बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

जल्द , बहुत जल्द , जल्द ही ।

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी  के क्रम में  इस ठिकाने पर पिछली पोस्ट के रूप में स्लोवेनियाई कवि बार्बरा कोरुन ( १९६३ ) की दो कवितायें 'चुंबन' और 'गर्मियों की काली रात में' साझा की थी। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है बार्बरा की एक और कविता जिसका शीर्षक है 'जल्द'।

         
जल्द / बार्बरा कोरुन
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

जल्द ही
तुम अवाक और अकेले हो जाओगे
जल्द ही
तुम्हारी खोपड़ी
भर जाएगी बालू के कणों से
जल्द ही
प्यास काला कर देगी तुम्हारी जिह्वा को
जल्द ही
मरुस्थल की हवा
तुम्हारी सफेद हड्डियों को चटखा देगी
जल्द ही।

तुम्हारी अँतड़िया
तुम्हारी सारी दैहिक कोमल आंतरिकतायें
चीर कर  बाहर कर दी जायेंगी
और धूप में सूखने के लिए छोड़ दी जायेंगीं
जल्द ही।                                                                        

जल्द ही
तुम असंख्य कणों में एक कण की तरह बिला जाओगे
जल्द ही
तुम गीत आओगे
रेत के ढूहों के साथ
और चुनते रहोगे -
   निरर्थकता
  न होने जैसा कुछ होना
जल्द ही।

तब मैं आऊँगी तुम्हारे पास
उत्तर दिशा की रोशनियों की मानिन्द
और आसमानी रंगों  में घुलकर
तुम्हारे वीरान रेगिस्तानी गीत
और दूसरी दुनिया की आवाज के पास

ओह ! मैं आउंगी
मैं आऊंगी
जल्द
बहुत जल्द
जल्द ही ।
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( * चित्र : अलेक्जेंडर बाज़रिन की पेंटिंग 'इन साइलेंस'/ गूगल छवि से साभार)

7 टिप्‍पणियां:

Reenu Talwar ने कहा…

वाह! बहुत सुन्दर!

Arvind Mishra ने कहा…

विश्व साहित्य की ये अनूदित रचनाएँ हमें मानव मनोभावों के सर्व व्यापक सामान अवयवों से साक्षात कराती हैं-अच्छा अनुवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अनुवाद को माध्यम स एक बढ़िया रचना से आत्मसात् हुए हम भी!
आभार!

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर रचना |

नई पोस्ट:-ओ कलम !!

virendra sharma ने कहा…

हड्डियां ......बढ़िया भावानुवाद .

शिवा ने कहा…

बहुत सुन्दर!

Onkar ने कहा…

वाह, बहुत खूबसूरत