मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

उच्चपथ पर ऊँट

इस कविता का एकाधिक स्थानीय संदर्भ है लेकिन इसमें वह है भी और शायद नहीं भी हो सकता है। जिस जगह मैं  इस समय रहता हूँ  वह पहाड़ की लगभग तलहटी का  शहर बनते  कस्बे  से सटा एक गाँव है। एक ऐसी  जगह  जहाँ  सड़क पर ऊँट का दिखाई दे जाना कोई  साधारण बात नहीं है क्योंकि यह  इस जगह का रोज का दृश्य नहीं है। ऐसे असाधारण दृश्य यहाँ कभी - कभार ही प्रकट  होते है और देखे जाते हैं। पिछले कुछ दिनों से एन० एच० पर एक अदद ऊँट दिखाई दे रहा था जो अब  एक - दो दिन से दीखना बन्द है। मैं जिस भौगोलिक परिवेश में बड़ा हुआ हूँ वहाँ ऊँट  दैनंदिन का हिस्सा नहीं है । इसलिए ऊँट मेरे जीवन में  चित्रों,  किताबों , किस्सों , मुहावरों   आदि की शक्ल में दाखिल हुआ है। एक बात और  , वह यह कि अब रोज बरती जा रही भाषा में   बड़ी सड़क के  लिए एन० एच०  'शब्द'  जितनी आसानी से उपस्थित और  उच्चरित हो जाता है उतनी  ही आसानी व सहजता से  राजपथ या उच्चपथ नहीं। बहरहाल,  अब और बतकही नहीं । अभी प्रस्तुत है परसों लिखी गई यह एक  छोटी - सी  कविता  : 


उच्चपथ पर ऊँट

इस शीर्षक में
अनुप्रास की छटा भर नहीं है
न ही किसी गैरदुनियावी दृश्य का लेखा
किसी तरह की कोई सतही तुकबंदी भी नहीं
यदि कहूँ कि उसे कल सड़क पर देखा

सड़क पर ऊँट था
और उसके पीछे थी हर्षाते बच्चों की कतार
मैंने देखा
इसी संसार में  बनता एक और संसार

अगर कविता लग रही हो
यहाँ तक कही गई बात
तो सुनें गद्य का एक छोटा - सा वाक्य -
            बच्चे अब भी पहचानते हैं ऊँट को
            किताब के पन्नों के बाहर भी

और हम...
हमें कदम - कदम पर दिखता है पहाड़
और आईने में झाँकने पर
अक्सर एक अदद ऊँट।
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( चित्र : विम लेमेंस की पेंटिंग , गूगल से साभार)

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना

इस पटल पर विश्व कविता के अनुवादों की  सतत साझी प्रस्तुति के क्रम में आज प्रस्तुत है सीरियाई कवि           ,चित्रकार ,संपादक  नाज़ीह अबू अफा  (१९४ ६) की यह छोटी - सी  कविता।  कवि का पहला संग्रह १९६८ में आया था   और अब तक उनके तेरह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  जिनमें ' द मेमोरी आफ़ एलिमेन्ट्स' और  'द बाइबिल आफ़ द ब्लाइंड' प्रमुख हैं।  दुनिया भर की कई भाषाओं में उनके कार्य का अनुवाद हो चुका है। आज की यह कविता एक प्रार्थना है , एक उम्मीद और अपनी दुनिया  की कुरूपताओं , विसंगतियों और अवांछित - अनावश्यक को को दूर कर  शुभ, सुन्दर व सहज को बचाने , बनाने और आगे ले जाने की एक ऐसी  शाब्दिक कोशिश जिसका मर्म  समझने के लिए सिर्फ शब्द भर पर्याप्त  नहीं हैं।  और क्या कहा जाय , बाकी तो  यह कविता है, अध्ययन और अभिव्यक्ति की  साझेदारी के इस ब्लॉग के  पाठक हैं  और सबसे बढ़कर हम सब की साझी संवेदनायें हैं। तो ,आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :


नाज़ीह अबू अफा की कविता
इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

ले जाओ झुंड को - रेवड़ को
ले जाओ चरवाहों और गड़रियों को
ले जाओ -
          दार्शनिकों को
          लड़ाकों को
          सैन्य दलनायकों को
पर दूर ही रहो किसी बच्चे से
बख्शो उसे।
                                                                                                       
ले जाओ किलों और प्रासादों को                                            
ले जाओ -
           मठों को
           वेश्यालयों और देवालयों के स्तम्भों को
ले जाओ हर उस चीज को
जिससे क्षरित होती  है पृथ्वी की महत्ता
ले जाओ पृथ्वी को
और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न।

यदि वे आरोहण करे पर्वतों का
तो मत भेजो उनके तल में भूकम्प
यदि वे  प्रविष्ट हों उपत्यकाओं  में
तो मत भेजो उनके उर्ध्व पर बाढ़ और बहाव।

बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी
मुहैया कराओ उन्हें  ठोस और पुख्ता जमीन।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

जल्द , बहुत जल्द , जल्द ही ।

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी  के क्रम में  इस ठिकाने पर पिछली पोस्ट के रूप में स्लोवेनियाई कवि बार्बरा कोरुन ( १९६३ ) की दो कवितायें 'चुंबन' और 'गर्मियों की काली रात में' साझा की थी। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है बार्बरा की एक और कविता जिसका शीर्षक है 'जल्द'।

         
जल्द / बार्बरा कोरुन
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

जल्द ही
तुम अवाक और अकेले हो जाओगे
जल्द ही
तुम्हारी खोपड़ी
भर जाएगी बालू के कणों से
जल्द ही
प्यास काला कर देगी तुम्हारी जिह्वा को
जल्द ही
मरुस्थल की हवा
तुम्हारी सफेद हड्डियों को चटखा देगी
जल्द ही।

तुम्हारी अँतड़िया
तुम्हारी सारी दैहिक कोमल आंतरिकतायें
चीर कर  बाहर कर दी जायेंगी
और धूप में सूखने के लिए छोड़ दी जायेंगीं
जल्द ही।                                                                        

जल्द ही
तुम असंख्य कणों में एक कण की तरह बिला जाओगे
जल्द ही
तुम गीत आओगे
रेत के ढूहों के साथ
और चुनते रहोगे -
   निरर्थकता
  न होने जैसा कुछ होना
जल्द ही।

तब मैं आऊँगी तुम्हारे पास
उत्तर दिशा की रोशनियों की मानिन्द
और आसमानी रंगों  में घुलकर
तुम्हारे वीरान रेगिस्तानी गीत
और दूसरी दुनिया की आवाज के पास

ओह ! मैं आउंगी
मैं आऊंगी
जल्द
बहुत जल्द
जल्द ही ।
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( * चित्र : अलेक्जेंडर बाज़रिन की पेंटिंग 'इन साइलेंस'/ गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

गर्मियों की काली रात में

Let me sink myself into you
Into the grace of your gaze....

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी  के क्रम में आज प्रस्तुत हैं स्लोवेनियाई कवि बार्बरा कोरुन ( १९६३ ) की दो कवितायें। १९९९ में उनका पहला कविता संग्रह ' द एज़ आफ ग्रेस' प्रकाशित हुआ  था जिसे नवोदित कवि के  सर्वश्रेष्ठ प्रथम  संग्रह का  नेशनल बुक फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसके बाद से उनके तीन और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा कई  संकलनों में उनकी कवितायें शामिल की गई है। दुनिया की एक दर्जन से अधिक भाषाओं उनके कविकर्म का अनुवाद हो चुका है। बार्बरा की कविताओं में अपने निकट का अनूभूत  उपस्थित  होता है जो देखने - अनुभव करने में किसी अन्य या इतर लोक  का अथवा  मानव जीवन  के राग - विराग  से विलग अन्य तत्व  का नहीं बल्कि अपना - सा ही लगता है। आइए , आज पढ़ते - देखते हैं ये दो कवितायें ......


बार्बरा कोरुन : दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- चुंबन

कौन - सा शब्द
शयन कर रहा है तुम्हारे अधरों तले
कौन - सा ?

कौन - सा दृश्य
दमक रहा है तुम्हारी पलकों के नीचे
कौन - सा ?

कौन - सी आवाज
प्रतिध्वनित हो रही है
तुम्हारे कानों के कोटर में ?

स्पर्श की मीठी आग में
उभर रही हैं
सुनहले पंखों वाली
लोल लहरें चुपचाप।

०२- गर्मियों की काली रात में

तुम्हारे लिए
एक फूल चुनने की अभिलाषा में
मैं उतर आई फुलवारी बीच

उलझ पड़ा मुझसे फूल
उसने मेरे चेहरे पर बिखेर दीं पत्तियाँ
और बींध दिया काँटों से

अब मैं
कर रही हूँ तुम्हारा इंतजार
घर के कोने में
निपट अकेली

हाथों में मेरे
महसूस हो रहा है
कांपता हुआ गुलाब
और अंधेरे में लगातार रिसता
उसका गर्म काला रक्त।
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( * चित्र : मोना वीवर की पेंटिंग - ऐब्स्ट्रैक्ट वुमन एंड रोज , साभार )

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

कवियों के लिए एक कविता

.....illusion, dissolve the frame that says:
“I look at you and see no evidence of me.”

इस ठिकाने पर विश्व कविता के अनुवादों  को साझा करने के क्रम में आज प्रस्तुत है अमरीकी कवि , गीतकार और पोएट लौरिएट सम्मान से नवाजे गए  अल यंग ( जन्म : ३१ मई १९३९ ) की एक  छोटी - सी कविता  , जो मुझे बहुत प्रिय है। अल यंग की कवितायें  अपने समकाल की ऐसी  कवितायें है जो पीछे का दृश्य दिखाने के साथ  सोच और समझदारी को अग्रसर  करने की राह सुझाने का काम भी बखूबी करती हैं। आज प्रस्तुत यह कविता  मेरी समझ से  किसी भी देश- काल के रचनाकार  के लिए रचनात्मक प्रतिबद्धता और रचना प्रक्रिया की तहें खोलने का काम करती है। अल यंग  की कुछ कविताओं की साझेदारी जल्द ही .....


अल यंग की कविता
कवियों के लिए एक कविता  

( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

बने रहो सौन्दर्य से भरपूर
किन्तु भूमिगत मत रहो लम्बी अवधि तक
बदल  मत जाओ बास मारती छछूंदर में
न ही बनो -
        कोई कीड़ा
                कोई जड़
               अथवा शिलाखंड।

धूप में थोड़ा बाहर निकलो
पेड़ो के भीतर साँस बन कर बहो
पर्वतों पर ठोकरें मारो
साँपों से गपशप करो प्यार से
और पक्षियों के बीच  हासिल करो  नायकत्व ।

भूल मत जाओ  अपने मस्तिष्क में छिद्र बनाना
न ही पलकें झपकाना
सोचो,  सोचते रहो
घूमते रहो चहुँ ओर
तैराकी करो धारा के विपरीत।

और... और
कतई मत भूलो अपनी उड़ान।
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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

गांधी और कविता

ल दो अक्टूबर है महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती का दिवस। कल  हमारे आसपास बहुत सारे कार्यक्रम  संपन्न  होंगे।  बहुत सारे लोगों के लिए यह छुट्टी का दिन भी है - राष्ट्रीय अवकाश। आभासी संसार भी  कल  खूब दो अक्टूबरमय रहेगा  - पिछले बरसों की तरह। कल हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में  बहुत सारी पोस्ट्स  बनेंगी  , गढ़ कर - जड़कर बनाई जाई जायेंगी और साझा  भी  की जायेंगी। कूछ ऐसा ही काम मैं आज और अभी करने जा रहा हूँ। आज  दोपहर  बाद सोचा था कि  शाम को  - रात को   या सोने पहले दो अक्टूबर  पर  कुछ लिखूँगा , पर लिख ना हो न सका और अब सो जाना है क्योंकि सुबह जल्दी जागना है। फरमाइशी या अवसर विशेष पर लिखने के मामले अक्सर खुद को बहुत  कंफर्टेबल नहीं पाता हूँ। कल दिन में  एकाध कार्यक्रमों  भाग भी लेना है। वहाँ अवसरानुकूल  कुछ कहना  - बोलना भी हो सकता है। इसी बारे में कुछ सोचते हुए याद आया कि  पिछले बरस 'कबाड़ख़ाना' पर  इसी दो अक्टूबर  के दिन ही  आधुनिक मलयाली कविता के  प्रणेता के० सच्चिदानंदन की  एक कविता 'गाँधी और कविता' का  अनुवाद प्रस्तुत किया था। यह कविता आज  एक बार फिर पढ़ी  गई  है और मन हुआ है  कि गाँधी जयंती के अवसर पर इसे 'कर्मनाशा'  के कविता प्रेमी पाठकों के साथ साझा किया जाना चाहिए.........


के० सच्चिदानंदन की कविता
गांधी और कविता
(अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह)

एक दिवस
एक कृशकाय कविता
पहुँची गांधी - आश्रम तक
उनकी एक झलक पाने के लिए।

गांधी कताई में लीन
सरकाए जा रहे थे राम की ओर अपने सूत
कोई ध्यान नहीं उस कविता का
जो द्वार पर किए जा रही थी सतत इंतज़ार।

लाज आ रही थी कविता को कि वह बन सकी कोई भजन
उसने खँखार कर किया अपना गला साफ
तब गांधी ने उसे देखा अपनी उस ऐनक से
जिससे देखे जा चुके थे तमाम तरह के नर्क।
उन्होंने पूछा-
'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही  हो कभी भूखे पेट?'

कविता ने कहा:
'एक बहेलिए के मुख में
जंगल में हुआ मेरा जन्म
मछुआरे ने पाला पोसा अपनी कुटिया में.
फिर भी मुझे नहीं आता कोई काम
जानती हूँ केवल गान.
पहले मैंने दरबारों में गायन किया
तब मेरी काया थी हृष्ट-पुष्ट और कमनीय
लेकिन अब सड़कों पर हूँ
लगभग भूखी - दीन - क्षुधातुर।'

'अच्छी बात है' गांधी ने कहा
एक वक्र मुस्कान के साथ -
'लेकिन तुम्हें छोड़ना चाहिए
संस्कृत संभाषण की इस आदत को
जाओ खेत - खलिहानों में 
सुनो कृषकों की बातचीत।'

कविता अन्न में बदल गई
और खेतों में  जाकर  करने लगी इंतज़ार
कि प्रकट हो कोई हल
और उसके ऊपर बिछा दे
नई बारिश से आर्द्र भुरभुरी कुंवारी मिट्टी की सोंधी पर्त।