मंगलवार, 20 अगस्त 2013

यह एक चन्द्रमा है भूरे कागज में लिपटा हुआ : कैरोल ऐन डफ़ी

हिन्दी वर्णमाला के  'प' व्यंजन के आधे हिस्से से  शुरू होने  वाला एक पूरा  का  पूरा  छोटा- सा शब्द  फिलवक़्त एक ऐसा शब्द है जो  'घरे - बाइरे' सब जगह चर्चा  - प्रतिचर्चा में है ; हालाँकि यह कोई नई - नकोर चर्चा नहीं है फिर भी..। यह केवल हमारे खेतो में , हमारी रसोई  में , हमारी जेब में , हमारी जिह्वा पर , हमारे स्वाद और सौन्दर्य  के लोक में ही नही नहीं वरन साहित्य के  उर्वर इलाके में भी विविधवर्णी , विविधरूपी छवियों में विद्यमान है लंबे समय से। शब्दों के संसार में  कहीं यह स्थूल है , कहीं सूक्ष्म तो कहीं प्रतीक , बिम्ब  और रूपक के रूप में भी अपनी  अलग उपस्थिति  दर्ज करता - कराता हुआ । अध्ययन और अभिव्यक्ति के इस  ठिकाने 'कर्मनाशा'  पर  आज प्याज के बहाने प्यार की कविता या प्यार की कविता के बहाने प्याज की कविता प्रस्तुत है जिसका शीर्षक है 'वेलेन्टाइन' और रचनाकार हैं  १९५५ में  ग्लासगो में जन्मीं  कवि - नाटककार और ब्रिटेन की पहली स्त्री पोएट लौरिएट कैरोल ऐन डफ़ी। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में डफ़ी कहती हैं कि  'मैं  सीधे -साधारण  शब्दों को  उलझावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करती हूँ।'  आइए,  इसे पढ़ते - देखते हैं कि इस छोटी - सी कविता में कितनी साधारणता है और कितना उलझाव ....


कैरोल ऐन डफ़ी की कविता
वेलेन्टाइन
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

नहीं , कोई  लाल गुलाब नहीं
अथवा न ही नाजुक मखमली हृदय

मैं तुम्हें दूँगी एक प्याज
यह एक चन्द्रमा है भूरे कागज में लिपटा हुआ
इससे  फूटता है उजास
जैसे कि वह दमकता है प्यार की सतर्क निर्वसनता में।

अब
यह तुम्हें अंधा कर देगा आँसुओं से
एक प्रेमी की तरह
यह तुम्हारी परछाईं को
बदल देगा दु:ख की एक डोलती हुई तस्वीर में।

मैं  कोशिश में हूँ सचमुच सच्ची होने की
नहीं चाहती  मैं
एक  सुन्दर कार्ड या चुंबन से पगी चिठ्ठी होना।      

मैं तुम्हें दूँगी एक प्याज
इसका दग्ध चुंबन टिका रहेगा तुम्हारे अधरों पर
आत्मबोधत्व और वफ़ादार की तरह
जैसे कि हम हैं
जैसे कि हम हैं लम्बे समय से
जैसे कि हम होंगे लम्बे समय तक।।

इसे स्वीकारो
इसके प्लेटिनमी छल्ले सिकुड़  बन जायेंगे वैवाहिक - अंगूठियाँ
अगर तुम चाहो।

घातक ...
इसकी गंध चिपकी रहेगी तुम्हारी उंगलियों से
चिपकी रहेगी तुम्हारी छुरी से।
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( चित्र : कैरोल मोर्गन की कृति 'हेयरी अनियन' / गूगल छवि से साभार )

रविवार, 11 अगस्त 2013

सुबह की कुछ कहानियाँ

'पेड़ों के झुनझुने
बजने लगे ;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।'
                  -सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  ( 'उठ मेरी बेटी सुबह हो गई' कविता से )

सुबह की कुछ कहानियाँ

०१- आज सुबह - सुबह हिन्दी का अख़बार नहीं आया। फीकी चाय कुछ ज्यादा ही फीकी लगी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि  अख़बार बाँटने वाला वह लड़का नहीं आया जिसका पूरा नाम भी मुझे नहीं मालूम । हो सकता है कल रात तक  अखबार छापने  वालों के पास छपने लायक कोई ख़बर ही न रही हो। यह भी  हो सकता है कि अख़बार बाँटने वाले  वाले लड़के तबीयत खराब हो गई हो। अब जो भी हो , पहली बात को मैं सच होते हुए देखना चाहता हूँ और दूसरी बात की संभावित सच्चाई  को पूरी तरह झूठ साबित करना चाहता हूँ।साथ ही  खुद से सवाल करने से भी बच रहा हूँ  कि कल सुबह मैं किसका इंतजार करूंगा , अख़बार का या कि  उस लड़के का जिसका पूरा नाम भी मुझे नहीं मालूम?

०२-  आज सुबह - सुबह एक कवि ने फोन पर 'नागपंचमी' की ' बहुत - बहुत हार्दिक बधाई' दी। जवाब में मैं  उन्हें  तुरंत कुछ न  बोल सका ; शुक्रिया या 'सेम टु यू' जैसा कुछ भी नहीं। वे  इधर बीच पत्रिकाओं में अपनी कविताओं के छपने की खबर देते रहे , साथ ही हिदायत भी अगर नहीं पढ़ा अब तक तो पढ़ लेना जरूर। उस वक़्त  बस दो चीजें सहसा याद आईं - एक तो गाँव की नागपंचमी जिसे अपन 'पचैंया' कहा करते थे  और दूसरी अज्ञेय की कविता 'साँप'। 'पचैंया' अब स्मृतियों में है और 'साँप' अब किताबों में। कुर्सी पर बैठा- बैठा ध्यान से बुकशेल्फ़ को निरख रहा हूँ। काँच के पल्ले के पार रखी पुरानी डायरी के भीतर  से दो चमकीली आँखें चमक रही हैं।

०३- आज सुबह - सुबह सब्जी बाज़ार की लगभग नियत - नियमित रविवासरीय सैर की। यह दुकानों - फड़ों  पर हरापन सजने का समय होता है और कूड़ागाड़ी की सड़ाँध से साक्षात्कार का भी। मात्र  पचास रुपए में बिक रहे एक किलो प्याज  को जी भर देखा किया। इधर से उधर घूमकर अरबी के पत्ते की खोज की , न मिला आज की छुट्टी के दिन भी । लगता है कि इस बार की बरसात बिना 'रिकवँछ' सेवन किए ही बीत -सी जाएगी। 'रिकवँछ' बूझ रहे हैं न आप? मैं तो महीने भर से बस बूझ - समझ  ही रहा हूँ।

०४- आज सुबह- सुबह कल रात मे फेसबुक साझा किए मेरे स्टेटस पर भाई अजेय ने बाबा मीर के शेर 'आगे किसू के क्या करें, दस्ते तमअ दराज़ / वो हाथ सो गया है, सिरहाने धरे-धरे। ' में आए 'तमअ' शब्द का आशय  / अर्थ जानना चाहा चाहा। बाबा मीर का यह शेर मुझे बहुत पसंद है। 'तमअ' या 'तमा' का अर्थ भी  पता है लेकिन तसदीक के लिए उर्दू - हिन्दी शब्दकोश  में उतरना हुआ। 'लोभ' व /या 'लालच' का अर्थ व्यक्त करने वाले इस शब्द के अन्य समानार्थी शब्दों की अदृश्य उपस्थिति को आज की  कविता के संसार के  आसपास देखकर डर लगता है।

०५- आज सुबह नाश्ते में बासी रोटी + दो मिनट में तैयार हो जाने वाली ताजी  मैगी के साथ  खूब सारे बीजों वाला पियराया  अमरूद और बिल्कुल बिना बीज का टहटह लाल पपीता खाया। रोटी तो  अपनी रोटी है ; उससे कोई सवाल नहीं , शुक्रिया जरूर। मैगी से  क्या पूछूँ ; किस भाषा में पूछूँ समझ नहीं आता पर मेरे अमरूद प्यारे तुम इस पृथ्वी पर तोते, सुग्गे और चिड़िया - चुरगुन की बदौलत  बचे रहोगे। चिड़ियों की उड़ान में तुम्हारे बीज भी शामिल होंगे लेकिन ये तो बताओ पपीते भाई कि बिना बीज तुम  आ कहाँ से रहे हो भला और कितनी दूर तक हमें ले जाओगे ? क्या कहूँ,  मुझे तो चिड़ियों के खिलाफ़ साजिश लगती है तुम्हारे भीतर के बीजों का गायब कर दिया जाना।

** 'बदतमीज़ी बन्द करो
     लालटेनें मन्द करो
     बल्कि बुझा दो इन्हें एकबारगी
     शाम तक लालटेनों में मत फँसाए रखो अपने हाथ
     बल्कि उनसे कुछ गढ़ो हमारे साथ-साथ।'
                   -- भवानी प्रसाद मिश्र ( 'सुबह हो गई है' कविता से ) 
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( चित्र : अदिति देवधर की पेंटिंग 'बर्ड्स आन पपाया ट्री' / गूगल छवि से साभार )

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

कोई जगह नहीं उनके लिए : अडोनिस की कवितायें

अली अहमद सईद अस्बार को विश्व कविता के प्रेमी  उनके उपनाम अडोनिस  के नाम  से जानते हैं।  १९३० में सीरिया में  जन्मे  और हाल मुकाम पेरिस के  अरबी भाषा के  अनुवादक , संपादक , सिद्धांतकार  और शिक्षक  के रूप में दुनिया भर में चर्चित - पुरस्कृत  इस  बड़े कवि की तीन छोटी कवितायें आज साझा हैं :


अडोनिस की तीन  कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

दो कवि

अनुगूँज और आवाजों की
सतत उपस्थिति के मध्य
खड़े हैं दो कवि।

पहला
बोल रहा है ऐसे
जैसे कि बोल रहा हो टूटा चाँद
और दूसरा
चुप है ऐसे जैसे कि कोई शिशु
ऐसा शिशु
जो शयन करता है हर रात
ज्वालामुखी की भुजाओं में।

मेघ दर्पण

पंख
किन्तु मोम से बने बनाए
और बारिश का गिरना
बारिश नहीं बल्कि केवट
हमारी रुलाइयों के जलयान के।

कवि

उनके लिए कोई जगह नहीं
वे ताप देते हैं पृथ्वी की देह को
वे निर्मित करते हैं
आकाश के लिए कुंजियाँ।

वे नहीं रचते हैं
कोई कुटुम्ब , कोई भवन
अपने मिथकों के वास्ते
वे लिखते हैं उन्हें
जैसे कि सूर्य लिखता है अपना इतिहस।

कोई जगह नहीं
उनके लिए....।
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( चित्र : अन्ना वोत्ज़जाक की 'मून' सीरीज की  चित्रकृति , गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 3 अगस्त 2013

‘लड़के गुड़ियों से नहीं खेला करते ’ : रामजी तिवारी की कहानी

अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के इस ठिकाने पर मैं कुछ अपनी लिखत - पढ़त से चुनिन्दा चीजें साझा करने का प्रयास करता रहता हूँ। कई बार इस क्रम में आलस्य व देर भी हो जाती है , जैसा कि इस बार भी हुआ है। इसके लिए क्षमा मांगने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।

हमारे समय के उर्जावान रचनाकार रामजी तिवारी की सृजनात्मक उपस्थिति कई रूपॊं में सामने आती रही है। हाल ही में विश्व सिनेमा पर आई उनकी किताब 'आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे’  बेहद महत्वपूर्ण है। 'सिताब दियारा' नामक उनका ब्लॉग हिन्दी के उन ब्लॉग में है जो निरन्तर स्तरीय सामग्री से समकालीन रचनाशीलता को समृद्ध कर रहा है। भाई रामजी तिवारी का यह प्रेम है कि उन्होंने अपनी नई कहानी 'कर्मनाशा' के लिए उपलब्ध कराई है , आभार मित्र। इस कहानी और पाठक के बीच प्रस्तुतकर्ता से अधिक मेरा कोई काम नहीं है फिर भी इतना जरूर कहने का मन है कि इसके साथ यात्रा करते हुए 'बीस-तीस-पचास साल पहले की स्मृतियों के जंगल मे भटकने  '  और  'किसी कीमती चीज के खोने' की कसक तो महसूस होगी ही। आज ,आइए पढ़ते हैं  यह कहानी : 



रामजी तिवारी की कहानी
संयोग में गाँठ

बचपन के दिन कुछ न कुछ तो सबको ही याद रहते हैं | मुझे लगता है , आपको भी होंगे | हालाकि उन यादों में बहुत कुछ ऐसा भी होता है , जो न सिर्फ उस समय हमारी समझ से परे होता है , वरन समय के दशकों में बीत जाने के बाद भी , वह हमारे लिए पहेली ही बना रहता है | मसलन अपने बचपन में हम कई ऐसे खेल खेलते थे , जो हमें बेहद पसंद होते थे  , जिनमें हमारी जान बसती थी , लेकिन जिन्हें खेलने से हमें सदा ही रोका जाता था | मेरे लिए एक ऐसा ही खेल था ,  ‘गुड़िया- गुड़िया’ | इस खेल में मैं छोटी सी गुड़िया को अपनी गोद में बिठाकर उसके बाल को घंटों सुलझाता था , करीने से कंघी करता था , थोडा सा पाउडर लगाकर उसके नन्हें-नन्हें हाथों को ऊपर-नीचे और आगे-पीछे घुमाता था , उसको पहनाने के लिए जिद करके माँ से नए कपड़े माँगता था , और फिर उसे अपनी गोदी में सुला लेता था | यदि आपकी यादों में भी ऐसी ही स्मृतियाँ हैं , या इससे मिलता-जुलता कुछ है , तो उन यादों को साथ लिए इस कहानी का आनंद लीजिये , और यदि आपकी उन यादों पर समय की जंग लग गयी हो , तो फिर मेरे साथ बीस-तीस-पचास साल पहले की स्मृतियों के जंगल मे भटकने के लिए निकल लीजिये | क्या पता उस जंग के नीचे दबी कोई स्मृति आपका भी इन्तजार कर रही हो |

वैसे सच तो यह है कि मुझे भी बहुत कुछ याद नहीं है , सिवाय इसके कि मेरे पास भी एक गुड़िया हुआ करती थी | लेकिन जब पिताजी का दूसरे शहर में तबादला हुआ , तो वह बेचारी वहीँ पर छूट गयी | मैं कई दिनों तक माँ से जिद करता रहा , कि मुझे वह गुड़िया चाहिए , जिस पर माँ मुझे तरह-तरह से समझाती , कि ‘लड़के गुड़ियों से नहीं खेला करते |’ खैर ...समय बीतता गया और इस तरह से मैं भी उसके साथ कुछ बीत-बीतकर थोड़ा और बड़ा हुआ | कोई दस साल का होऊंगा , जब मेरे भैया की शादी हुयी | घर में भाभी आयीं , और कुछ दिनों बाद उनके गाँव से ‘कलेवा’ आया , जिसके साथ एक गुड़िया भी आयी | मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी | इतनी अच्छी , कि मैं दिन-रात उसके साथ ही खेलना चाहता था | हालाकि इसे लेकर मेरी माँ अपनी तमाम ममता के बावजूद भी मुझसे झुंझला उठती |
‘मैंने कई बार कहा है , कि लड़के गुड़ियों से नहीं खेला करते” |
अब मैं इसका कारण पूछने जितना बड़ा हो गया था | और तब माँ इसके उत्तर में ऐसा कुछ गोल-मटोल कहती , कि अव्वल तो मैं बहुत कुछ समझ ही नहीं पाता था , और जितना समझ पाता था , उतने में भीतर तक दुखी हो जाता था |
माँ कहती , “गुड़ियों की किस्मत परियों जैसी होती है , जरुरी नहीं कि उन्हें कोई राजकुमार ही मिले , उन्हें कोई चुरा भी सकता है | और तब तुम्हें पता चलेगा , कि मैं ऐसा क्यों कहती थी |
“ऐसा कभी नहीं होगा” | ‘मैं कहता’ |
लेकिन ऐसा ही हुआ | कुछ दिनों बाद ही भाभी के मायके में शादी पड़ी | भाभी के साथ वह  गुडिया भी वहां गयी , और साथ में मैं भी | अब आप यह तो जानते ही हैं , कि शादी में अमूमन भीड़-भाड़ बहुत होती है , सो वह वहां भी थी | हालाकि मैं चौकस था , लेकिन अफ़सोस कि , यह चौकसी मेरे काम नहीं आयी और इस अमूमन में जो चीज होती है , वह हमारे और गुड़िया के साथ भी हो गयी |

मैं बेहद उदास रहने लगा | माँ मुझे हर तरह से समझाती , और जब समझाते – समझाते हार जाती , तो अपनी पुरानी झुंझलाहट पर वापस आ जाती |
“मैंने तो पहले ही तुमसे कहा था , कि लड़के गुड़ियों के साथ नहीं खेला करते |”
इसी झुंझलाहट में एक दिन माँ के चेहरे पर मेरी आँखें टिक गयीं | आंसुओं की नदी से दो धार निकली , और उसकी आँखों के समंदर की ओर बढ़ चली |
“मेरे लाल , इस दुनिया को तू नहीं समझ पायेगा | ईश्वर ने खो गयी चीजों को सहेजने वाली गुफा सिर्फ लड़कियों को दी है | और ठीक ही दी है ,क्योंकि उनके जीवन में ऐसी चीजों की भरमार जो होती है |”
माँ ने उस दिन कई तरीके से समझाया | उसने इतिहास की कोटरों से कई कहानियां , कई किस्से मेरे सामने खोलकर रखे | मेरे दर्द की टीस कुछ कम होने लगी , और यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा | हालाकि यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित ही रहा , कि आखिर ‘लड़के गुड़ियों से क्यों खेला करते ?” | क्योंकि माँ के जबाब न तो मुझे तब समझ में आये थे , और न ही अब | हाँ , मैंने गुड़ियों से दूर रहने की समझ जरुर विकसित कर ली | और इस दूरी की समझ को पुख्ता करने के लिए मैंने अपने मन की रस्सी में गाँठ भी बाँध ली |

समय धीरे-धीरे सरकता गया , और जाहिर है उसी अनुपात में मैं भी | इस सरकने के दौरान मेरी हर संभव कोशिश रही , कि अपने मन की रस्सी में बंधी गाँठ को नहीं सरकने दिया जाए | लेकिन आप तो जानते ही हैं , कि समय का खून धीरे-धीरे कुछ गांठों से होकर भी बहना शुरू हो जाता है | और फिर यदि उसे ‘संयोग’ का आक्सीजन मिल जाए , तो उनके बीच से रास्ता भी निकल जाता है | अब यह तो आदमी के श में नहीं , कि वह ‘संयोग में भी गाँठ’ बाँध दे |

वे कालेज के दिन थे | उसी गुड़िया सी एक लडकी मेरी सहपाठी बनी | हालाकि मैं ऐसा ठीक-ठीक नहीं कह सकता था , क्योंकि मैंने उसे कभी ठीक-ठीक देखा भी नहीं था | लेकिन जितना देखा था , उसके आधार पर यह कह सकता हूँ , कि वह उसी गुड़िया जैसी ही रही होगी | अब इस देखने की कहानी यह है , कि वह समय ही ऐसा था , जब लड़कों को लडकियां और लड़कियों को लड़के ‘ठीक-ठीक’ से देखा भी नहीं करते थे | या कहें तो , तब देखने को बचाने का चलन था | न सिर्फ उससे या दुनिया से , बल्कि अपने आप से भी | अब यह चलन क्यों था , और अब इसका क्या हुआ , मैं नहीं बता सकता | लेकिन ऐसा था , इतना जरुर बता सकता हूँ | वैसे उस छोटे से शहर के छोटे से कालेज में चलन तो यह भी था , कि लड़के लड़कियों से और लड़कियां लड़कों से अकेले में बात नहीं किया करती थीं | जब भी बातचीत होती थी , समूह में ही होती थी | किसी को यदि किसी के बारे में कुछ कहना होता , तो वह उसको छोड़कर सबके बारे में कहता | अब यह अलग बात है , कि उसे छोड़कर शायद ही कोई उस बात को समझ पाता | और तब के चलन में यह भी था , कि जब कक्षाएं ख़त्म हो जाती , और सारी लड़कियां बाहर चली जातीं , तभी हम उन बेंचों की तरफ देखते , जिन पर वे बैठी होती | 

ऐसे सामान्य चलनों को निभाने के साथ – साथ मैं कुछ विशेष चलन भी निभा रहा था | इसमें सामान्यतया लड़कियों से तो दूर रहने के साथ-साथ उस लड़की से विशेषतया दूरी बनाकर रखने की बात शामिल थी , जिसकी शक्ल उस गुडिया से मिलती-जुलती थी | मैं इसका बहुत ख्याल रखता | कालेज आने के समय या कालेज से जाते समय वह जिस रास्ते से गुजरती , मैं उससे अलग राह चुनने की कोशिश करता | एक बार उसके मोहल्ले में मेरे एक दोस्त की शादी थी , और जिस दिन से मेरे दोस्त ने मुझे वहां आने के लिए शादी का आमंत्रण-कार्ड दिया था , उस दिन से मैं थोडा चिंतित रहने लगा था | मेरे दिल की धड़कन रह-रहकर तेज होने लगती थी , कि मैं उस मोहल्ले में जाऊँगा तो लोग क्या-क्या सोचेंगे | खैर .... वह दिन भी आया | अपने आपको हर तरह से सँभालते हुए मैं वहां देर से गया और जल्दी चला भी आया | पता चला कि वह गुडिया भी वहां देर से ही आयी थी | गयी कब , मैं नहीं बता सकता | वैसे लगाने को तो आप यह भी अनुमान लगा सकते हैं , कि वह भी शायद जल्दी ही चली गयी हो | यहाँ ‘संयोग’ वाली कोई भी बात कहकर मैं आपके मन में ऊब नहीं पैदा करना चाहता |

तब एक दूसरे के बारे में आने वाली सूचनाओं के पैर नहीं होते थे , और वे किसी न किसी के कंधे के सहारे ही सहारे से ही एक दूसरे के आँगन में उतरा करती थीं | मसलन उसकी किसी सहेली ने मेरे किसी दोस्त से कहा था , कि उसे उगते हुए सूरज पर चेहरा सेंकना अच्छा लगता है | वैसे तो मुझे इन बातों से कोई लेना-देना नहीं था , लेकिन कोई चक्कर न ढूँढने लगे , इस कारण मुझे इन जानकारियों के लिए भी अपने मस्तिष्क में खाने बनाने पड़ते थे | तो लगे हाथ मैंने , उगते हुए सूरज से किनारा रखना भी आरम्भ कर दिया था | अब चूकि यह काम तो प्रतिदिन का था , इसलिए मुझे पृथ्वी के घूमने पर ही खीज होने लगती | मुझे लगता कि , पृथ्वी के घूमने का एक कारण मुझे परेशान करना भी है |

उसकी सहेलियों के काँधे पर चढ़कर मेरे मित्रों के पास इसी तरह और भी कई सूचनाएं उतरा करती थीं | मसलन एक दिन उसका पसंदीदा ‘गुलाबी’ रंग मेरे दरवाजे उतरा | और जिस दिन वह उतरा , उस दिन के बाद मैंने उस ‘गुलाबी’ रंग से भी किनारा करना आरम्भ कर दिया | और यह किनारा ऐसा था , कि इस जानकारी के बाद जब होली आयी , तो मैंने रंग खरीदते समय दुकानवाले को इस बाबत साफ़-तौर पर निर्देशित भी किया था | हालाकि बाद में मेरी भाभी ने पता नहीं क्यों मुझसे यह कहा था कि “देवर जी ! होली केवल एक रंग से ही नहीं खेली जाती” |   

मैं अपने तई उससे दूर रहने का हर संभव प्रयास करता | मसलन वह जिस रास्ते से स्कूल आती थी , मैं उस रास्ते को बचाने लगा था | वह जिस समय में अपने घर से निकलती , मैं उस समय को बचाने का प्रयास करता | अब यह अलग बात थी , कि मेरे इस प्रयास को सफल बनाने के लिए ‘पृथ्वी को चपटी होना’ चाहिए था , और ‘दुनिया की तमाम घड़ियों को एक चाभी से संचालित’ भी होना चाहिए था | एक बार कालेज में एक कार्यक्रम था , और वह कुछ इस तरह से चला , कि अंधेरा घिर आया | तब उसने अपने ही मोहल्ले में रहने वाले अध्यापक की कार में जाना पसंद नहीं किया था , और पहली बार उसकी कोई बात मेरे पास सीधे चलकर आयी थी , जब उसने मुझे साईकिल से उतरकर पैदल अपने घर तक साथ चलने के लिए आग्रह किया था | ये बात मुझे आज तक समझ में नहीं आयी , कि उसे उस कार की सीट से क्या शिकायत थी , और डगरती हुयी साईकिल के समानांतर चलने में कैसा आनंद ?

इसी तरह के एक सामान्य दिन में उसकी सहेलियों और मेरे दोस्तों के रास्ते होते यह खबर भी उतर ही गयी , कि उसकी शादी तय हो गयी है | बाद में उसने एक ही ‘कार्ड’ पर पूरी कक्षा को आमंत्रित भी किया | मैं तो इन मामलों में अपनी दिलचस्पी आपको बता ही चुका हूँ , और उस नाते आप सब मेरे उत्साह – अनुत्साह से परिचित भी हो ही गए होंगे , लेकिन यह सोचकर कि कक्षा के सारे लड़के – लड़कियां जब वहां जायेंगे , और मैं अकेला नहीं जाऊँगा , तो फिर बात का बतंगड़ बन जाएगा , मैं उसकी शादी में चला गया  | अब चला तो गया , कि कोई बखेड़ा पैदा न हो , लेकिन वहां जाकर मैं इस बात पर बहुत हैरान हुआ , कि कालेज का कोई और दोस्त-मित्र दिखाई क्यों नही दे रहा है | खैर .... मैंने यह सोचकर अपने को दिलासा दिला लिया , कि यह भी हो सकता है , कि वे सब जल्दी ही आयें हों और जल्दी चले भी गए हों | या फिर देर से आये हों , और जल्दी चले गए हों | या होने को तो यह भी हो सकता है , कि उतनी भीड़-भाड़ में मुझे कोई देख ही न पाया हो | क्योकि मैं भी एक किनारे बैठकर बस अपने आपको  यह तसल्ली दिला रहा था , कि मैंने किसी का निमंत्रण ठुकराया नहीं है | अब मुझे कोई ‘..............अब्दुल्ला-दीवाना’ तो बनना नहीं था , कि कल को कोई भी ऐरा-गैरा व्यक्ति ताने कसने लगे , कि “ महराज ...! आप वहां इतना ‘उचक’ क्यों रहे थे ?’ जाहिर है , मैं ऐसे अनाप-शनाप सवालों को खड़ा होने से पहले ही कुचल देना चाहता था |

हालाकि बाद में कुछ चीजें ऐसी घटित हुयी , जिनके अर्थ आज तक मेरे सामने पहेली ही बने हुए हैं | एक तो यह कि मेरे दोस्तों ने इस सवाल को दागते हुए मेरा मजाक उड़ाया था , कि लड़कियों के दिए हुए निमंत्रण में साथ पढने वाले लड़के भी कहीं जाते हैं क्या ? मैंने इस सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया | और इसी का क्यों , मैं तो इस तरह के किसी सवाल में पड़ना ही नहीं चाहता था | क्या पता उन्होंने शायद ठीक ही कहा हो , क्योंकि अब की तरह उस समय सचमुच में ऐसा चलन नहीं था | इसलिए मैंने कहा , कि ऐसे सवाल मेरे लिए आज भी पहेली ही बने हुए हैं | क्या ही बेहतर होता , कि आप सुधिजन इन्हें सुलझाने का पुनीत कार्य करते ?   

और दूसरी बात उसकी एक सहेली ने बताई थी , जो उसकी बहुत करीबी दोस्त थी , और मेरी दूर की रिश्तेदार भी | वे दोनों एक दूसरे के घर अक्सर आया – जाया करती थीं | शादी के बाद एक दिन जब मैं किसी आवश्यक कार्यवश उसके घर गया था , और मैंने ऐसे ही पूछ लिया था , कि शादी ठीक-ठाक से निपट तो गयी , तो वह एकाएक गंभीर सी हो गयी | कहने लगी , कि ‘बाकि सब तो ठीक-ठाक से ही निपट गया , लेकिन शादी की भीड़-भाड़ में मेरी सहेली की कोई कीमती चीज खो गयी थी , और वह उसके खोने को लेकर बहुत परेशान थी | मैंने बार-बार उससे यह जानने की कोशिश की थी , कि वह ‘कीमती चीज’ क्या है , जिससे मैं उसकी कुछ मदद कर सकूं , तो वह मुझसे लिपटकर रोने लगती थी , और बस इतना ही कह पाती थी , कि “काश ...! मैं तुम्हे यह बता पाती ,  कि वह कीमती चीज क्या है |”  बाद में मैंने उसे समझाने के लिए कहा था , कि ‘शादी-विवाह में ऐसी चीजों का खो जाना एक सामान्य सी बात है , और तुम्हें इसके लिए इतना दुखी नहीं होना चाहिए |’ और फिर मैं अपने घर चली आयी |
कुछ देर चुप तक रहने के बाद वह बोली कि , ‘वैसे तो विदाई के समय हर लडकी ही दुखी होती है , रोती है , तड़पती है , लेकिन वह इन भावों से आगे बढ़कर कुछ बदहवास जैसी दिख रही थी | अलबत्ता मैं यह तो नहीं जान पायी , कि उसकी कौन सी चीज खोयी थी , लेकिन वह जो भी रही होगी , बहुत कीमती रही होगी , यह अनुमान जरूर लगा सकती हूँ |

उसने आगे बताया , कि शादी के बाद वह अपने पति के साथ चंडीगढ़ चली गयी थी , और वहां से उसने मुझे एक पत्र लिखा था | पत्र , उस ‘कीमती चीज’ के विवरण को छोड़कर सामान्य क़िस्म का ही था | उसने हाल-चाल के बाद लिखा था “ कि तुम तो मेरी करीबी दोस्त हो, इसलिए तुम्हें यह सब बता रही हूँ | हालाकि यह समझाना बहुत कठिन है , कि कीमती चीजों के खोने का दुःख क्या होता है | उनका दुःख यह नहीं होता , कि अब वे आपसे दूर चली जायेंगी , और फिर आप उसे उसी रूप में देख-सुन नहीं पाएंगी , वरन उनका सबसे बड़ा दुःख तो यह होता है , कि आप किसी से उसका जिक्र तक नहीं कर सकते | उनके खोने के दुःख को किसी से बाँट तक नहीं सकते |” और फिर उसने इधर-उधर की बात करके पत्र को समाप्त कर दिया था |
मैंने उससे पूछा था कि “तुमने उसे जबाबी पत्र लिखा था या नहीं ?”
तो उसने बताया , कि “क्यों नहीं , मैंने उसे अगले सप्ताह ही जबाबी पत्र भेजा था” | मैंने हाल-चाल के बाद उसे सूचित किया था , कि तुम्हारी बातें मेरी समझ में बिलकुल ही नहीं आ रही हैं , इसलिए यदि कुछ साफ़-साफ़ बता सकती हो , तो बताना |”
महीने बाद उसका फिर पत्र आया | पत्र क्या आया ,  एक तरह से वह आखिरी बातचीत के जरिये के रूप में आया | क्योंकि इसके बाद मेरी भी शादी हो गयी , और फिर हम दोनों का संपर्क भी टूट ही गया | उसने बताया कि यद्यपि मैंने वह पत्र कई बार पढ़ा , फिर भी वह मेरे पल्ले नहीं पड़ा | उसने उस पत्र में हाल चाल के बाद फिर उस कीमती चीज के बारे में लिखा था | जहाँ तक मुझे याद है , वह पत्र कुछ इस तरह से था कि “ समाज ऐसा होता है , कि वह इन कीमती चीजों के सुरक्षित बने रहने में भले ही आपकी कोई मदद न करे , लेकिन उनके भूल जाने पर वह तरह-तरह की बाते बनाने लगता है | मसलन वह पूछने लगता है , कि आपके पास यह कीमती चीज कैसे आयी ? आपने इसे कहाँ से पाया ? और पा ही लिया तो इसे बचाकर क्यों नहीं रखा ? फिर लगे हाथ यह भी कि अच्छा हुआ कि आप जैसे आदमी के पास से यह कीमती चीज खो गयी , जिसके पास इसे सँभालने की तमीज ही नहीं थी | ऐसे में , कोई भी आदमी उनके खोने के बारे में किसी को क्यों और कैसे बताएगा ?”
इतना कहने के बाद उसने पत्र के अंत में मुझसे ही सवाल कर दिया था “ क्या कभी तुम्हारी कोई कीमती चीज खोयी है ? कोई ऐसी कीमती चीज , जिसके बारे में तुम भी किसी को नहीं बताना चाहती थी |”
यह हम लोगों के बीच आखिरी बात बातचीत थी , और जैसा मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि इसके बाद मेरी भी शादी हो गयी , और हमारा संपर्क सदा के लिये टूट गया |

उसकी बातें मेरे सर के ऊपर से गुजर गयी थीं | मैं उस कीमती चीज के बारे में अंदाजा लगता हुआ अपने घर चला आया | मैंने हर तरह से कोशिश की , कि पत्र में लिखी बातों को अपने सर की सीध में ले आँऊ , लेकिन यह संभव नहीं हो सका | और तब की क्या कहूं , वे बाते आज भी मेरे लिए पहेली ही बनी हुयी हैं | बस ....  इस पूरे घटनाक्रम में मेरे लिए एक अच्छी चीज यह हुयी , कि उस गुडिया जैसी लड़की की शादी हो गयी | सचमुच इसके बाद मैं काफी निश्चिन्त हो गया था | अगली होली पर कौन सा रंग खरीदना है और किससे बचना है , जैसा बवाल भी उसी के साथ इस शहर से चला गया था | अब मुझे सूरज से कोई शिकायत नहीं थी कि वह कब उग रहा है और कब डूब रहा है | शहर के सारे रास्ते भी मेरे लिए खुल गए थे | घडी की सुइयों के चलने – बंद होने से भी मेरा वास्ता ख़त्म हो गया था , और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मेरे दिमाग में बने खाने चिपटकर पटरे जैसे हो गए थे , जिसमे न तो मुझे रखने के लिए कोई प्रयास करना पड़ता था , और न ही उन्हें सँभालने के लिए कोई जतन | उनमें बाते अपने से चली जाती थी , और अपने से ढरककर गिर भी जाती थी | मतलब कुल मिलाकर मैं एक निश्चिंत प्राणी हो गया था |

लगभग दो दशक तक मेरी यह निश्चिन्तता बनी रही , क्योंकि ‘संयोग में गाँठ’ भी पड़ी रही | लेकिन पिछले महीने कुछ ऐसा हुआ , कि मेरी मुलाकात उस गुडिया जैसी लडकी से अचानक रेलवे स्टेशन पर आमने –सामने हो गयी | वह अपनी माँ और अपने बेटे के साथ किसी ट्रेन का इन्तजार कर रही थी , और मैं अपनी बेटी के साथ एक जगह जाने के लिए प्लेटफार्म पर प्रतीक्षारत था | कालेज से निकलने के बाद यह हमारी पहली और इकलौती मुलाकात थी , क्योंकि शादी में क्या हुआ था , मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ | खैर .... अच्छी बात यह हुयी , कि उसने प्रचलित सामाजिक मानदंडों के अनुसार अपने बेटे से मेरा परिचय न तो ‘मामा’ के रूप में कराया , और न ही मुझे अजनबी जैसे पहचानने से इनकार किया | बल्कि उसने बड़ी सहजता के साथ मेरा हालचाल लिया , और मेरी पंद्रह साल की बेटी की पीठ भी थपथपाई | वह सुबह का वक्त था , और सूरज की माँ दुनिया को हांकने के लिए उसे सजा-धजाकर तैयार कर रही थी |
‘सुबह के सूरज की बात ही कुछ और है’ | अपने चेहरे को सूरज की तरफ करते हुए मैंने कहा |
वह मुस्कुरायी  | ‘अब तो शहर के सारे रास्ते खुल गए होंगे ?’ |
‘हां ......अब वे काफी साफ़-सुथरे और चौड़े हो गए हैं | इतने कि , किसी की कोई खोयी हुयी चीज भी ढूँढने पर मिल जाती है |
‘ ओह.... मिलने पर याद आया , कि अब तो दुकानों पर सारे रंग भी मिलते होंगे ?’  
इस बीच उसका बेटा अपनी दादी के साथ बात करने में मशगूल हो गया था , और मेरी बेटी पानी की बोतल खरीदने के लिए चली गयी थी |
‘हां .... लेकिन मुझे सारे रंगों से क्या मतलब ? मैं तो बस अपने बारे में जानकारी रखता हूँ | क्यों ...? कुछ गलत करता हूँ ...?
‘नहीं ..नहीं ..... सबको अपने बारे में जानकारी रखनी ही चाहिए |’ 
‘बिलकुल .... और कीमती चीजों को संभालकर रखना भी चाहिए | क्यों .....?
‘हां ....क्यों नहीं ! चाहे वह कोई गुडिया ही क्यों न हो ?
मुझे लगा , किसी ने मेरे शरीर से आत्मा को निकालकर मेरे हाथ पर रख दिया है , कि ‘देखो....... ! यह ऐसी ही दिखती है’ |
इतने में मेरी पैसेंजर ट्रेन आ गयी | मैं हड़बड़ी में उससे यह भी नहीं पूछ पाया , कि तुम्हें जाना कहाँ है | मैं ट्रेन की तरफ लपका और चढ़ गया | लेकिन यह क्या , उसने भी ऐसा ही किया | तो क्या उसे भी यही ट्रेन पकड़नी थी ...? ओह ...! तब तो हम एक ही डिब्बे में अपना यह सफ़र कर सकते थे ?
मैं तो उससे इसलिए यह नहीं पूछ पाया, कि पता नहीं इस प्रश्न को लेकर वह क्या सोचेगी ? ‘लेकिन वह भी तो मुझसे यह सवाल पूछ सकती थी ?

कहीं ऐसा तो नहीं , कि वह भी मेरी ही तरह संकोच में ही .............................. ?  
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( चित्र : सोनेई की चित्रकृति 'जापानी गुड़िया' ; गूगल छवि से साभार )
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रामजी तिवारी

जन्म तिथि – 02-05-1971
जन्म स्थान – बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें , संस्मरण और समीक्षाएं प्रकाशित
पुस्तक प्रकाशन - 'आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
मो.न. – 09450546312