गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

समुद्र , हँसी और किताबों का स्पन्दन : अन्ना स्विर

इस ठिकाने पर आप पिछली शताब्दी की पोलिश कविता के कुछ चुनिन्दा अनुवादों से रू-ब-रू हो चुके हैं। इसी क्रम में आज एक ( और) पोलिश कवयित्री अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का ( १९०९ - १९८४ ) की कुछ कवितायें पढ़वाने का मन है। पोलैंड इस  कवयित्री को  नाम  'अन्ना स्विर' जैसे छोटे नाम से भी जाना जाता है। उन्नीस बरस की उम्र से अन्ना की कवितायें छपने लगी थीं और दूसरे विश्वयुद्ध के समय वह पोलिश प्रतिरोध आन्दोलन से जुड़कर नर्स के रूप में उपचार सेवा कार्य  तथा  भूमिगत प्रकाशनों से भी सम्बद्ध रहीं। बाहरी दुनिया के कविता प्रेमियों से अन्ना का परिचय  करवाने में 1980 में साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार प्राप्त  करने वाले  मशहूर पोलिश कवि, निबंधकार व अनुवादक चेस्लाव मिलेश की भी बड़ी भूमिका रही है। अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की कविताओं में स्त्री देह ( व मन ! ) , मातृत्व, दैहिकता व युद्ध के अनुभव जगत की विविध छवियाँ विद्यमान दिखाई हैं जिनसे गुजरना एक अलग तरह का अनुभव है। आइए , आज देखते पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायें... 


अन्ना स्विर्सज़्यान्स्का की दो कवितायें
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )

०१- समुद्र और आदमी


समुद्र को तुम  नहीं कर सकते वश में
चाहे फुसला  कर
या फिर खुश होकर।
लेकिन तुम हँस तो सकते ही हो
उसकी शक्ल पर।

हँसी एक चीज है
उनके द्वारा खोजी गई
जिन्होंने एक लघु जीवन जिया
हँसी के उफान की तरह।

यह अनन्त समुद्र
कभी नहीं सीख पाएगा
हँसना।

०२- खुशनसीब था वह

बूढ़ा आदमी
घर से निकल पड़ता है किताबें थामे।
एक जर्मन सिपाही
छीन लेता है उसकी किताबें
और उछाल देता है कीचड़ में।

बूढ़ा आदमी समेटता है उन्हें
उसके मुँह पर
मुक्का मारता है सिपाही
लुढ़क जाता है बूढ़ा आदमी
और उसे लतिया कर भाग जाता है सिपाही ।

कीचड़ और खून में
लथपथ लेटा है बूढ़ा आदमी
वह महसूस कर रहा है अपने नीचे
किताबों  का स्पन्दन।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

हम एक ही सेब की दो समान फाँकें हैं


लिखत -पढ़त की साझेदारी के इस ठिकाने पर आप विश्व कविता के अनुवादों की सतत उपस्थिति से परिचित होते रहे हैं। इसी क्रम में आज बीसवी शताब्दी की तुर्की कविता के एक बड़े हस्ताक्षर ओक्ते रिफात ( १९१४ - १९८८) के रचना संसार की एक झलक से रू-ब- रू किया जाय। तुर्की  में 'नई 'कविता' आन्दोलन के इस प्रमुख रचनाकार  का विस्तृत जीवन परिचय तथा  कुछ और कवितायें जल्द ही । आज और अभी तो बस...
  

ओक्ते रिफात की दो कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


०१- कृतज्ञता ज्ञापन 

मुझे  कृतज्ञ होना चाहिए
अपने जूतों का
अपने कोट का।

मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
गिरती हुई बर्फ़ का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
आज का
आज के इस आनंदमय क्षण का।

मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
धरती और आकाश का।
मुझे कृतज्ञ होना चाहिए
उन सितारों का जिनका नाम भी  नहीं मालूम।

प्रार्थना करो
कि मैं बन जाऊँ पानी
कि मैं बन जाऊँ आग।

०२- पत्नी के लिए 

सभागारों में शीतलता व्याप रही है तुमसे
कोठरियों में
तुम्हारे साथ उतर आया है प्रकाश
तुम्हारे बिछावन में
आँख खोल रही है सुबह
ताकि शुरू  हो सके पूरे दिन भर की खुशी।

हम एक ही सेब की दो समान फाँकें हैं
एक ही हैं हमारे दिन और रात
एक ही हैं हमारे घर।

तुम्हारे कदम
जहाँ - जहाँ पड़ते हैं
वहाँ - वहाँ मुदित होकर बढ़ती जाती है घास
और जहाँ - जहाँ से
गुजर जाती हो तुम
वहाँ - वहाँ से दाखिल होने लगता है अकेलापन।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

रात बीतेगी अपने ही भँवर में डूबकर

The night is good fertile ground
for a sower of verses.
                      - Jorge Luis Borges
अभी रात है। आधी बीत चुकी ;आधी बीतने को बाकी ...तैयार। अभी  बस  कुछ  ही घंटे पहले तक शाम थी और अब से  बस कुछ ही घंटे बाद भोर होगी .. फिर सुबह , प्रात:काल। आजकल सुबह - सुबह कोहरा हो जाता है। सूरज उगने के बाद भी अपने ताप से गरमाता नहीं। रोशनी भी कुछ कम होती है। ऐसा लगता है कि दिन का कुछ हिस्सा भी गोया रात  का ही  विस्तार है। फिर भी दुनिया रोज बनती है , चलती है अपनी  ही रोजमर्रा की चाल। कामधाम हस्बमामूल चलता है। शाम जल्दी घिर आती है और एक मौका देती है कि दिन भर की टूट-फूट  की मरम्मत की जाय...बतियाया जाय खुद से.. ओह ! फिर से याद आ रही है Borges की...
I must enclose the tears of evening
in the hard diamond of the poem.

.....बहरहाल ,अभी रात अभी बाकी है, सुबह उठना है , समय से काम पर जाना है... और अभी , इस वक्त  ...सोने से पहले सात छोटी - छॊटी कवितायें..शीर्षकहीन ..आइए देखें..पढ़े ..



रात में बात : सात कवितायें
-

इच्छाओं के समुद्र में
उभ -चुभ
दिन और रात.

कहाँ है फुरसत
कब करें
खुद से मुलाकात ?


-

रात है
रात में है कोई बात।

दिन भर खोया रहा
जग में।
इस वक्त
अपने संग
अपना ही साथ।


३-

धूप हुई
उड़ गया
भाप बन पानी।

खुली हथेलियों में
बंद है
शायद कोई कहानी।

-

दिन चढ़ेगा
बढ़ेगा कुछ ताप।

निकलना होगा
घर से चुपचाप।
भाषाओं के जंगल में
अनसुना रह जाएगा
एकालाप।

-

शाम होगी
लौटना होगा बसेरे की ओर।

याद -सा करूँगा तुम्हें
और
अपनी ओर खींच - सी लेगी
कोई अदृश्य डोर।

-

यह कोई छाँव है
अदेखे पेड़ की
या कोई डेरा
कोई पड़ाव !

यह कोई घर है
या किसी नदी का तट
जहाँ रोज लौट आती है
हिचकोले खाती एक नाव !

-

बहुत चमकीला है
आज का चाँद
खिड़कियों से छनकर
आ रही है उजास।

रात बीतेगी
अपने ही भँवर में डूबकर
बना है
बना रहे यह अहसास।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

गुनगुनाती है कोई निरर्थक आवाज

Sand on the bottom whiter than chalk,
and the air drunk, like wine,
late sun lays bare
the rosy limbs of the pine trees.
                                 - Anna Akhmatova
अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खा़ना' पर पहले भी पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना  और विश्व कविता के प्रेमियों के  समक्ष रखना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए, न ही देर । सो ,आज एक बार फिर बिना किसी विस्तृत लिखत - पढ़त के प्रस्तुत है  उनकी एक  और कविता ......


अन्ना अख़्मातोवा की कविता
संध्या समय
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

उपवन का संगीत बजता है मेरे भीतर
और पूरित कर देता है अवर्णनीय उदासी से
उत्तरी समुद्रों से आने वाली तीखी हवा
बर्फ में जमी हुई सीपियों में
प्रवाहित कर देती है ताजेपन की सुवास.

मेरे गाउन की डोरियों को
आहिस्ते से स्पर्श कर
उसने कहा था " तुम हो मेरे सबसे अच्छे दोस्त"
आह , आलिंगन से कितनी अलग है
हाथों की यह हल्की - सी छुवन.

जैसे कि कोई पालतू बिल्ली
कोई चिड़िया
या घोड़ों को हाँकती हुई किसी लड़की को देखना
और जैसे
सुनहली बरौनियों के भीतर
शान्त थमी हुई हँसी जैसा कुछ - कुछ

सतह से लगभग चिपकी हुई बाड़ के पीछे से
गुनगुनाती है कोई निरर्थक आवाज -
" शुक्रिया , इस स्वर्गिक अनुभूति और आनन्द के लिए !
आज पहली बार
तुम्हें नसीब हुआ है अपने प्रियतम का संग - साथ."
----
( * अन्ना का पोर्टेट : ओल्गा देला -वोस-कार्दोवास्काया,१९१४ )



शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

नदी अपने आईने में अक्स देखेगी

...the river has water enough
to be poetic !


अभी एकाध दिन पहले अपने एक पसंदीदा ब्लॉग '...चाँद पुखराज का..' पर एक कविता पढ़ते हुए मशहूर भारतीय अंग्रेजी कवि ए.के.रामानुजन की कविता 'A River' की याद हो आई , उसे पढ़ लिया  तो इसी क्रम में केदार जी (केदारनाथ अग्रवाल) की कविता 'नदी आज उदास थी' की भी याद आई, उसे भी पढ़ा और ममांग दाई की 'River Poems' की कविताओं से भी खूब गुजरना  हो गया। यह सब तब हुआ जब अपने आसपास न तो कोई नदी थी और न ही उसमें प्रवाहित होने वाला जल। रात के एकांत में अपने घोंसले में  दुबककर बैठे एक पाखी की मानिंद संवाद व एलालाप करते एक कविता के बहाने कई - कई कविताओं की नदी बह चली। नवारुण भट्टाचार्य कहते हैं - 'आखिर एक अकेली कविता / मचा सकती है कितना कोलाहल' ,खैर कोलाहल मचा और 'तुमुल कोलाहल कलह में हृदय की बात' सुनते हुए उसी प्रवाह में  अपनी (भी)  यह कविता लिखी गई। आइए इसे  देखें...साझा करें..



नदी : राग विराग
                   ( सिद्धेश्वर सिंह )
नदी की
उदासी का हाल
बतायेंगी मछलियाँ
मछलियों की उदासी
प्रतिबिंबित होगी जल में - जाल में।

जाल की उदासी से
उदास हो जायेंगे मछुआरे
मछुआरों की उदासी
बाजार में भर देगी सन्नाटा।

जैसे - तैसे बीत जाएगा
एक अकेला दिन
शाम होगी उनींदी
रात उतरेगी चुप्पी से लबरेज
और आकाश के काले कैनवस पर
उभरने लगेगी उदास चाँद की पेंटिंग।

नदी अपने आईने में
अक्स देखेगी
अजनबी - सी लगेगी उसे अपनी पहचान।
खिन्न करेगा
मन:स्थिति का मारक विस्तार।

नदी उठेगी
निहारेगी अपने इर्दगिर्द
दुरुस्त करेगी अपने वाद्ययंत्र
अंजुरी भर जल पीकर
खँखारकर ठीक करेगी अपना रुँधा गला
और समय के रंगमंच पर
छेड़ देगी कोई नया राग।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

निज़ार क़ब्बानी : जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में....



I become ugly when I don't love
And I become ugly when I don't write.

निजार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) न केवल सीरिया में बल्कि साहित्य के समूचे अरब जगत में प्रेम , ऐंद्रिकता , दैहिकता और इहलौकिकता के कवि माने जाते हैं| उन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा , नई भाषा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ - मांस के स्त्री - पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस वजह से उनकी प्रशंसा भी हुई है और आलोचना भी किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने अपनी कविता के बल पर बहुत लोकप्रियता हासिल की है. तमाम नामचीन गायकों ने उनके काव्य को वाणी दी है. साहित्यिक संस्कारों वाले एक व्यवसायी परिवार में जन्में निजार ने दमिश्क विश्वविद्यालय से  विधि की उपाधि प्राप्त करने के बाद दुनिया के कई इलाकों में राजनयिक के रूप में अपनी सेवायें दीं जिनसे उनकी दृष्टि को व्यापकता मिली. उनके अंतरंग अनुभव जगत के निर्माण में  स्त्रियों की एक खास भूमिका रही है । चाहे वह मन चाहे पुरुष से विवाह  न कर पाने के कारण बहन विस्साल की आत्महत्या हो या बम धमाके में  पत्नी की मौत. 

Love me and say it out loud
I refuse that you love me mutely.

निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी जब वे सोलह साल के थे और इक्कीस बरस उम्र में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय  था और दुनिया के साथ अरब जगत का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई शक्ल ले रहा था। ऐसे में निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही उनकी लोकप्रियता का कारण बना। यह एक तरह से परम्परा से मुक्ति थी और अपनी दुनिया को अपनी ही आँखों से देखने हिमायत। यहा प्रेम एक 'टैबू' नहीं था और न ही कोई गैरदुनियावी चीज। वे लिखते हैं 'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ आता है जितनी स्वाभाविकता के साथ  कि सेब में मिठास आती है।'

Nothing protects us from death
Except woman and writing.

निजार कब्बानी  की कविताओं में में एक दैनन्दिन साधारणता है और देह से विलग होकर देह की बात किए  जाने की चतुराई जैसा छद्म नैतिक आग्रह भी नहीं है। उन पर दैहिकता और इरोटिसिज्म को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया गया. खैर वे लगातार लिखते रहे - मुख्यतरू कविता और गद्य भी। उनकी कविता साहित्य और  संगीत की जुगलबन्दी की एक ऐसी सफल - सराहनीय  कथा है जो  रीझने को मजबूर तो करती ही  है , रश्क भी कम पैदा नहीं करती। तभी तो लम्बे अरसे तक एक सफल राजनयिक के रूप में सेवायें देने के बाद जब लंदम में उनकी मृत्यु हुई तो तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपनी निजी विमान उनक्के पार्थिव शरीर को लाने के लिए लंदन भेजा और 'लंदन टाइम्स' ने उन्हें 'आधुनिक अरब जगत के सबसे प्रमुख प्रेम कवि  के रूप याद किया और 'वाशिंगटन पोस्ट' ने 'प्रेम कविता का शहंशाह' के रूप में याद किया


निज़ार क़ब्बानी की  दो प्रेम कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

01 -अनुनय

दूर रहो
मेरे दृष्टिपथ से
ताकि मैं रंगों में कर सकूँ अन्तर।

दूर हो जाओ 
मेरे हाथों की सीमा से
ताकि मैं जान सकूँ 
इस ब्रह्मांड का वास्तविक रूपाकार
और खोज कर सकूँ
कि अपनी पृथ्वी है सचमुच गोलाकार।

02 - विपर्यय

जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में
बदल - सा गया है 
ऊपर वाले का साम्राज्य।

संध्या शयन करती है 
मेरे कोट के भीतर
और पश्चिम दिशा से उदित होता है सूर्य।


मंगलवार, 30 नवंबर 2010

तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें


I have brushed my teeth.
This day and I are even.
                              -Vera pavlova

वेरा पावलोवा छोटे कलेवर की बड़ी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। उनके पन्द्रह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। १९६३ में जन्मी वेरा पावलोवा आधुनिक रूसी कविता का एक ख्यातिलब्ध और सम्मानित नाम है। वह संगीत की विद्यार्थी रही हैं। इस क्षेत्र में उनकी सक्रियता भी है किन्तु बाहर की दुनिया के लिए वह एक कवि हैं - 'स्त्री कविता' की एक सशक्त हस्ताक्षर। लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें -




वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-

'हाँ' कहना

क्यों इतना छोटा है 'हाँ' शब्द
इसे होना चाहिए
सबसे लम्बा
सबसे कठिन
ताकि तत्क्षण निर्णय न लिया जा सके
इसके उच्चारण का।
ताकि बन्द न हो परावर्तन का पथ
और मन करे तो 
बीच में रुका जा सके इसे कहते - कहते।

०२-

निरर्थकता का अर्थ

हम धनवान हैं 
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताकाझाँकी करने में व्यस्त हैं।

हम बतियाते हैं 
उन चीजों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला 
झरता जाता है धीरे - धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट - मृतप्राय
चलो - तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।




सोमवार, 29 नवंबर 2010

रविवार, 28 नवंबर 2010

कटोरा भर आसमान के नीचे


यह एक अधूरा -सा  आलेख है। अधूरा अगर न कहूँ तो एक 'बनता हुआ' अथवा निर्माणाधीन आलेख कह सकता हूँ। यह एक निजी बयान अथवा अपने अतीत का उत्खनन भी है। आज अगर मैं 'दो आखर' कुछ लिख - पढ-कह लेता हूँ तो यह एक तरह से उसके बनने की पूर्वकथा भी है। अभी १८ नवंबर २०१० की सुबह - सुबह  भाई डा० संतोष मिश्र का एस.एम.एस. आया:

ताल में जमकर पानी और उसमें मछली रानी हो।
बर्फ़ की चादरओढ़ के सर्दी में काँपता सैलानी हो।

 मिश्र जी के एस.एम.एस. से पता चला कि आज (१८ नवंबर) नैनीताल का 'हैप्पी बड्डे' है। ओह ! तो अब शहर भी अपना जन्मदिन मनाने लग पड़े हैं! खैर, इस एस.एम.एस. ने अपने पुराने दिनों की याद दिलाई तो उन दिनों की स्मृतियों को टटोलते हुए  लिखे इस लेख की याद आई। पता नहीं इसमें दूसरों की क्या रुचि हो सकती है..लेकिन...फिर भी एक निर्माणधीन आलेख का यह एक हिस्सा आइए साझा करते हैं...




कटोरा भर आसमान के नीचे दस बरस

आदमी ने कुछ भी किया हो
कितना ही अत्याचार या दुराचार
उसके पास कुछ तो होता है
जो टूटने-फटने के बावजूद बचाने के काबिल होता है
और जिसे सहेजने वाला एक दूसरा आदमी निकल ही आता है.

                    (अशोक वाजपेयी की कविता 'कबाड़ी' का एक अंश)

मुझे लगता है कि जीवन एक गद्यकथा है- तमाम तरह के आरोह- अवरोह, उठापटक,छल प्रपंच,राग-द्वेष से रची बसी एक ऐसी गद्यकथा  जो कविता का अतिक्रमण करते हुए अपनी निर्मिति और निरंतरता का मार्ग चुनती है फिर भी तनिक अवसर और अवकाश पाते ही कविता के शरण्य में दुबक भी जाना चाहती है. भयावहता और भवुकता के तटों से टकराकर जीवन नदी का प्रवाह अविराम चलता ही रहता है. इसी में उसकी गति है और दुर्गति भी.

मनुष्य के जीवन में दस वर्ष का समय कोई छोटा कालखंड नहीं होता. दस वर्षों में कितना कुछ बन-बदल और बिगड़ जाता है. और ऐसे संधिस्थल पर जब आप किशोरावस्था से प्रस्थान कर रहे होते हैं तब ये दस वर्ष कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण,मूल्यवान और मारक होते हैं.दूसरे शब्दों में कहें तो बाकी जिन्दगी पर अनमिट छाप अंकित करने का छापखाना होते है ये दस वर्ष.

गद्य को गद्य की तरह और कविता को कविता की तरह ही लिखा जाय तो बेहतर होगा. ऐसा नहीं है कि  कविता गरिष्ठता को गला देती है या कि गेयता गल्प के आस्वाद को अनर्गल बना देती है फिर भी-

बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग-लग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे.

मगर कविता को कोई
खोले ऐसे उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह.

    (भवानीप्रसाद मिश्र की कविता 'बुनी हुई रस्सी' का एक अंश)

॥०१॥

मैंने एक विद्यार्थी की हैसियत से अपने जीवन के दस वर्ष नैनीताल में व्यतीत किये. सीधे-समतल-सपाट मैदानी इलाके से आकर मैं पहाडियों से घिरे इस शहर में पढ़ता-बढ़ता और स्वयं को गढ़ता रहा. नैनीताल से पहला शाब्दिक साक्षात्कार इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में शामिल कहानी 'अपना- अपना भाग्य' (जैनेन्द्र कुमार) से हुआ. इस कहानी में लेखक और एक निराश्रित बालक के बीच यथार्थ की मुठभेड़ के साथ ही निरुद्देश्यता  और रोमानीपन भी है. इस कहानी का आरंभ ही रोमानीपन से होता है-

" बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड्क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए. नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी. रुई के रेशे-से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे. हल्के प्रकाश और अंधियारी में रंग कर कभी वे नीले दीखते ,कभी सफेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते. वे जैसे हमारे सथ खेलना चाह रहे थे.

हमारे पीछे पोलो वाला मैदान फैला था. सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद-गृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वह सुरम्य अनुपम नैनीताल."

साठ-सत्तर के दशक की हिन्दी फिल्मों में पहाड़ी शहरों-कस्बों के बहुत खूबसूरत लोकेशंस हैं. प्रायः ऐसी जगहों पर तफरीह करने या छुट्टियां बिताने आए नायक को एक रूपसी प्रेयसी मिल जाया करती थी. फिर तो प्यार-मुहब्बत, नाच-गाना, मिलन-बिछोह, आंसू-रुदन आदि इत्यादि और 'दी एन्ड'. इंटर कालेज में  हिन्दी के हमारे अध्यापक 'पांडेय मास्साब' ने नैनीताल को लेकर बन रही हमारी रोमानी छवि को अपने संस्मरणों से और बढ़ाने का काम किया. रही-सही कसर 'पूजा' नामक  उपन्यास ने पूरी कर दी.

छोटे मामा को उपन्यास पढ़ने का शौक था. धीरे-धीरे यह लत मुझे भी लग रही थी.  एक दिन मामा के जरिए ही एक उपन्यास हाथ लगा जिसका शीर्षक 'पूजा' था और लेखक का नाम रानू. इसका कथानक कुछ इस तरह है कि  सिस्टर पूजा नैनीताल के एक प्रसिद्ध अस्पताल में नर्स है-एक सुंदर, कर्मठ, ममतामयी नर्स. नायक जो एक कलाकर है अपने शहर लखनऊ से नैनीताल घूमने आया है,बीमार पड़ जाता है. अस्पताल भर्ती नायक की सेवा-सुश्रुषा करते-करते प्रेम का बीज पड़ जता है. साथ जीने-मरने की कसमें-वादे और स्वस्थ होने पर एक दिन उसे सदा के लिए अपना जीवनसाथी बनाने का वादा कर लखनऊ चला जाता है. जब लंबे समय तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती तो पूजा काठगोदाम से 'नैनीताल एक्सप्रेस' में सवार होकर लखनऊ के लिये चल देती है. रास्ते में किसी स्टेशन से चढ़े गुंडे उसके साथ बलात्कार करते हैं. वह अपनी यात्रा स्थगित कर नैनीताल लौटती है और झील में कूदकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती है. इस उपन्यास ने मेरे किशोर मन पर नैनीताल की ऐसी छाप अंकित की जो आज तक विद्यमान है. आज भी जब नैनीताल में होता हूं तो झील के किनारे से गुजरते हुए 'सिस्टर पूजा' की याद आ जाती है.पिछले कई वर्षों से मैं इस उपन्यास को एक बार फिर से पढ़ना चाहता हूं लेकिन वह नहीं मिल रहा है तो नहीं मिल रहा है.

अपने गांव के पास के कस्बे दिलदार नगर के अति प्रतिष्ठित आदर्श इंटर कालेज से स्कूल स्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद इच्छा थी कि 'पूरब के आक्स्फोर्ड' इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ा जाय लेकिन प्राप्तांक कम होने कारण जब वहां प्रवेश नहीं मिला तो इलाहाबाद के ही ईविंग क्रिश्चियन कालेज में प्रवेश तो  ले लिया परंतु छात्रावास नहीं मिला. एक दिन ऐसे ही घूमते- घामते ननीताल पहुंच गया  तो  उस समय के डी.एस.बी. संघटक महाविद्यालय और आज के कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर में  थोड़ी परेशानी के बाद प्रवेश मिल गया और ब्रुकहिल छात्रावास के कमरा नंबर वन ए/१२ में ठिकाना. शुरुआत में सोचा था कि यहां से बी.ए. करके जे.एन.यू. या फिर बी.एच.यू. निकल लूंगा लेक़िन नैनीताल से ऐसा बंधा कि एम.ए. और पीएच.डी. करते-करते दस वर्ष कब गुजर गए पता ही नहीं चला.              

पिछले कई बरसों   से घाट-घाट का पानी पीकर भारत के अलग-अलग इलाकों में डोल रहा हूं .किसिम-किसिम की जगहें देखी हैं,तरह-तरह के लोगों से मिला हूं लेकिन नैनीताल को कभी भुला नहीं सका.आज भी जब भी कभी मौका मिलता है तो निकल पड़ता हूं अपने 'शहरे तमन्ना' की तरफ. पत्नी-बच्चे छेड़ते हैं -'मायके जा रहे हो! .हां नैनीताल मेरा मायका ही तो है .भले ही मैंने वहां जन्म नहीं लिया लेकिन उसके आंगन में ही तो मेरे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है.आज जब इतने दिनों के बाद नैनीताल पर लिखना है तो मेरे सामने समस्या यह है कि क्या,कैसे और किस तरह लिख जाय? जो विचार,वस्तु या स्थान आपकी संवेदना से संपृक्त हो गया हो उसे तटस्थ या विलग होकर देखना दुष्कर तो होता ही है.अपने लेखन के शुरुआती दौर में मैंने नैनीताल के ऊपर काफी कुछ लिखा था. वह यत्र-तत्र प्रकाशित भी हुआ था लेकिन आलस्य या अपनी आदत की वजह से उसे बहुत सहेज कर नहीं रख पाया. एक लेख था- 'नैनीतालः अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर...'जो यहीं से निकलने वाले एक पाक्षिक अखबार के लिए लिखा था.अब वह अखबार तो नहीं निकलता लेकिन उसके संपादक प्रयाग पांडे अब भी मुझे उसी लेख के कारण ही याद कर लेते हैं. दुर्योग से उस लेख की प्रति मेरे पास नहीं है फिर भी स्मृतियों पर पड़ी गर्द को झाड़कर कुरेदता हूं तो पता चलता है कि उस लेख में मैंने चमक-दमक से भरपूर और आत्ममुगध दिखने वाले नैनीताल का एक दूसरा चेहरा दिखाने की कोशिश की थी जहां अंधेरा है,दुःख है,कष्ट है,दरिद्रता है,संघर्ष है और वह सब कुछ है जिसे हम देखने से कतराते-बचते  हैं.     कभी-कभी लगता है कि इसी 'कतराने और बचने की कला' में पारंगत और प्रवीण होने को ही जीवन में 'सफल' होना माना जाता है शायद?



॥ ०२॥

नैनीताल में रहते हुए बहुत सी कवितायें नैनीताल पर लिखी थीं। उसी दौर की अपनी एक कविता :

हाल-ए-नैनीताल

क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में .
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में .

कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में .

इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती-सी है इस शहर की चाल में .

धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो-जंजाल में .

आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में .

इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय-सुर -ताल में





मंगलवार, 23 नवंबर 2010

धूप में कुछ मामूली चीजों के बड़प्पन के साथ


परसों,  इतवार की सुबह नहान -नाश्ते के बाद जब धूप सेंकने का मन हुआ तो घर के आसपास ही पेड़ -पौधों  से बतियाने का मन हो आया। गुनगुनी धूप में अपने निकट की मामूली चीजों को गौर से देखते हुए कुछ तस्वीरें मोबाइल में कैद कर ली थीं जिन्हें आज  और अभी सबके साथ साझा करने का मन हो रहा है। आज एक बार फिर इन तस्वीरों को देखते - परखते -निरखते  हुए यह भी लग रहा है  कि कामकाज, दफ़्तर -फाइल, दाल-रोटी  की आपाधापी और जुगाड़ -जद्दोजहद  में अपने नजदीक की  बहुत -सी मामूली चीजों का बड़प्पन  अक्सर  ध्यान में ही नहीं आता और बहुत सी अनोखी चीजें यूँ ही ओझल हो जाती है।प्रकृति अपनी मौज में अपनी चाल चलती रहती है। वह हमें पूरा अवसर देती है कि उसके साथ सहज संवाद स्थापित किया जाय। लेकिन होता यह कि हमारे ही पास समय  नहीं होता और सौन्दर्य को देखने वाली आँखें उपयोगिता की परिभाषा में ही हर चीज को बाँधने - साधने की अभ्यस्त -सी हो जाती है।आज इन तस्वीरों को देखकर कुछ यूँ ही कविता जैसा लिख भी दिया है। अब जो भी है...आइए  मिल कर देखें...



सूरज ने बाँट दी अपनी गरमाई
दो फूल खिले एक कली मुसकाई



प्रकृति सजाती  है अनुपम उपहार
हम हैं क्या सचमुच इसके हकदार!



कूड़े -कबाड़ में है तितली का वास
हम हैं क्या कर रहे अपने आसपास!



पीपल के पात पर ठहरा है पानी
क्या-क्या कहानियाँ रचे प्रकृति रानी!



धूप में विहँस रहा है नन्हा सितारा
हम सहेजें सुन्दरता काम यह हमारा!

बुधवार, 17 नवंबर 2010

इसी में डूबकर कह उठता हूँ: 'मुझे चाँद चाहिए'

** यह जानकर प्रसन्नता है कि मेरे लिखे - पढ़े - कहे को पसंद किया  गया है। इस पोस्ट को ( और 'कर्मनाशा' की परिचयात्मक टिप्पणी व कविता को भी)  अब अर्चना चावजी के सधे स्वर में सुना जा सकता है। बहुत - बहुत आभार, धन्यवाद..अर्चना जी ! साथ ही हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में अध्ययन  और अभिव्यक्ति की साझेदारी की दिशा के एक लघु प्रयास के रूप में जारी इस ठिकाने के सभी विजिटर्स को शुक्रिया ! !




आज और अभी इस रात में 'रात' के सिलसिले की कुछ अपनी - सी बातें,  कुछ खोए हुए -से सामान की  तलाश, कुछ संवाद - एकालाप या  कि शब्द पाखियों की उड़ान , कुछ कवितायें... अब जो भी समझा जाय। आइए ,देखें..पढ़े..साथ चलें ..कुछ आगे बढ़े....

                                                                
                                                                एक  रात : तीन बात


रात : ०१

यह रात है
रात : एक शब्द...
'र' पर 'आ' की मात्रा और 'त'
शब्दकोशों में मिल जायेंगे
इसके तमाम पर्याय व विपर्यय।

अगर चाहें
तो बहुत सपाट तरीके से
इसे कहा जा सकता है
दिवस का अवसान
या फिर संध्या का व्यतीत।

यह रात है:
तम
तमस
अंधकार...
अथवा रोशनी के प्रयत्न का एक प्रमाण।

रात : ०२

यह रात है:
एक काली स्लेट
इसी पर लिखी जानी है
रोशनी की तहरीर।

यह रात है:
नींद
स्वप्न
जागरण
और..
सुबह की उम्मीद।

रात : ०३

यह रात है:
इसी में दिखता है
कभी आधा
कभी पूरा
और कभी अदृश्य होता हुआ चाँद।

यह रात है:
इसी में डूबकर कह उठता हूँ:
'मुझे चाँद चाहिए'
और सहसा
क्षितिज पर उदित हो आता है
तुम्हारा चेहरा।

बुधवार, 10 नवंबर 2010

कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार

अक्सर ऐसा होता है कुछ पढ़ते - पढ़ते लिखने का मन हो आता है। और जब तक लिख न लिया जाय तब तक लगता है कि अपना कुछ सामान कहीं कहीं खोया हुआ है। लिखने के बाद (भी) लगता है कि जो कुछ सोचा , महसूस किया ( था) उसे रूपायित करने में कितना संकोच  बरत गई भाषा।एक बार फिर आज कुछ शब्द , जिनमें अपने सोचने व होने का अक्स देखा जा सकता है।आइए देखते हैं...


धीरे - धीरे : ०१

धीरे - धीरे आती है शाम
धीरे - धीरे उतरता है सूरज का तेज।

धीरे - धीरे घिरता है अँधियारा
धीरे - धीरे आती है रात।

धीरे - धीरे लौटते हैं विहग बसेरों की ओर
धीरे - धीरे नभ होता है रक्ताभ।

धीरे - धीरे कसमसाती है कविता की काया
धीरे - धीरे सबकुछ होता जाता है गद्य।

धीरे - धीरे
देखती रहती हैं आँखें सुन्दर दृश्य।

फिर भी
कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार
धीरे - धीरे ..!

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धीरे - धीरे : ०२


एक रहस्य है
जो खुल रहा है धीरे - धीरे।

एक गाँठ है
जो कस रही है खुलते - खुलते।

एक छाया है
जिसमें पाते हैं हम तीव्र तपन।।

एक नाम है
जिसे कहना जादू हो जाना है।

एक रूप है
जिसमें दिखता है सारे संसार का  अक्स।

एक धैर्य है
जिससे प्रेरणा पाते हैं धरती और आकाश
एक धैर्य है
जो उफनने से रोके हुए है सात समुद्रों को..

वही , हाँ वही
तुम्हारी उपस्थिति के सानिध्य में
टूट रहा  है
धीरे - धीरे !

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल

इस समय आधी से अधिक गुजर चुकी रात। रोज की तरह खुद से कहने जा रहा हूँ कि 'चलो अब सो जाओ रे भाई'... क्योंकि सुबह काम पर जाना है। कामकाज के बीच खुद से बतियाना अक्सर कम ही हो पाता है।आज अभी कुछ देर पहले खुद से एक संवाद हुआ है। यह कविता के फार्म में ग़ज़ल भी हो सकती है और नहीं भी क्योंकि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे' ..खैर..




आत्म संवाद

चल अकेला, बस यूं ही चलता चल।
बदलना चाहता नहीं , मत बदल।

माना कि आज थोड़ी मुश्किल है,
देखना कल होगी, कुछ राह सहल।

नेमतें लाई है यह बारिश की झड़ी,
डूब जायेंगे सभी सहरा - दलदल।

उसको देखा तो छाँव - सा पाया,
वर्ना छाई थी तेज धूप मुसलसल।

जब भी बजता है मेरा मोबाइल,
एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल।

खुद को हलकान किए रहता हूँ,
आओ कुछ बात करें पल - दो पल।

रविवार, 7 नवंबर 2010

मन में मोद भरा है फिर भी !

दीवाली,दीपावली,ज्योति पर्व, प्रकाशोत्सव..जो भी कहें अब तो बीत गया। घरों पर बिजली की कृपा से जगमग - जगमग करने वाले लट्टुओं - झालरों - लड़ियों की पाँत अभी उतरी नहीं है। जगह - जगह बिखरे जल - बुझ चुके दीये, मोमबत्तियों की पिघलन और अपनी आभा व आवाज लुटा चुके पटाखों के खुक्खल दीख रहे हैं।अन्न्कूट- गोवर्धन पूजा भी हो ली। आज भाई दूज है। कुछ ही दिनों के बाद छ्ठ पर्व है। उत्सव अभी जारी है। सर्दी अपना रंग दिखने लगी है। ओस और शीत ने भी अपनी नर्म तथा नम उपस्थिति से  मौसम के बदलाव को इंगित करना शुरू कर दिया है। खेत- खलिहानों से होता हुआ नवान्न जिह्वा तक आ चुका है। ऐसे परिवर्नतशील पलों   को महसूस करते हुए  अभी कुछ दिन पहले ही कुछ लिखा है। इसे कविता , गीत , नवगीत कुछ भी कहा जा सकता है। आइए आज , अभी इसे साझा करते हैं :


बीता क्वार शरद ऋतु   आई

बीता क्वार शरद ऋतु  आई।
कार्तिक मास करे पहुनाई।

भंग हुआ आतप का व्रत-तप
बरखा रानी हुईं अलोप
तुहिन कणों से आर्द्र अवनि पर
नहीं रहा मौसम का कोप

पंकहीन मग पर पग धरती
सर्दी करने लगी ढिठाई।
बीत क्वार शरद  ऋतु  आई।

खेतों में अब राज रही है 
नये अन्न की गंध निराली
गुड़ भी आया  नया नवेला
सोंधी हुई चाय की प्याली

दिन हैं छोटे रातें लम्बी
भली लगे दिन की गरमाई।
बीता क्वार शरद ऋतु आई।

राग रंग उत्सव पूजा में
डूब रही है  दुनिया सारी
त्योहारों का मौसम आया
बाजारों में भीड़ है भारी

मन में मोद भरा है फिर भी 
डाह रही डायन मँहगाई।
बीता क्वार शरद ऋतु आई।
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* चित्र : पुनीता  मंदालिया की कलाकृति - 'डांडिया रास'

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

घात लगाए बैठा है अंधकार का तेंदुआ खूंखार







उजास
(एक कविता : एक आस)

हर ओर एक गह्वर है
एक खोह
एक गुफा
जहाँ घात लगाए बैठा है
अंधकार का तेंदुआ खूंखार.
द्वार पर जलता है मिट्टी का दीपक एक.
जिसकी लौ को लीलने को
जीभ लपलपाती है हवा बारंबार.

बरसों - बरस से
चल रहा है यह खेल
तेंदुए के साथ खड़ी है
लगभग समूचे जंगल की फौज
और दिए का साथ दिए जाती है
कीट - पतंगों की टुकड़ी एक क्षीण
जीतेगा कौन ?
किसकी होगी हार ?

हमारे - तुम्हारे दिलों में
जिन्दा रहे उजास की आस
और आज का दिन बन जाए खास !

* 'कर्मनाशा'  के सभी  हमराहियों को दीवाली की मुबारकबाद !.

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

ओह ! सिल्विया प्लाथ ! !




* २८ अक्टूबर २०१० / सुबह....

* कल सुबह से यह ध्यान में था कि सिल्विया प्लाथ ( २७ अक्टूबर १९३२ - ११ फरवरी १९६३)  का जन्मदिन आज ( अब तो कल कहा जाएगा !)  ही है। सुबह से शुरु हुई दैनंदिन व्यस्तताओं के कारण किताब उठाकर इसकी तसदीक न कर सका। सोचा था कि शाम को थोड़ा समय मिलने पर सिल्विया को एक बार  पलटूँगा और मन हुआ तो कुछ लिखूँगा या उसकी एकाध कविता का अनुवाद करूंगा। शाम को थोड़ा समय मिला तो थकान उतारने की प्रक्रिया में कुछ गंभीर पढ़ने का मन न हुआ और जब रात घिरी तो बच्चों की डिमांड पर एक पारिवारिक मित्र के यहाँ कर्टसी  विजिट का कार्यक्रम बन गया। वहाँ गए तो पता चला कि आज उनकी छॊटी बिटिया का जन्मदिन है। अरे!  हमें तो पता भी न था या कि हमीं से याद रखने में कोई कसर रह गई? अक्सर ऐसा होता है! क्या किया जाय इस भुलक्कड़पने का या फिर कैलकुलेटिव होने में तनिक स्लो होने या पिछड़ जाने का?

* रात को कस्बे से गाँव की ओर लौटते समय हल्की ठंड थी और हल्की धुंध भी। यह देख - महसूस कर फिर सिल्विया की याद हो आई, जाड़े - सर्दियों से जुड़ी उसकी कई कविताओं की भी। किताब छानी तो पता चला कि अरे! आज ही  तो अंग्रेजी की इस कवि का जन्मदिन है। मैं एक दिन बाद का सोचकर कुछ लिखना - पढ़ना यूँ ही टाल रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं इस टालूपने को इंज्वाय करने लगा हूँ या फिर ऐसा भी हो सकता है कि यदि इस तरह की चीजों में इंज्वायमेंट ( इस्केप?/ !) न खोजा जाय तो सबकुछ वैसा ही न हो जाय - अपनी रुटीन पर चलता - घिसटता - कैलकुलेटिव  !

* 'कवि' शब्द पर कुछ लोगों को आपत्ति  हो सकती है कि 'कवयित्री' क्यों नहीं? भाषा में जेंडर ( व और भी स्तरों पर) न्यूट्रल होना क्या कोई बुरी बात है? हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में जहाँ अब भी साहित्यकरों  के लिए 'जाज्वल्यमान' और 'देदीप्यमान' जैसे विशेषणों से बचने की वयस्कता  नहीं आई है वहाँ क्या किया जाय! और तो और हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई ( यह) दुनिया ! खैर इसी दुनिया में / इसी दुनिया के कारण लिखने - पढ़ने और लिखे - पढ़े को शेयर करने के कारण बहुत लोगों से संवेदना व समानधर्मिता के तंतु जुड़े हैं। संचार इस जादू ने एक नई दुनिया तो खोली ही है साथ ही इसने इस दुनिया में गंभीरता से गुरेज की राह को भी खोला है। यह एक सार्वजनिक पटल पर वैयक्तिक उपस्थिति के  का वैयक्तिक मसला भर नहीं है। इससे से/ इससे भी  बनता - बिगड़ता है हमारी अपनी  हिन्दी का सार्वजनिक संसार!

* आज सुबह जल्दी नींद खुल गई। रात में यह सोचकर सोया था कि सुबह सिल्विया प्लाथ पर कुछ लिखूँगा लेकिन अब इस समय लग रहा है उसे तो मैंने कायदे से पढ़ा ही कब है? बार - बार शुरू करता हूँ और बार - बार फँस जाता हूँ, भटक- अटक जाता हूँ। कल रात भी ऐसा ही हुआ। ब्लॉग के माध्यम से ही जुड़े एक संवेदनशील साथी से चैट पर वादा भी कर लिया था कि उन्हें सिल्विया प्लाथ  पर कुछ न कुछ  भेजूँगा जरूर , अनुवाद या और कुछ पढ़ने लायक, लेकिन ऐसा न हो सका। इतना जरूर हुआ कि सोने से पहले सिल्विया के साहित्य से खुद को ( फिर एक बार) रिफ्रेश किया। 

* कोई जरूरी तो नहीं कि हर चीज जो पढ़ी जाय उस पर / उसके बारे में लिखा ही जाय?

* एनी वे, आज दिन में और शाम को सोने से पहले तक एक बार फिर सिल्विया प्लाथ की सोहबत में गुजरेगा आज का दिन!

* जन्मदिन मुबारक सिल्विया! बिलेटेड! 



शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

हो सकता है : ओरहान वेली की कविता


 तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली, एक ऐसा कवि जिसने केवल ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया , के काव्य संसार में उसकी एक कविता के जरिए एक बार और प्रविष्ट हुआ जाय। तो आइए देखते पढ़ते हैं यह कविता :













ओरहान वेली की कविता
हो सकता है
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

पहाड़ी पर बने
उस घर की बत्ती
क्यों जली हुई है
आधी रात के बाद भी?

क्या वे आपस में बतिया रहे होंगे
या खेल रहे होंगे बिंगो?
या और कुछ
कुछ और चल रहा होगा वहाँ...

अगर वे बातें कर रहे होंगे
तो क्या होगा उनकी बातचीत का विषय?
युद्ध?
टैक्स?
शायद वे बतिया रहे होंगें बिना किसी विषय के

बच्चे सो गए होंगे
घर का आदमी अख़बार पढ़ रहा होगा
और स्त्री सिल रही होगी कपड़े।

हो सकता है
ऊपर बताई गई बातों में से
कुछ भी न कर रहे हों वे।

कौन जानता है?
हो सकता है
यह भी हुआ हो कि वे जो कर रहे हैं
उसे काट दिया गया हो सेंसर की कैंची से।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मोबाइल में भिलाई का रावण और कुछ कविताई



इस बार की बिलासपुर - भिलाई यात्रा बहुत संक्षिप्त और भाग - दौड़ वाली रही।यह एक तरह से पाला छूकर लौटना जैसा ही था। इस बार कई वर्षों के बाद दुर्गापूजा और रावण - दहन देख पाया। बच्चॊं ने तो यह सब इतने नजदीक से और निश्चिंत होकर पहली बार देखा। १७ अक्टूबर को सुबह बिलासपुर - चेन्नई सुपरफ़ास्ट से चले । उतरना तो दुर्ग में था लेकिन ट्रेन ने ऐसी मेहमान नवाजी दिखाई कि वह पावर हाउस पर ही रुक गई।सीधे कुशवाहा जी के सेक्टर टू वाले नए निवास पर पहुँचे । पंडित जी काफी देर बाद आए और पूजापाठ शुरु हुई । अपन कुछ देर बैठे , फोन - फान किया तभी पता चला कि बिल्कुल पास में ही हनुमान मंदिर  और छठ तालाब के सामने वाले मैदान में रावण का पुतला खड़ा है। यह जान अपन बेटे अंचल जी को लेकर उनसे मिलने चल दिए। धूप में चुपचाप खड़े रावण से कुछ गपशप की और तस्वीर खींच ली। अंचल जी का मन हुआ  कि वह रावण के साथ फोटो उतरवायेंगे। उनकी यह इच्छा भी पूरी हुई।दोपहर बाद एक बार फिर तस्वीर खींची और शाम को दहन के समय भी। लीजिए इन्हें आप भी देखिए :




धूप में अब हो रही है युद्ध की तैयारी।
शाम को ही  आएगी राम की सवारी।
मरता है , जलता है हर साल रावण, 
फिर भी सुधरती नही दुनिया हमारी।


चलो करें ,दर्शन दशानन का आज।
शाम होते आएगा राम जी का राज।
आज है , दशहरा खूब कर लो  मौज
रोज तो लगा ही रहता है काम काज।



देखो , भीड़ लगी  हर   ओर।
तरह - तरह का उठता शोर।
रंग - रंग  की  अतिशबाजी
जनता  सचमुच माँगे मोर !


हुई असत्य पर सत्य की जय।
ऐसे ही अशुभ का होता क्षय ।
खुद के  भीतर  झाँके हम भी ,
ताकि न बिगड़े जीवन - लय!
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पुनश्च : इससे आगे का अहवाल  अगली पोस्ट में...

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सरसों के एक अकेले दाने की तरह


असम और असमिया साहित्य - संगीत मेरे लिए हमेशा से आकर्षण का विषय रहा है। वहाँ जाने , देखने , रहने से पूर्व इस आकर्षण को तीव्र करने में कुबेरनाथ राय के ललित निबंधों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। जिस दुनिया में मैं बड़ा हुआ उससे कुछ अलग व अनोखी दुनिया है वह; केवल असम ही क्यों पूरा पूर्वोत्तर भारत ही। वहाँ बिताये आठ - साढे़ आठ वर्षों में बहुत वहाँ से बहुत कुछ सीखा - समझा है। वहाँ के भाषा व साहित्य से रिश्ता मजबूत हुआ जो अब भी बना हुआ है। 'कर्मनाशा' पर मेरे द्वारा किए गए अनुवाद को ठीकठाक माना गया है और पत्र - पत्रिकाओं में इस नाचीज का अनुवाद कर्म प्रकाशित हुआ है / प्रकाशनाधीन हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है असमिया की एक बड़ी साहित्यिक प्रतिभा निर्मल प्रभा बोरदोलोई (1933 - 2003)  की एक कविता :











निर्मल प्रभा बोरदोलोई की कविता
अमूर्ततायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

 I
सुदूरवर्ती किसी सहस्त्राब्दि में
शुरू हुआ था मेरा आरंभ

एक दूसरे को जन्म देती परम्पराओं के क्रम में
सतत सक्रिय है मेरी यात्रा
जो समा गई है इस उपस्थित क्षण में।

अंधकार की टोकरी में
रेंग रही हूँ मैं
सरसों के एक अकेले दाने की तरह।

 II
एक अदृश्य सरसराहट का हाथ थामे
बाहर आ गई हूँ मैं
और निहार रही हूँ घर को।

एक अजनबियत है बहुत भारी
गुरुतर
वजनदार
...और धँसता चला जा रहा है पूरा मकान।
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* निर्मल प्रभा बोरदोलोई की दो कविताओं और परिचय के लिए यहाँ जाया जा सकता है।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

आज उस साधारण व्यक्ति का जन्मदिन है जिसकी उपलब्धियाँ असाधारण रहीं


आज दो अक्टूबर है। आज गाँधी जयंती है। अभी कुछ ही देर पहले इस अवसर पर आयोजित दो शैक्षिक कार्यक्रमों में शिरकत कर लौटा हूँ। वहाँ वही सब कुछ हुआ जो इस अवसर पर होता है , होता रहा है। हाँ, बच्चे आज के दिन तैयारी करके आते हैं और उनके मुख से कुछ सुनना अच्छा लगता है। आज के दिन बार - बार मैं अपने स्कूली दिनों को याद करता हूँ जब बड़े उत्साह से अपन आज के नारे लगाते थे और कार्यक्रमों में भाग लेते थे थे। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जि जैसे लोग 'भाग' ले रहे हों , एक लगभग रस्म अदायगी जैसा कुछ। खैर, यह दुनिया है यह अपनी ही चाल में चलती है। बस कोशिश यह रहे कि अपनी 'चाल' न बिगड़ने पाये।

आज के दिन अभी मन हुआ कि इस 'छुट्टी' का लाभ लेकर कुछ पढ़ा जाय। एकाध किताबें निकालीं लेकिन यूँ ही पन्ने पलटकर रख दिया और कविताओं की पुरानी डायरी के पन्नों को पलटना शुरू किया। इसमें एक कविता है - 'बापू के प्रति' | यह मेरी पहली कविता है। उस समय मैं क्लास नाइन्थ का विद्यार्थी था। अच्छी तरह याद है कि उस दौर में अपने गाँव से तीन किलोमीटर दूर कस्बे में स्थित इंटर कालेज तक जाने के लिए सड़क नहीं थी ( न ही गाँव में बिजली थी ) और हम लोग धान के खेतों की मेड़ और नहर की पटरी से होकर जाया करते थे। उस साल दो अक्टूबर को सुबह - सुबह पता नही क्यों कुछ ऐसा लगा था कि कुछ न कुछ लिखना चाहिए और जब लिख - सा लिया तो मन हुआ कि इसे सबको सुनाना भी चाहिए। दिन अच्छा था, अच्छा अवसर भी था , स्कूल के कार्यक्रम में मौका भी मिल गया। 'आदरणीय' , 'माननीय' आदि के संबोधन के उपरांत भूमिका स्वरूप केवल एक वाक्य कहा था - "आज उस साधारण व्यक्ति का जन्मदिन है जिसकी उपलब्धियाँ असाधारण रहीं"। उस समय मैं बालक था, जो मन में आया वह बोल दिया। पता नहीं इस वाक्य में ऐसा क्या खास या ठीकठाक था कि प्रिंसिपल साहब व कुछ अध्यापकों ने कहा कि तुम्हें इस साल अंतरवियालयी डिबेट में भाग लेना होगा और जब कविता सुनाई अध्यापकों की यह प्रतिक्रिया थी कि बेटा अभी खूब पढ़ो और कविता कम लिखो। इसके बाद तो डिबेट , नाटक इत्यादि में भाग लेने का जो क्रम जारी हुआ वह विश्वविद्यालय स्तर तक जमकर चला। खूब पढ़ने का क्रम अब भी जारी है और कम लिखने का सिलसिला भी बदस्तूर चल ही रहा है। मैं कविता या कवितानुमा कुछ लिख लेता हूँ। कैसा लिखता हूँ यह तो सुधी पाठक ही बतायेंगे लेकिन आज दो अक्टूबर के बहाने पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में अपनी 'पहली कविता' साझा करने का मन हो रहा है। तो आइए, इसे देखें - पढ़े :



बापू के प्रति

श्रद्धा के  फूल   चढ़ाता   हूँ,
हे बापू ! कर लो स्वीकार।
एक बार    आओ भारत में ,
फिर से करो इसका उद्धार।

अहिंसा का मार्ग दिखाकर,
हिंसा   को दूर   भगा    दो।
देकर अपनी शिक्षाओं को,
फिर से रामराज्य ला दो।

वैसा  ही प्यार    सिखाओ,
जैसा तुम करते थे प्यार।
भारत बने अहिंसा- परक,
विश्व करे उसका सत्कार।

जिनको सौंपा था काम,
कर   रहे   नहीं कल्याण।
है    चारों   ओर     अँधेरा,
मुश्किल में सबके प्राण।

पुकार रही भारत की जनता,
विश्वास है फिर से आओगे।
आकर   के इस   भारत को,
धरती का स्वर्ग बनाओगे।