यह एक अधूरा -सा आलेख है। अधूरा अगर न कहूँ तो एक 'बनता हुआ' अथवा निर्माणाधीन आलेख कह सकता हूँ। यह एक निजी बयान अथवा अपने अतीत का उत्खनन भी है। आज अगर मैं 'दो आखर' कुछ लिख - पढ-कह लेता हूँ तो यह एक तरह से उसके बनने की पूर्वकथा भी है। अभी १८ नवंबर २०१० की सुबह - सुबह भाई डा० संतोष मिश्र का एस.एम.एस. आया:
ताल में जमकर पानी और उसमें मछली रानी हो।
बर्फ़ की चादरओढ़ के सर्दी में काँपता सैलानी हो।
मिश्र जी के एस.एम.एस. से पता चला कि आज (१८ नवंबर) नैनीताल का 'हैप्पी बड्डे' है। ओह ! तो अब शहर भी अपना जन्मदिन मनाने लग पड़े हैं! खैर, इस एस.एम.एस. ने अपने पुराने दिनों की याद दिलाई तो उन दिनों की स्मृतियों को टटोलते हुए लिखे इस लेख की याद आई। पता नहीं इसमें दूसरों की क्या रुचि हो सकती है..लेकिन...फिर भी एक निर्माणधीन आलेख का यह एक हिस्सा आइए साझा करते हैं...
कटोरा भर आसमान के नीचे दस बरस
आदमी ने कुछ भी किया हो
कितना ही अत्याचार या दुराचार
उसके पास कुछ तो होता है
जो टूटने-फटने के बावजूद बचाने के काबिल होता है
और जिसे सहेजने वाला एक दूसरा आदमी निकल ही आता है.
(अशोक वाजपेयी की कविता 'कबाड़ी' का एक अंश)
मुझे लगता है कि जीवन एक गद्यकथा है- तमाम तरह के आरोह- अवरोह, उठापटक,छल प्रपंच,राग-द्वेष से रची बसी एक ऐसी गद्यकथा जो कविता का अतिक्रमण करते हुए अपनी निर्मिति और निरंतरता का मार्ग चुनती है फिर भी तनिक अवसर और अवकाश पाते ही कविता के शरण्य में दुबक भी जाना चाहती है. भयावहता और भवुकता के तटों से टकराकर जीवन नदी का प्रवाह अविराम चलता ही रहता है. इसी में उसकी गति है और दुर्गति भी.
मनुष्य के जीवन में दस वर्ष का समय कोई छोटा कालखंड नहीं होता. दस वर्षों में कितना कुछ बन-बदल और बिगड़ जाता है. और ऐसे संधिस्थल पर जब आप किशोरावस्था से प्रस्थान कर रहे होते हैं तब ये दस वर्ष कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण,मूल्यवान और मारक होते हैं.दूसरे शब्दों में कहें तो बाकी जिन्दगी पर अनमिट छाप अंकित करने का छापखाना होते है ये दस वर्ष.
गद्य को गद्य की तरह और कविता को कविता की तरह ही लिखा जाय तो बेहतर होगा. ऐसा नहीं है कि कविता गरिष्ठता को गला देती है या कि गेयता गल्प के आस्वाद को अनर्गल बना देती है फिर भी-
बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग-लग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे.
मगर कविता को कोई
खोले ऐसे उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह.
(भवानीप्रसाद मिश्र की कविता 'बुनी हुई रस्सी' का एक अंश)
॥०१॥
मैंने एक विद्यार्थी की हैसियत से अपने जीवन के दस वर्ष नैनीताल में व्यतीत किये. सीधे-समतल-सपाट मैदानी इलाके से आकर मैं पहाडियों से घिरे इस शहर में पढ़ता-बढ़ता और स्वयं को गढ़ता रहा. नैनीताल से पहला शाब्दिक साक्षात्कार इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में शामिल कहानी 'अपना- अपना भाग्य' (जैनेन्द्र कुमार) से हुआ. इस कहानी में लेखक और एक निराश्रित बालक के बीच यथार्थ की मुठभेड़ के साथ ही निरुद्देश्यता और रोमानीपन भी है. इस कहानी का आरंभ ही रोमानीपन से होता है-
" बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड्क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए. नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी. रुई के रेशे-से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे. हल्के प्रकाश और अंधियारी में रंग कर कभी वे नीले दीखते ,कभी सफेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते. वे जैसे हमारे सथ खेलना चाह रहे थे.
हमारे पीछे पोलो वाला मैदान फैला था. सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद-गृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वह सुरम्य अनुपम नैनीताल."
साठ-सत्तर के दशक की हिन्दी फिल्मों में पहाड़ी शहरों-कस्बों के बहुत खूबसूरत लोकेशंस हैं. प्रायः ऐसी जगहों पर तफरीह करने या छुट्टियां बिताने आए नायक को एक रूपसी प्रेयसी मिल जाया करती थी. फिर तो प्यार-मुहब्बत, नाच-गाना, मिलन-बिछोह, आंसू-रुदन आदि इत्यादि और 'दी एन्ड'. इंटर कालेज में हिन्दी के हमारे अध्यापक 'पांडेय मास्साब' ने नैनीताल को लेकर बन रही हमारी रोमानी छवि को अपने संस्मरणों से और बढ़ाने का काम किया. रही-सही कसर 'पूजा' नामक उपन्यास ने पूरी कर दी.
छोटे मामा को उपन्यास पढ़ने का शौक था. धीरे-धीरे यह लत मुझे भी लग रही थी. एक दिन मामा के जरिए ही एक उपन्यास हाथ लगा जिसका शीर्षक 'पूजा' था और लेखक का नाम रानू. इसका कथानक कुछ इस तरह है कि सिस्टर पूजा नैनीताल के एक प्रसिद्ध अस्पताल में नर्स है-एक सुंदर, कर्मठ, ममतामयी नर्स. नायक जो एक कलाकर है अपने शहर लखनऊ से नैनीताल घूमने आया है,बीमार पड़ जाता है. अस्पताल भर्ती नायक की सेवा-सुश्रुषा करते-करते प्रेम का बीज पड़ जता है. साथ जीने-मरने की कसमें-वादे और स्वस्थ होने पर एक दिन उसे सदा के लिए अपना जीवनसाथी बनाने का वादा कर लखनऊ चला जाता है. जब लंबे समय तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती तो पूजा काठगोदाम से 'नैनीताल एक्सप्रेस' में सवार होकर लखनऊ के लिये चल देती है. रास्ते में किसी स्टेशन से चढ़े गुंडे उसके साथ बलात्कार करते हैं. वह अपनी यात्रा स्थगित कर नैनीताल लौटती है और झील में कूदकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती है. इस उपन्यास ने मेरे किशोर मन पर नैनीताल की ऐसी छाप अंकित की जो आज तक विद्यमान है. आज भी जब नैनीताल में होता हूं तो झील के किनारे से गुजरते हुए 'सिस्टर पूजा' की याद आ जाती है.पिछले कई वर्षों से मैं इस उपन्यास को एक बार फिर से पढ़ना चाहता हूं लेकिन वह नहीं मिल रहा है तो नहीं मिल रहा है.
अपने गांव के पास के कस्बे दिलदार नगर के अति प्रतिष्ठित आदर्श इंटर कालेज से स्कूल स्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद इच्छा थी कि 'पूरब के आक्स्फोर्ड' इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ा जाय लेकिन प्राप्तांक कम होने कारण जब वहां प्रवेश नहीं मिला तो इलाहाबाद के ही ईविंग क्रिश्चियन कालेज में प्रवेश तो ले लिया परंतु छात्रावास नहीं मिला. एक दिन ऐसे ही घूमते- घामते ननीताल पहुंच गया तो उस समय के डी.एस.बी. संघटक महाविद्यालय और आज के कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर में थोड़ी परेशानी के बाद प्रवेश मिल गया और ब्रुकहिल छात्रावास के कमरा नंबर वन ए/१२ में ठिकाना. शुरुआत में सोचा था कि यहां से बी.ए. करके जे.एन.यू. या फिर बी.एच.यू. निकल लूंगा लेक़िन नैनीताल से ऐसा बंधा कि एम.ए. और पीएच.डी. करते-करते दस वर्ष कब गुजर गए पता ही नहीं चला.
पिछले कई बरसों से घाट-घाट का पानी पीकर भारत के अलग-अलग इलाकों में डोल रहा हूं .किसिम-किसिम की जगहें देखी हैं,तरह-तरह के लोगों से मिला हूं लेकिन नैनीताल को कभी भुला नहीं सका.आज भी जब भी कभी मौका मिलता है तो निकल पड़ता हूं अपने 'शहरे तमन्ना' की तरफ. पत्नी-बच्चे छेड़ते हैं -'मायके जा रहे हो! .हां नैनीताल मेरा मायका ही तो है .भले ही मैंने वहां जन्म नहीं लिया लेकिन उसके आंगन में ही तो मेरे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है.आज जब इतने दिनों के बाद नैनीताल पर लिखना है तो मेरे सामने समस्या यह है कि क्या,कैसे और किस तरह लिख जाय? जो विचार,वस्तु या स्थान आपकी संवेदना से संपृक्त हो गया हो उसे तटस्थ या विलग होकर देखना दुष्कर तो होता ही है.अपने लेखन के शुरुआती दौर में मैंने नैनीताल के ऊपर काफी कुछ लिखा था. वह यत्र-तत्र प्रकाशित भी हुआ था लेकिन आलस्य या अपनी आदत की वजह से उसे बहुत सहेज कर नहीं रख पाया. एक लेख था- 'नैनीतालः अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर...'जो यहीं से निकलने वाले एक पाक्षिक अखबार के लिए लिखा था.अब वह अखबार तो नहीं निकलता लेकिन उसके संपादक प्रयाग पांडे अब भी मुझे उसी लेख के कारण ही याद कर लेते हैं. दुर्योग से उस लेख की प्रति मेरे पास नहीं है फिर भी स्मृतियों पर पड़ी गर्द को झाड़कर कुरेदता हूं तो पता चलता है कि उस लेख में मैंने चमक-दमक से भरपूर और आत्ममुगध दिखने वाले नैनीताल का एक दूसरा चेहरा दिखाने की कोशिश की थी जहां अंधेरा है,दुःख है,कष्ट है,दरिद्रता है,संघर्ष है और वह सब कुछ है जिसे हम देखने से कतराते-बचते हैं. कभी-कभी लगता है कि इसी 'कतराने और बचने की कला' में पारंगत और प्रवीण होने को ही जीवन में 'सफल' होना माना जाता है शायद?
॥ ०२॥
नैनीताल में रहते हुए बहुत सी कवितायें नैनीताल पर लिखी थीं। उसी दौर की अपनी एक कविता :
हाल-ए-नैनीताल
क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में .
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में .
कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में .
इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती-सी है इस शहर की चाल में .
धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो-जंजाल में .
आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में .
इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय-सुर -ताल में