शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

इस रात में तुम्हारी आवाज


अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खा़ना' पर पहले भी पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। सो ,आज बिना किसी विस्तृत लिखत - पढ़त के प्रस्तुत है अन्ना अख़्मातोवा एक कविता ......


                              


अन्ना अख़्मातोवा की कविता
जश्न की रात
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

आओ ! अपनी सालगिरह का जश्न मनायें !
क्या तुम देख नहीं रहे हो
कितनी बर्फबारी से भरी है
सर्दियों की यह अपनी पहली रात.
हर रास्ते पर
हरेक वृक्ष पर
उभर रही है हीरे जैसी आभा
और लगातार जारी है जाड़े का जलसा.

पुराने , पीतवर्णी घुड़सालों से उठ रही है भाप
बर्फ के भीतर डूबती जा रही है मोइका नदी
किस्से - कहानियों में बखाने गए रहस्यों की तरह
धुन्ध में छिटक रही है चाँदनी
और किस ओर , किस दिशा में बढ़ते जा रहे हैं हमारे कदम
- मुझे कुछ नहीं मालूम.

हिमशिलाओं से भर गया है
मार्सोवो पोल का अतिविस्तीर्ण उपवन
स्फटिक की चित्रकारी से
उन्मत्त हो गई है लेब्याझ' या नाम्नी झील...
वह कौन है जिसके प्राण से
तुलना की जा सकती है मेरे प्राणों की
तब, जबकि भय और आनन्द
दोनों एक साथ हैं मेरे हृदय में विराजमान ?

इस रात में तुम्हारी आवाज
जैसे कि
किसी खूबसूरत चिड़िया की फड़फड़ाहट
बैठ गई हो मेरे कंधों पर.
बर्फ के रुपहले उजास से भरी इस रात में
तुम्हारे शब्दों की
अकस्मात उदित हुई रश्मियों से
गुनगुना होता जा रहा है मेरा समूचा अस्तित्व.

शनिवार, 21 अगस्त 2010

कविता में केलंग और केलंग की कविता



* टिप्पणी ( २३ अगस्त २०१० / ३.५८ बजे  / दोपहर बाद )  : यह पोस्ट परसों रात को लगाई थी। सुबह - सुबह मयंक जी के मेल / फोन से पता चला कि इस पूरी पोस्ट का पाडकास्ट अर्चना चावजी ने तैयार किया है। उसे सुना तो अच्छा लगा कि मेरे जैसा आलसी व्यक्ति 'कर्मनाशा' पर कुछ यूँ  - सा लिखता है तो उसे पढ़ा व पसंद भी किया जाताहै। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में साझेदारी बहुत जरूरी है। मुझे खुशी है कि यह पोस्ट साझेदारी का एक अच्छा उदाहरण कही जा सकती है क्योंकि कवितायें अजेय जी की हैं, पाडकास्ट अर्चना चावजी ने तैयार किया है और इसके निमित्त मयंक जी बने हैं। मैं तो बस प्रस्तुतकर्ता भर हूँ। पिछले एक दिन से मेरे टेलीफोन और इंटरनेट का हाल बेहाल था बस अभी कुछ देर पहले ही उसकी तबीयत दुरुस्त हुई है सो अजेय जी, मयंक जी और अर्चना चावजी के साथ धन्यवाद बी. एस. एन.एल. की डाटावन सेवा को भी। अब इस पोस्ट को पढ़ते हुए अर्चना चावजी के सधे और सुस्पष्ट स्वर में सुना भी जा सकता है। उन्हें बहुत - बहुत धन्यवाद ! तो आइए सुनते हुए पढ़ें या पढ़ते हुए सुनें। 


 

*
वह आता है
जैसे तितलियों का झुण्ड

विराजता है
जैसे सम्राट

और खिसक जाता है
जैसे चोर .

ऊपर लिखी पंक्तियाँ अजेय की है;वही अजेय जो हिन्दी का सुपरिचित कवि है। अजय केलंग में रहते है। केलंग हिमाचल प्रदेश के लाहुल - स्पीति जिले का मुख्यालय है। हमारे लिए रोहतांग जोत के पार का वह इलाका जो 'दुर्गम' कहा जाता है। अभी कुछ महीने पहले तक यह मेरे लिए 'दूसरी दुनिया' थी और यहाँ के बारे में जो भी जानकारी थी वह किताबो ,किस्सों ,पत्र- पत्रिकाओं और इंटरनेट के आधार पर निर्मित थी। इसी साल मई के आखीर में कुछ ऐसा संयोग बना कि केलंग तक हो आया और ऊपर लिखी पंक्तियों के 'वह' को देख - मिल आया। 'वह' बोले तो कौन? 'वह' यानि बर्फ़ / बर्फ़बारी / हिम / ह्यूँद..। हमारे कविमित्र विजय गौड़ ने लिखा है कि उनके लिए केलंग का मतलब अजेय है अर्थात केलंग = अजेय या अजेय = केलंग। हिन्दी साहित्य की दुनिया के चलते - फिरते इनसाइक्लोपीडिया बड़े भाई वाचस्पति ने भी फोन पर चेताया कि केलंग जा रहे हो तो अजेय से जरूर मिलना। अब मैं उनसे क्या कहता कि केलंग के मेरे आकर्षणों में अजेय का नाम सबसे ऊपर है क्योंकि कविताओं में मैं जिस इंसान को मैं देखता आया हूँ वह कुछ अलग - सा लगता है। इसलिए नही कि कि वह एक 'अलग -सी दुनिया' में रहता है जो आमतौर पर 'दुर्गम' है, 'भीषण सुन्दर' है बल्कि वह उस परिवेश की बात करता है जो हिन्दी साहित्य के जरिए बहुधा रुमानी बनाकर पेश किया जाता रहा है मानो धुर हिमालयी दुनिया एक अलग द्वीप है सौन्दर्य ,रहस्य और अध्यात्म की धुंध लिपटी - सिमटी ;गोया वहाँ मनुष्य रहते ही न हों। अजेय अपनी कविताओं में वहाँ की माटी, मनुष्य और मौसम की बात सीधे , सहज सरल शब्दों में करते हैं ।यह एक ऐसी सहजता है जो संवेदना और शब्द के प्रति सच्ची ईमानदारी से उपजती है।


यह ठीक है कि केलंग की दुनिया एक अलग - सी दुनिया है; एक ऐसी दुनिया जो जाड़े महीनों के लिए शेष दुनिया से विलग हो जाती है किन्तु वह दूसरी तरह के मनुष्यों की दुनिया नहीं है। वह इसी दुनिया के मनुष्यों का एक संसार है सुख - दु:ख की साझी साधारणता में सीझता हुआ। केलंग की ढेर सारी तस्वीरें मेरे कैमरे में कैद है और स्मृतियों में वहाँ बिताए चार - पाँच दिन - रात के सिलसिले। कविताओं से परे कवि अजेय से मिलना और एक अच्छे इंसान से मिलने का सुख पाना। केलंग तस्वीरों में बहुत सुंदर दिखाई देता है । तस्वीरों से बाहर और परे भी वह कम सुंदर नहीं है। सुख - सुविधाओं के साजो सामान से परिपूर्ण होटल चन्द्रभागा की खिड़की से भी वह बहुत सुन्दर दिखाई देता है।जनजाति संग्रहालय में भी उसकी खूबसूरती के नमूनों का संग्रह है। बर्फ़बारी में भी वह सौन्दर्य से भरपूर नजर आता है। आरामदेह गाड़ी की फ्रंट सीट पर बैठकर कैमरा क्लिकाते हुए भी वह बेहद भला - सा लगता है लेकिन क्या वह इतना भर ही है? क्या इतने भर में ही हम केलंग को पकड़ पाते हैं? आइए देखते है कि केलंग के वासी अजेय की कविताओं में कैसी दिखती है केलंग की दुनिया :



अजेय की चार कवितायें

केलंग-१ / हरी सब्जियाँ

'फ्लाईट´ में सब्ज़ी आई है
तीन टमाटर
दो नींबू
आठ हरी मिरचें
मुट्ठी भर धनिया

सजा कर रखी जाएँगी सिब्ज़याँ
`ट्राईबेल फेयर´ की स्मारिका के साथ
महीना भर

जब तक कि सभी पड़ोसी सारे कुलीग
जान न लें
फ्लाईट में हरी सब्ज़ियाँ आई है।
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केलंग-२ / पानी

बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो

चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में

कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का

पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´

`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।
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केलंग-३ / बिजली

`सिल्ट´ भर गया होगा
फोरवे´ में
`चैनल´ तो शुरू साल ही टूट गए थे

छत्तीस करोड़ का प्रोजेक्ट
मनाली से `सप्लाई´ फेल है
सावधान
`पावर कट´ लगने वाला है

दो दिन बाद ही आएगी बारी
फोन कर लो सब को
सभी खबरें देख लो
टी० वी० पर
सभी सीरियल

नहा लो जी भर रोशनियों में खूब मल-मल
बिजली न हो तो
ज़िन्दगी अन्धेरी हो जाती है।
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केलंग-४ / सड़कें

अगली उड़ान में `शिफ्ट` कर दिया जाएगा
`पथ परिवहन निगम´ का स्टाफ

केवल नीला टैंकर एक `बॊर्डर रोड्स´ का
रेंगता रहेगा छक-छक-छक
सुबह शाम
और कुछ टैक्सियाँ
तान्दी पुल-पचास रूपये
स्तींगरी-पचास रूपये

भला हो `बोर्डर रोड्स´ का
पहले तो इतना भी न था
सोई रहती थी सड़कें, चुपचाप
बरफ के नीचें
मौसम खुलने की प्रतीक्षा में
और पब्लिक भी

कोई कुछ नहीं बोलता ।
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( अजेय और केलंग की तस्वीरें पोस्ट लेखक की मई २०१० यात्रा की हैं। कुछ और तस्वीरें जल्द ही )

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

धूप में खड़ा है धान


* आज बहुत दिनों के बाद ब्लाग पर सीधे / आनलाइन कुछ यँ ही लिख - सा दिया है। अब यह कविता है तो ठीक ! नहीं है तो भी ठीक !  क्या करूँ 'कवित विवेक एक नहिं मोरे..'  घर से जहाँ तक निगाह जाती है बस  धान के हरे भरे खेत..उनके पार जंगल का हरापन और दूर क्षितिज पर झाँकते पहाड़ों का नीलापन । हर ओर रंग ही रंग हैं ..फिर भी ..कभी कबार दबे पाँव दुबक कर  चला ही आता है उदासी का एकाध टुकड़ा...।
* अब मैं  और क्या कहूँ? आप ही देखें.... अपन तो कंप्यूटर जी को बा - बाय कर चले अपने काम पर...


स्वगत

धूप में खड़ा है धान
हरियाया।
छाँह में छिपता हूँ मैं
घबराया।

खेतों में पसरा है
चहुँओर
काहिया हरापन
और इधर इस ठौर
बस रंगहीन - रसहीन
एक चित्रण

लगता है
अपना ही दु:ख
सर्वाधिक गहराया।

ऊपर सूरज का तेज
नीचे मिट्टी नर्म - नम
फिर भी क्यों चुभते हैं
तलवों में
अनदेखे काँटे हरदम

चलो उदासी को
आज झुठलायें
खिल जाये मन कमल
मुरझाया।

धूप में खड़ा है धान
हरियाया।
छाँह में छिपता हूँ मैं
घबराया।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

मुझे तलाश थी एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके


* सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी की बहुत - सी कविताओं के मेरे द्वारा किए गए अनुवाद आप यहाँ 'कर्मनाशा' पर और 'कबाड़खा़ना'  'अनुनाद'  तथा 'सबद' पर पढ़ कई बार पढ़  चुके हैं। निज़ार की कुछ कवितायें  'दैनिक भास्कर' के रविवासरीय परिशिष्ट में भी छपी हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है कि आज से कई बरस पहले हिन्दी में पहली बार  बनारस के प्रो० रामकीर्ति शुक्ल ने निज़ार क़ब्बानी को हिन्दी में इंट्रोड्यूस किया था और बाद में एकाध चित्रकारों ने उनकी कविताओं पर आधारित पोस्टर्स बनाए थे। अब  निज़ार प्रमुखता से  हिन्दी में आ रहे हैं और खुशी है कि उन्हें पसंद किया जा रहा है। एक सामान्य कविता प्रेमी और अनुवादक के रूप में यह देखना - सुनना मुझे अच्छा लग रहा है और लग रहा है कि अपनी मेहनत कुछ हद तक सफल रही। अनुवाद का यह क्रम जारी है। इधर अभी बिल्कुल अभी 'पक्षधर' ( संपादक : विनोद तिवारी )  पत्रिका का नया अंक ( वर्ष -०४ / अंक -०९ ) आया है जिसमें मेरे द्वारा अनूदित निज़ार कब्ब्बानी की दस प्रेम कवितायें प्रकाशित हुई है। संपादक के प्रति आभार सहित हिन्दी की पढ़ने - पढ़ाने वाली बिरादरी और विश्व कविता प्रेमियों के साथ इस सूचना को शेयर करना मैं जरूरी समझता हूँ। यदि मन करे , समय हो तो तो 'पक्षधर' के नए अंक पर निगाह डाली जा सकती है। आज प्रस्तुत है निज़ार क़ब्बानी की दस प्रेम कविताओं में से एक कविता :


निज़ार क़ब्बानी की कविता
उदासी का महाकाव्य
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है दु:खी होना
दु:ख - जिसकी मुझे तलाश थी सदियों से ।
मुझे तलाश थी
एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके
जिसके बाहुपाश में
मैं एक गौरये -सा दुबक कर रोता रहूँ
मुझे तलाश थी एक स्त्री की
जो मेरी चिंदियों को बीन सके
वो जो बिखरी हैं टूटे क्रिस्टल के टुकड़ों की तरह

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दी हैं मुझे बुरी आदतें
मसलन इसने मुझे काफ़ी के कपों को
पढ़ना सिखला दिया है एक ही रात में हजारों - हजार बार
इसने मुझे सिखला दिए हैं कीमियागीरी के प्रयोगात्मक कार्य
इसी के कारण मैं अक्सर दौड़ लगाने लगा हूँ
भविष्य बाँचने वालों के ठौर- ठिकानों की ओर ।

इसने मुझे सिखला दिया है घर छोड़ भटकना
सड़क की पटरियों पर गहन आवारागर्दी करना
और बारिश की बूँदों
तथा कार की लाइट्स में
तुम्हारे चेहरे की तलाश का उपक्रम करना ।
अजनबियों के परिधानों में तुम्हारे पहनावे की पहचान करना
और यहाँ तक कि..
यहाँ तक कि...
विज्ञापन के पोस्टरों में भी तुम्हारी छवि की एक झलक -सी पा जाना ।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
यूँ ही भटकना बेमकसद - बेपरवाह
घंटों तक डोलना एक ऐसी बंजारन की खोज में
जो सौतिया डाह से भर देगी पूरी बंजारा औरत बिरादरी को
चेहरों और आवाजों के रेवड़ में
मैं कब से तलाशे जा रहा हूँ
एक चेहरा ..
एक आवाज.. ।

मेरे भीतर धँस गया है तुम्हारा प्रेम
उदासी के नगर में
मैं पहले कभी दाखिल नही हुआ हूँ अकेले
मुझे पता नहीं , फिर भी
अगर आँसू होते होंगे इंसान
तो उदासी के बिना
वे साधारण इंसानों की छाया मात्र होते होंगे ..शायद..।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
एक बच्चे की तरह हरकतें करना
चाक से उकेरना तुम्हारा चेहरा -
दीवार पर
मछुआरों की नावों पर
चर्च की घंटियों पर
और न जाने कहाँ - कहाँ..
तुम्हारे प्रेम ने सिखला है
कि किस तरह प्रेम से बदला जा सकता है
समय का मानचित्र.... ।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि जब मैं प्रेम करता हूँ
थम जाती है पृथ्वी की परिक्रमा|.
तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया दिया है
हर चीज को विस्तार और विवरणों के साथ देखना
अब मैं पढ़ता हूँ बच्चों के लिए लिखी गईं
परियों की कथाओं वाली किताबें
और दाखिल हो जाता हूँ जेन्नी के राजमहलों में
यह सपना पाले कि सुल्तान की बेटी मुझसे झट शादी कर लेगी
आह..वो आँखें....
लैगून के पानी से भी ज्यादा शफ़्फ़ाक और पानीदार
आह ..वो होंठ..
अनार के फूल से भी ज्यादा मादक और सम्मोहन से लबरेज..
मैं सपने देखता हूँ कि एक योद्धा की तरह
उसका हरण कर लाऊँगा
सपने में यह भी देखता हूँ कि उसके गले में पहना रहा हूँ
मूँगों और मोतियों का हार।
तुम्हारे प्रेम ने मुझे सिखला दिया है पागलपन
हाँ, इसी ने सिखला दिया है कि कैसे गुजार देना है जीवन
सुल्तान की बेटी के आगमन की प्रतीक्षा में।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे प्रेम करना है सब चीजों से
कि कैसे प्रेम को खोजना है सब चीजों में
जाड़े -पाले में ठिठुरते एक नग्न गाछ में
सूखी पीली पड़ गई पत्तियों में
बारिश में
अंधड़ में
उतरती हुई शाम के सानिध्य में
एक छोटे - से कैफे में पी गई
अपनी पसंदीदा काली काफ़ी में।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है...शरण्य
शरण लेना होटलों में
बेनाम - बेपहचान
चर्चों में
बेनाम - बेपहचान
कॊफ़ीहाउसों में
बेनाम - बेपहचान।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे रात में अजनबियों के बीच
अचानक उपजती उभरती उलाहना देती है उदासी
इसने मुझे सिखला दिया है
बेरुत को एक स्त्री की तरह देखना
एक ऐसी स्त्री
जिसके भीतर भरा है निरंकुश प्रलोभन
एक ऐसी स्त्री
जो हर शाम पहनती है अपनी सबसे खूबसूरत पोशाक
और मछुआरों तथा राजपुत्रों को लुभाने के लिए
उभारों पर उलीचती है बेशकीमती परफ़्यूम।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है रुलाई के बिना रोना
तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे उदासी को आ जाती है नींद
रोश और हमरा की सड़कों पर
पाँव कटे , एक रोते हुए लड़के की तरह।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है दु:खी होना
दु:ख - जिसकी मुझे तलाश थी सदियों से ।
मुझे तलाश थी
एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके
जिसके बाहुपाश में
मैं एक गौरये -सा दुबक कर रोता रहूँ
मुझे तलाश थी एक स्त्री की
जो मेरी चिंदियों को बीन सके
वो जो बिखरी हैं टूटे क्रिस्टल के टुकड़ों की तरह ।