सोमवार, 18 जुलाई 2011

मन न भए दस बीस

पिछले सप्ताह अपनी  पाँच कवितायें  'एक सीधी लकीर' शीर्षक से 'असुविधा' पर आई हैं। उनमें से दो को यहाँ आज सबके साथ साझा करने का मन  हुआ है। और क्या कहूँ...

०१- निरगुन

सादे कागज पर
एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर।

दो लकीरों के बीच
इतनी सारी जगह
कि समा जाए सारा संसार।
नामूल्लेख के लिए
इतना छोटा शब्द
कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार।

एक सीधी सादी लकीर
उसके पार्श्व में
एक और सीधी- सादी लकीर
शायद इसी के गुन गाते हैं
अपने निरगुन में सतगुरु कबीर।

०२- उलटबाँसी

दाखिल होते हैं 
इस घर में
हाथ पर धरे
निज शीश।

सीधी होती जाती हैं
उलझी उलटबाँसियाँ
अपनी ही कथा लगती हैं 
सब कथायें।
जिनके बारे में 
कहा जा रहा है
कि 'मन न भए दस बीस'।
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शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

बीते दिनों का अनबीता बयान

'बीतता कुछ भी नहीं है' ...यह निर्मल वर्मा कहते हैं और यह भी कि 'समय वहाँ - वहाँ है , जहाँ - जहाँ हम बीते हैं।'  फिर भी 'अपनी दुनिया' की  प्रचलित शब्दावली  में कहूँ तो बीते  दिनों की 'दूसरी दुनिया'  को याद करते हुए आज  कुछ कवितायें प्रस्तुत हैं :


०१- स्मृति

वह शहर
जहाँ एक झील थी
सतत रंग बदलती हुई।

यह शहर
जहाँ एक झील है श्वेत श्याम
स्मृतियों में जज्ब।

०२- अलबम

तस्वीरों में दिखतें है
चेहरे तमाम
याद आते हैं कुछ के नाम।

कुछ बेनाम
और कुछ ऐसे भी
जिनके लिए खोज न सका
अब तक कोई नाम।

०३- डायरी

कुछ शब्द
कुछ रेखायें
और ढेर सारा हाशिया।

बीते दिनों का
अनबीता बयान
एक संग्रहालय
स्वयं का स्वयं के लिए।


०४- टाइपराइटर

उदित होता था
एक जादू
जाना - पहचाना।

उंगलियाँ रखतीं थीं
कुंजीपटल पर अपने निशान
और कागज पर
उभरता जाता था अंत:साक्ष्य।

०५- चिठ्ठी

एक समय की बात

सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति
हुआ करता था डाकिया
और उसका थैला
मानो जादुई चिराग।
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रविवार, 3 जुलाई 2011

सतत रक्तस्रावित पाटल - सदृश निज हृदय

ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का ( २१ अक्टूबर १९२१ - १८ अप्रेल १९४२  ) की कुछ कवितायें आप  यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं। आधुनिक पोलिश कविता के बड़े नामों  से अलग यह एक ऐसा नाम है जिसके बारे में जानकारी प्राय: अल्प है। नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत  तरीके  से प्रतिरोध की मुहिम में संलग्न रही। अवैधानिक घोषित किए गए पत्र  'पोलैंड लाइव्स'  के वितरण के काम  को उसने अंजाम दिया। ८ मई १९४१ को  उसे गिरफ़्तार विशेष रूप से स्त्री बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया। वहीं १८ अप्रेल १९४२ को  अन्य ११ स्त्री बंदियों के साथ फायरिंग स्क्वाड द्वारा मृत्य की ओर धकेल  दिया गया।रावेन्सब्रुक  के बंदी जीवन के दौरान ग्राज़्यना  क्रोस्तोवस्का ने  कवितायें लिखी थीं जिनमें से कुछ का प्रसारण १९४३ में कैंप के मुताल्लिक एक समाचार में  बीबीसी से हुआ था। मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन जीने वाली इस कवयित्री की कविताओं से गुजरते हुए साफ लगता है कि वह तो अभी ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु:ख और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी आ गई। इस युवा कवि की कविताओं में सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और तन्हाई से उपजी की तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। आइए आज साझा करते हैं ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का  की दो कवितायें :



दो कवितायें : ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- स्वप्न

एक स्वप्न हुआ करता था मेरे पास
जिसमें तुम बाँच रहे होते थे अपनी कवितायें  
जैसे कि वे लिखे गए हों
किसी व्यतीत समय में।
जैसे कि वे दर्ज हों
मृत्यु के बाद  किसी भूरी पोथी में।

तुम नजर आते जाते हो
और महीन
और पीले
और लघुकाय
अंतत: हो जाते हो अदृश्य।

सबसे आखीर में
गायब होते हैं तुम्हारे हाथ
और बिना किसी नुकसान के
बची रह जाती हैं कवितायें।

और कविताओं की काया में
बचा रहता है किसी का हृदय।

०२- गवाक्ष के उस पार

उन्मुक्त - आह्लादित अंधड़ के बीच
पवन दोलायमान है
गवाक्ष के उस  पार।
लेकिन सलाखों के पीछे
कम से कम
इसे तुम सुन तो  सकते हो।

जीवन :  जरा सोचो
मात्र बीस बरस के वयस का  जीवन
और अपनी रातों के स्वप्न
डूबते जा रहे हैं लगातार
अभी तक :  कुछ नहीं
कैसा दिखाई देगा संसार
जिसे देखते चले आए थे हम?

मैं छिपाती हूँ
दुख में डूबा
सतत रक्तस्रावित पाटल - सदृश निज हृदय
लेकिन अगर हृदय हो  खाली
तो क्या होना चाहिए मुझे पछतावा?
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( मेरे द्वारा अनूदित ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कुछ कवितायें  कोलकाता  से सद्य: प्रकाशित  कविता केंद्रित पत्रिका  'अक्षर'  के प्रवेशांक में प्रकाशित हुई  हैं )