी है कि एक संवेदनशील- सहृदय-सजग पाठक के निकट पहुँचकर वह दोबारा और बार -बार निर्मित होती है, पाठक उसका आस्वादक -भावक भी होता है और पुनर्सर्जक भी.एक पाठक की हैसियत से मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिन लोगों के लिए कविता मन बहलाव की चीज़ भर नहीं है और जीवन - जगत की तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद जो लोग अपने भीतर नमी , तरलता और तरावट बचाए रखने के लिए सदैव बेचैन - से रहते हैं उन्हें इस संग्रह की कवितायें कतई निराश नहीं करेंगी.
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पुस्तक : पृथ्वी पर एक जगह / कवि : शिरीष कुमार मौर्य / प्रकाशक : शिल्पायन ,१०२९५, लेन नं -१ ,वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा , दिल्ली-११००३२ / मूल्य : २५० रुपये
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( समीक्षा से पहले छपा रेखांकन शिरीष जी का ही बनाया हुआ है )

शनिवार, 14 नवंबर 2009

न भाषा की जरूरत और न ही लिपि की दरकार


आज बाल दिवस है
बच्चों का एक पूरा दिन
आज कुछ लिखना है बच्चों के बारे में
जिसे बड़े पढ़ सकें
कुछ लिखना है बच्चों के लिए
जिसे बच्चे पढ़ सकें।

दुनिया में तरह - तरह की भाषायें हैं
लिपियाँ हजारों - हजार
सुना है रोज मर जाती हैं कुछ भाषायें
रोज गायब हो जाते है कई अक्षर - कई वर्ण।

भाषायें नियत करती हैं पहचान
लिपियों से पहचाने जाते हैं मनुष्य
अभिव्यक्ति के जाने पहचाने शाब्दिक प्रतीक
व्यक्ति और व्यक्ति के बीच
सदैव सेतु नहीं बनते
अक्सर
बन जाते हैं कभी न मिलने वाले नदी के दो पाट।


बच्चों के लिए
बच्चों के बारे में
मैं किस भाषा में लिखूँ दो शब्द
किस लिपि चिह्न में उकेरूँ अपनी बात
जिसे समझ सके
इस पृथ्वी के कोने - कोने में विद्यमान समूचा बचपन
एक वह जो जाता है स्कूल
एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को
एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब
एक वह भी
जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज
इस सिलसिले को
बहुत आगे तक बढ़ाया जा सकता है
और देखा जा सकता है उन्हें भी
जो जन्म से पहले ही पा जाते है मृत्यु का स्पर्श..

आज बाल दिवस है
बच्चों का एक दिन
मैं खोज रहा हूँ कोई नई भाषा
गढ़ रहा हूँ किसी नई लिपि के प्रतीक
जानता हूँ इस काम में मदद करेंगे बच्चे ही
बच्चे ही साफ करेंगे सारा कूड़ा - कबाड़।

खुशी होगी
बच्चे अगर बुहार दें मेरा आलेख
कविताओं को चिन्दी - चिन्दी कर
हवा में उड़ा दें तत्काल
और निकल पड़ें खेलने कोई खेल
आलोचक भकुआए- से देखते रहें यह चमत्कार
जहाँ न भाषा की जरूरत हो और न ही लिपि की दरकार !

* ऊपर लगा चित्र बिलासपुर (छ०ग०) की सजल कुशवाहा ने अपने घर की दीवार पर बनाया है।

बुधवार, 11 नवंबर 2009

तुम्हारा सौन्दर्य और मेरा पागलपन.


निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें 'कबाड़ख़ाना' पर प्रस्तुत कर चुका हूँ जिसे पसंद भी किया।गया'हरा कोना' वाले भाई भाई रवीन्द्र व्यास का इसरार था कि कि इस कवि की कुछ और कविताओं को प्रस्तुत किया किया, सो कुछ और अनुवाद इस बीच किए हैं जिनमें से दो कवितायें पेशा कर रहा हूँ। 'र्मनाशा' पर अपने अनुवादों को लगाने का यह पहला प्रयास है , देखें पाठक क्या कहते हैं। निज़ार को मूलत: प्रेम और दैहिकता का कवि माना जाता है किन्तु उसमें कहीं से भी हल्कापन नहीं आ पाया है , उनके यहाँ अगर कुछ है तो प्रेम की उदात्तता और सौन्दर्य की जी भर तारीफ का एक अटूट सिलसिला...तो लीजिए अरब जगत के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में से एक निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की दो कवितायें ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ) :


०१-जब मैं प्रेम करता हूँ

जब मैं प्रेम करता हूँ
तो अनुभव करता हूँ
कि सम्राट हूँ अपने समय का
मेरी अधीनता में है समूची पृथ्वी
इस पर विद्यमान तमाम चीजें
और मैं सूर्य की ओर दौड़ाए जा रहा हूँ अपना अश्व ।
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो बन जाता हूँ तरल प्रकाश
असंभव है जिसे आँखों से देख पाना
और मिमोसा व पोस्त के पौधों में रूपायित हो जाती हैं
मेरी कविताओं की पांडुलिपियाँ ।
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो उंगलियों से फूट निकलती है जलधार
मेरी जिह्वा पर उगने लगती है घास
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो बन जाता हूँ समय के बाहर बहता हुआ समय ।
जब मैं करता हूँ
किसी स्त्री से प्रेम
तो नंगे पाँव दौड़े चले आते हैं
जंगल के तमाम पेड़॥ मेरी ही ओर।

०२- दीपक से अधिक मूल्यवान होता है प्रकाश

दीपक से अधिक मूल्यवान होता है प्रकाश
पांडुलिपियों से अधिक मूल्यवान होती हैं कवितायें
और अधरों से अधिक मूल्यवान होते हैं
उन पर रचे गए चुंबन ।

तुमसे ...
मुझसे...
हम दोनों से....
बहुत अधिक मूल्यवान हैं मेरे प्रेमपत्र ।
वे ही तो हैं वे दस्तावेज
जिनसे आने वाले समय में
जान पायेंगे लोगबाग
कि कैसा रहा होगा तुम्हारा सौन्दर्य
और कितना मूल्यवान रहा होगा मेरा पागलपन।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

रामगढ़ से हिमालय


रामगढ़ ( जिला : नैनीताल ) उत्तराखंड महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'हिन्दी कहानी और कविता पर अंतरंग बातचीत' के दो दिवसीय आयोजन ( ३० एवं ३१ अक्टूबर २००९ ) से लौटा हूँ वहाँ के प्रवास में खूब चहल-पहल रही फिर भी इसी में अपने लिए तनिक एकान्त तलाशते हुए कुछ कवितायें बन गईं जिनमें से दो प्रस्तुत हैं -
रामगढ़ से हिमालय : दो चित्र

१-
पहाड़ों के माथे पर
बर्फ की सफेदी है
और मेरे बालों में
उतर रहा है
बीतते जाते वक्त का उजलापन।

अडिग
अचल
खड़ा है नगाधिराज...
मैं ही क्यों होता रहता हूँ
प्रतिकूलताओं से दोलायमान।

थोड़ी - सी हिम्मत मुझे भी बख्शो
मेरे हिमालय !
मेरे हिमवान ! !

२-

तिरछी ढ्लानों पर
सीधे तने खड़े हैं देवदार
आकाश के नीले कैनवस पर
कुछ लिखना चाहती हैं
उनकी नुकीली फुनगियाँ..

यह हिमालय है
हिम का घर
यहाँ कौन नहीं है कवि
कौन नहीं बनना चाहता है चित्रकार !
*******
( रामगढ़ पर कुछ यहाँ भी है। मन करे तो देख लें )

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

पुराना स्कूटर

( यह कहानी लखनऊ से प्रकाशित होने वालॊ पाक्षिक पत्रिका ' दस्तक टाइम्स' के १५ अक्टूबर २००९ के अंक में प्रकाशित हुई है। इसके छपने के बाद बेटे अंचल जी कहा था कि मैं भी एक ' स्टोरी' लिखूँगा। उन्होंने लिखी भी जो इस पोस्ट से ठीक पहले लगी है। आप सबने बालक के लिखे को पसंद किया और अपनी महत्वपूर्ण राय दी अतएव आभार !अपनी ओर से और नन्हें कहानीकर की ओर से भी । अब देखते हैं कि इस नाचीज की यह कहानी आप को कैसी लगती है ? 'दस्तक टाइम्स' की पूरी टीम को धन्यवाद देते हुए 'कर्मनाशा' के पाठकॊं की सेवा में प्रस्तुत है यह कहानी - 'पुराना स्कूटर')


पुराना स्कूटर

* सिद्धेश्वर सिंह

आज से कुछ दिन पहले एक कविता लिखी थी - 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' . क्या आप सुनना पसंद करेंगे ? अजी छोड़िए साहब ! कविता आजकल सुनना कौन चाहता है. अखबारों - पत्रिकाओं में छपी हुई मिल जाय तो टाइमपास के लिए पाठक पढ़ जरूर लेता है . वैसे भी इस कविता में न तो किसी काल्पनिक सुन्दरी से सपने में किए गए प्यार - मुहब्बत की कोई बात है , न तो किसी का नेता - वेता का मजाक उड़ाया गया है और न ही किसी अड़ोसी - पड़ोसी देश की ऐसी - तैसी करने की ललकार भरी गई है . कुल मिलाकर यह कहने का मन कर रहा है कि जिस कविता का बार - बार जिक्र किया जा रहा है वह कविता है भी या कुछ और है ? अब प्रश्न यह है कि 'कविता क्या है ? बाबा रामचन्द्र शुक्ल और और उनके खेवे के लोग तो बहुत पहले ही किनारे लग लिए , भारतेन्दु की निज भाषा भी निरन्तर नई चाल में ढल रही है , मुंशी प्रेमचन्द अपनी मोटी मूँछों के बीच मन्द - मन्द मुस्करा रहे हैं कि देखो बेटा , क्या साहित्य अब भी राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है , मुक्तिबोध अंधेरे में कुछ तलाश रहे हैं , धूमिल लोहे का स्वाद पूछ रहे हैं और समकलीन कविता के अनेक देदीप्यमान नक्षत्र पुरस्करों की लेंड़ी बटोरकर देस - परदेस का फेरा लगा रहे हैं . अब ऐसे माहौल में 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' शीर्षक कविता भला कैसी बनी होगी यह सोचने की बात है।

आप राजधानी से निकलने वाली एक रंगीन पत्रिका के सम्मानित पाठक हैं जो मुख्यत: समाचारों पर केन्द्रित होती है , समाचार माने राजनीतिक उठापटक , फिल्मी हीरो - हीरोइनों के किस्से, लूटपाट - मारकाट - बलात्कार आदि - इत्यादि . इस तरह की पत्रिका में कविता या कहानी का छपना वैसा ही होता है जैसे कि दाल में नमक . आज शाम को बाजार से गुजरते हुए यह याद आया कि अब घाव पर नमक छिड़कने से ही चुभन नहीं होती बल्कि दाल छिड़कने से भी होती है. क्यों भला ? कविता - फविता पर बात तो होती रहेगी. आज शाम को की गई खरीददारी की स्मृति के आधार पर बनाई गई पर्ची तनिक देख लेवें -

डेटाल लिक्विड सोप छोटा पाउच - 52 रुपए
सन्फ्लावर कुकिंग आयल एक लीटर - 70 रुपए
सिंघाड़े का आटा आधा किलो - 25 रुपए
अरहर दाल एक किलो - 95 रुपए
शेविंग रेज़र यूज एन्ड थ्रो दो नग - 30 रुपए
आलू पुराना एक किलो - 20 रुपए
भिन्डी आधा किलो - 15 रुपए
सेब एक किलो - 85 रुपए
गुड़ आधा किलो - 22 रुपए
पेट्रोल टू टी आयल के साथ - 100 रुपए

क्यों साहब, क्या कुछ चुभन हुई ? क्या लगा - नमक या दाल ? अब तो दाल से जुड़े मुहावरों का अर्थ और वाक्य करने से भी मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है। तो यह था कल शाम के वक्त अपने कस्बे के बाज़ार का हालचाल. गणित अपनी हमेशा से कमजोर रही है लेकिन इतनी भी कम नहीं कि आमदनी और खर्चे का हिसाब न रखा जाय .ऊपर की गई खरीददारी का जोड़ कुल 514 रुपए का बैठता है. अगर इसी में कविता का भाव लिख दिया जाय तो ? एक किलो कविता का क्या भाव होगा ? वैसे कोई इसका खरीददार भी है क्या ? अगर नहीं है तो कवितायें लिखी किसके लिए जा रही हैं ? हिन्दी में रोज निकलने वाली नई - नई पत्रिकाओं के संपादक जी लोग उन्हें छाप क्यों रहे हैं ? अब तो गंगा - जमुनी मुशायरों और कस्बे के स्तर पर आयोजित किन्तु अखिल भारतीय हो जाने वाले कवि सम्मेलनों के दिन भी लद गए जिनमें लालाजी लोगों का पैसा लगता था और 'कबी जी' लोगों की मौज हुआ करती थी. एकतरफा प्यार - मुहब्बत में डूबे कुछ किशोर - युवा अपनी डायरी में कविताओं के टुकड़े उतारा करते थे और प्रेमपत्रों में उनका प्रयोग होता था.अब लगभग सब बदल गया है. फिर भी दो चीजें वैसी ही दिखाई दे रही हैं - एक तो कविता , जो अब भी लिखी जा रही है और पुराना स्कूटर जो अब भी चलता जा रहा है लगातार.

चलिए साहब , थोड़ी देर कहानी की बात कर ली जाय. सौ रुपए का पेट्रोल टू टी आयल के साथ कहाँ , किसमें डाला गया ? इंसान तो पेट्रोल पीता नहीं जरूर स्कूटर में डाला गया होगा. आपने ध्यान दिया होगा आजकल सड़क पर सबसे कम दिखाई देने वाली कोई सवारी अगर है तो वह स्कूटर है. आप पाठक हैं , पैसा खर्च करके आपने यह रंगीन पत्रिका खरीदी है इसलिए ज्यादा चाटूँगा नहीं लेकिन स्कूटर पर कहानी लिखनी है तो माडल , इंजन नंबर , चेसिस नंबर , रजिस्ट्रेशन नंबर वगैरह बताना तो पड़ेगा ही क्योंकि रूसी भाषा के एक बड़े कहानीकार बाबा चेख़व कह गए हैं कि कहानी में डिटेल्स बहुत जरूरी होते हैं. लेकिन इनमें आपकी क्या रुचि हो सकती है ? क्या फर्क पड़ता है कि स्कूटर का इंजन नंबर , चेसिस नंबर , रजिस्ट्रेशन नंबर आदि - इत्यादि क्या है ! बताया तो यह जाय कि यह स्कूटर किसके नाम है और इसे चलाता कौन है. लीजिए साहब सुनिए - इसकी ओनरशिप बाबूजी के नाम है , चलाते भी वही हैं. परिवार में उनको मिलाकर कुल चार सदस्य हैं लेकिन स्कूटर पर एक बार में तीन ही आ प्तकते हैं. यह चौदह साल पुराना माडल है. बाबूजी ने उसी साल लिया था जिस साल बेटी का जन्म हुआ था जो अब क्लास नाइन्थ में पढ़ती है. बेटे के जन्म के समय सोचा था कि बाइक ले लेंगे लेकिन हो न सका और अब तो बेटे जी भी क्लास थ्री में पढ़ रहे हैं. वही स्कूटर अब भी है - चौदह साल पुराना. अपने बाबूजी कवि हैं वे इसे पुराने खेवे का स्कूटर कहते हैं.अब आप ही बताइए ऐसे पुराने स्कूटर पर क्या कहानी लिखी जाय जो मुश्किल से बीस का एवरेज देता है और आए दिन खराब होता रहता है . आप कहेंगे नया ले लो ., लेकिन मैं कैसे कह दूँ क्योंकि मैं तो स्कूटर को भी जानता हूँ और उसके सवार बाबूजी को भी.

कुछ लिखना तो है , किसी तरह से दो - तीन पेज पूरे करने हैं , पर लिखा क्या जाय ? देश के दिल दिल्ली में वास करने वाले बड़े आलोचक और कहानीकार का कहना है कि विषयों की कोई कमी नहीं है , नए लेखक ही अपनी जमीन से उखड़ गए हैं. वे न तो गाँव के रह गए हैं न ही शहर के , और कस्बों में कोई रहना नहीं चाहता है. लेकिन अपना यह स्कूटर सवार कवि - कथाकार कस्बे में ही रहता है. उसके बच्चे इसी कस्बे के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं, इसी कस्बे की एक कलोनी में उसका अपना एक आशियाना है जो बैंक से कर्ज लेकर बनाया गया है और जिसकी किश्तें उतने ही समय तक अदा करनी हैं जितने समय तक कि किसी नए स्कूटर का पंजीकरण होता है. बार - बार यह स्कूटर बीच में क्यों आ जाता है भाई ! आप तो हिन्दी साहित्य के सुधी पाठक हैं , सो याद होगा कि आज से कई साल पहले एक बड़े कहानीकार ने स्कूटर पर एक कहानी लिखी थी और एक बड़ी पत्रिका में छपने के बाद मिले पारिश्रमिक से कार खरीदने के कारण उसकी खूब चर्चा हुई थी. तभी अपने बाबूजी ने सोच लिया था कि जब अपना स्कूटर पुराना हो जाएगा तो उस पर एक कहानी लिखेंगे और प्रकाशित होने पर पारिश्रमिक से मिले पैसों से कार खरीदेंगे. अब स्कूटर तो पुराना हो गया लेकिन कहानी नहीं लिखी गई अलबत्ता 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' कविता में पुराने स्कूटर का जिक्र जरूर आया है.अगर आप बोर न हो रहे हों तो आइए कुछ पंक्तियाँ देख ही लेते हैं -

कस्बे के हृदय स्थल
अर्थात मेन चौराहे पर
अपना चौदह साल पुराना स्कूटर रोक कर
आँख भर देख रहा हूँ
रोज - रोज बनती हुई एक दुनिया
और सोच रहा हूँ अच्छा - सा होगा अगला साल.

उम्मीद अब भी बाकी है. कस्बा अब भी शहर बनने की संभावना से भरा हुआ है. बच्चे अब भी स्कूल जा रहे हैं. मार तमाम गर्मी के बावजूद भी इस साल गुलमुहर और अमलतास में खूब फूल आए. ग्लोबल वार्मिंग की धमक के बीच भी फसलों में दाने आ रहे हैं और बारिश भी काम भर हो ही जा रही है.माना कि बाजार में आग लगी है और चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं जैसा कि ऊपर दर्शाई गई पर्ची से स्पष्ट हो रहा है फिर भी कविता अब भी लिखी जा रही है और अपने बाबूजी का पुराना स्कूटर अब भी चलता जा रहा है. यह क्या है ? क्या यह आश्चर्य है ? क्या यह आश्चर्य है कि सोलह वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद पति - पत्नी अब भी प्यार कर रहे हैं ? मोबाइल और इंटरनेट के बाद भी डाकिया हर तीसरे चौथे दिन कोई न कोई डाक लेकर चला ही आता है भले ही उनमें पत्र - पत्रिकायें ही क्यों न होती हों. हाँ , अब भी कभी किसी काम से दिल्ली - लखनऊ जाने पर जी घबराता है . इसी घबराहट की स्मृति में कविता भी बन जाती है और कस्बे कें लगातार बढ़ रहे चौपहिया वाहनों की बेतरतीब आवाजाही से लगे जाम के बीच से दायें - बायें काटते हुए पुराना स्कूटर निकाल ले जाना भला - सा लगता है. लेकिन अभी आज सुबह का एक ऐसा वाकया हुआ है जिसने कि ठहरे हुए पानी में उथल - पुथल मचा दी है. मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं जो इसका यथावत वर्णन कर सकूँ , न ही कोई पत्रकार ही हूँ जो आँखो देखी रपट छाप दूँ और न ही चौबीस घंटे चलने वाले किसी टीवी चैनल का कोई एंकर ही हूँ जो कि पूरा का पूरा दृश्य सामने परोस देता है. तब क्या किया जाय ? पुराने खेवे के कथाकार याद आने लगे हैं . वे अपनी रचनाओं में बहुत महीन कताई न करके सीधे - सादे शब्दों में वर्णनात्मक व संवाद शैली का सहारा लेते हुए कहानी कह जाया करते थे. चलिए, कोशिश करते हैं कि कुछ वैसा ही किया जाय -

एक अधबनी कालोनी का लोहे के मजबूत फाटक वाला मकान. नेमप्लेट से गृहस्वामी की हैसियत का पता चलता है. इतवार का दिन है बच्चे खेल रहे हैं . स्त्रियाँ रसोईघर में अपनी पाककला के प्रयोग में व्यस्त हैं और पुरुष चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ने के काम में लगे हुए हैं. तभी किसी फेरी वाले की आवाज आती है जो पास आती जा रही है -' कबाड़वाला .. लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..' कबाड़ी गेट के सामने आकर अपनी साइकिल रोकता है . गृहस्वामी जो अभी तक पोर्च में बैठा अखबार पढ़ रहा था ,आँखों से चश्मा उतारकर गेट की तरफ देखता है.

कबाड़ी - कबाड़ है क्या बाबूजी ? लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..
बाबूजी - नहीं .
कबाड़ी - अखबार तो होगा ही.
बाबूजी - कल ही बेच दिया भाई.अब तुम अगले महीने आना.
कबाड़ी की पारखी आँखें कबाड़ तलाश रही हैं. उसे हर जगह अपने काम लायक कुछ न कुछ दीख ही जाता है. यहाँ भी वह अपने मतलब की चीज को पहचान ही गया.
कबाड़ी - ये स्कूटर तो अब बेच ही दो साब.
बाबूजी - क्यों ?
कबाड़ी - पुराना है . कबाड़ ही तो हो गया. किलो के भाव बिकेगा.

बाबूजी सन्न. बाबूजी के हृदय को ठेस लगी. उन्होंने कुछ नहीं कहा. कबाड़ी कुछ देर खड़ा रहा. बाबूजी को चुप देखकर वह समझ गया कि माजरा क्या है और 'कबाड़वाला .. लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..' की आवाज लगाता हुआ आगे बढ़ गया.

पुरानी कहानियों के अंत में लेखक पाठकों से सीधे संवाद करता था. अभी तक आप जो कुछ पढ़ते- पढ़ते इस जगह तक पहुँच गए हैं वह कहानी है अथवा नहीं यह तो विद्वान लोग ही जानें लेकिन आपसे सीधे संवाद करने का मन कर रहा है. तो हे पाठकवृंद ! अपने बाबूजी कई दिनों से चुप हैं , बच्चों से , पत्नी से काम भर की बात करने से कतराने लगे हैं , अपनी नौकरी के काम में भी अक्सर गलतियाँ करने लगे हैं और कस्बे के कवियों के कई फोन आने पर एक दिन रिक्शे पर सवार होकर काव्य गोष्ठी में गए भी तो 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' शीर्षक कविता को अपनी आखिरी कविता कहकर सुनाया. सुना है उस दिन से कस्बे के कवियों के बीच खुशी की लहर दौड़ रही है. दबी जुबान से कहा भी जा रहा है कि बाबूजी भी अब कबाड़ हो गए.

अरे ! आपको यह तो बताना ही भूल गया कि पुराने स्कूटर का क्या हुआ ?