बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

पुराना स्कूटर

( यह कहानी लखनऊ से प्रकाशित होने वालॊ पाक्षिक पत्रिका ' दस्तक टाइम्स' के १५ अक्टूबर २००९ के अंक में प्रकाशित हुई है। इसके छपने के बाद बेटे अंचल जी कहा था कि मैं भी एक ' स्टोरी' लिखूँगा। उन्होंने लिखी भी जो इस पोस्ट से ठीक पहले लगी है। आप सबने बालक के लिखे को पसंद किया और अपनी महत्वपूर्ण राय दी अतएव आभार !अपनी ओर से और नन्हें कहानीकर की ओर से भी । अब देखते हैं कि इस नाचीज की यह कहानी आप को कैसी लगती है ? 'दस्तक टाइम्स' की पूरी टीम को धन्यवाद देते हुए 'कर्मनाशा' के पाठकॊं की सेवा में प्रस्तुत है यह कहानी - 'पुराना स्कूटर')


पुराना स्कूटर

* सिद्धेश्वर सिंह

आज से कुछ दिन पहले एक कविता लिखी थी - 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' . क्या आप सुनना पसंद करेंगे ? अजी छोड़िए साहब ! कविता आजकल सुनना कौन चाहता है. अखबारों - पत्रिकाओं में छपी हुई मिल जाय तो टाइमपास के लिए पाठक पढ़ जरूर लेता है . वैसे भी इस कविता में न तो किसी काल्पनिक सुन्दरी से सपने में किए गए प्यार - मुहब्बत की कोई बात है , न तो किसी का नेता - वेता का मजाक उड़ाया गया है और न ही किसी अड़ोसी - पड़ोसी देश की ऐसी - तैसी करने की ललकार भरी गई है . कुल मिलाकर यह कहने का मन कर रहा है कि जिस कविता का बार - बार जिक्र किया जा रहा है वह कविता है भी या कुछ और है ? अब प्रश्न यह है कि 'कविता क्या है ? बाबा रामचन्द्र शुक्ल और और उनके खेवे के लोग तो बहुत पहले ही किनारे लग लिए , भारतेन्दु की निज भाषा भी निरन्तर नई चाल में ढल रही है , मुंशी प्रेमचन्द अपनी मोटी मूँछों के बीच मन्द - मन्द मुस्करा रहे हैं कि देखो बेटा , क्या साहित्य अब भी राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है , मुक्तिबोध अंधेरे में कुछ तलाश रहे हैं , धूमिल लोहे का स्वाद पूछ रहे हैं और समकलीन कविता के अनेक देदीप्यमान नक्षत्र पुरस्करों की लेंड़ी बटोरकर देस - परदेस का फेरा लगा रहे हैं . अब ऐसे माहौल में 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' शीर्षक कविता भला कैसी बनी होगी यह सोचने की बात है।

आप राजधानी से निकलने वाली एक रंगीन पत्रिका के सम्मानित पाठक हैं जो मुख्यत: समाचारों पर केन्द्रित होती है , समाचार माने राजनीतिक उठापटक , फिल्मी हीरो - हीरोइनों के किस्से, लूटपाट - मारकाट - बलात्कार आदि - इत्यादि . इस तरह की पत्रिका में कविता या कहानी का छपना वैसा ही होता है जैसे कि दाल में नमक . आज शाम को बाजार से गुजरते हुए यह याद आया कि अब घाव पर नमक छिड़कने से ही चुभन नहीं होती बल्कि दाल छिड़कने से भी होती है. क्यों भला ? कविता - फविता पर बात तो होती रहेगी. आज शाम को की गई खरीददारी की स्मृति के आधार पर बनाई गई पर्ची तनिक देख लेवें -

डेटाल लिक्विड सोप छोटा पाउच - 52 रुपए
सन्फ्लावर कुकिंग आयल एक लीटर - 70 रुपए
सिंघाड़े का आटा आधा किलो - 25 रुपए
अरहर दाल एक किलो - 95 रुपए
शेविंग रेज़र यूज एन्ड थ्रो दो नग - 30 रुपए
आलू पुराना एक किलो - 20 रुपए
भिन्डी आधा किलो - 15 रुपए
सेब एक किलो - 85 रुपए
गुड़ आधा किलो - 22 रुपए
पेट्रोल टू टी आयल के साथ - 100 रुपए

क्यों साहब, क्या कुछ चुभन हुई ? क्या लगा - नमक या दाल ? अब तो दाल से जुड़े मुहावरों का अर्थ और वाक्य करने से भी मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है। तो यह था कल शाम के वक्त अपने कस्बे के बाज़ार का हालचाल. गणित अपनी हमेशा से कमजोर रही है लेकिन इतनी भी कम नहीं कि आमदनी और खर्चे का हिसाब न रखा जाय .ऊपर की गई खरीददारी का जोड़ कुल 514 रुपए का बैठता है. अगर इसी में कविता का भाव लिख दिया जाय तो ? एक किलो कविता का क्या भाव होगा ? वैसे कोई इसका खरीददार भी है क्या ? अगर नहीं है तो कवितायें लिखी किसके लिए जा रही हैं ? हिन्दी में रोज निकलने वाली नई - नई पत्रिकाओं के संपादक जी लोग उन्हें छाप क्यों रहे हैं ? अब तो गंगा - जमुनी मुशायरों और कस्बे के स्तर पर आयोजित किन्तु अखिल भारतीय हो जाने वाले कवि सम्मेलनों के दिन भी लद गए जिनमें लालाजी लोगों का पैसा लगता था और 'कबी जी' लोगों की मौज हुआ करती थी. एकतरफा प्यार - मुहब्बत में डूबे कुछ किशोर - युवा अपनी डायरी में कविताओं के टुकड़े उतारा करते थे और प्रेमपत्रों में उनका प्रयोग होता था.अब लगभग सब बदल गया है. फिर भी दो चीजें वैसी ही दिखाई दे रही हैं - एक तो कविता , जो अब भी लिखी जा रही है और पुराना स्कूटर जो अब भी चलता जा रहा है लगातार.

चलिए साहब , थोड़ी देर कहानी की बात कर ली जाय. सौ रुपए का पेट्रोल टू टी आयल के साथ कहाँ , किसमें डाला गया ? इंसान तो पेट्रोल पीता नहीं जरूर स्कूटर में डाला गया होगा. आपने ध्यान दिया होगा आजकल सड़क पर सबसे कम दिखाई देने वाली कोई सवारी अगर है तो वह स्कूटर है. आप पाठक हैं , पैसा खर्च करके आपने यह रंगीन पत्रिका खरीदी है इसलिए ज्यादा चाटूँगा नहीं लेकिन स्कूटर पर कहानी लिखनी है तो माडल , इंजन नंबर , चेसिस नंबर , रजिस्ट्रेशन नंबर वगैरह बताना तो पड़ेगा ही क्योंकि रूसी भाषा के एक बड़े कहानीकार बाबा चेख़व कह गए हैं कि कहानी में डिटेल्स बहुत जरूरी होते हैं. लेकिन इनमें आपकी क्या रुचि हो सकती है ? क्या फर्क पड़ता है कि स्कूटर का इंजन नंबर , चेसिस नंबर , रजिस्ट्रेशन नंबर आदि - इत्यादि क्या है ! बताया तो यह जाय कि यह स्कूटर किसके नाम है और इसे चलाता कौन है. लीजिए साहब सुनिए - इसकी ओनरशिप बाबूजी के नाम है , चलाते भी वही हैं. परिवार में उनको मिलाकर कुल चार सदस्य हैं लेकिन स्कूटर पर एक बार में तीन ही आ प्तकते हैं. यह चौदह साल पुराना माडल है. बाबूजी ने उसी साल लिया था जिस साल बेटी का जन्म हुआ था जो अब क्लास नाइन्थ में पढ़ती है. बेटे के जन्म के समय सोचा था कि बाइक ले लेंगे लेकिन हो न सका और अब तो बेटे जी भी क्लास थ्री में पढ़ रहे हैं. वही स्कूटर अब भी है - चौदह साल पुराना. अपने बाबूजी कवि हैं वे इसे पुराने खेवे का स्कूटर कहते हैं.अब आप ही बताइए ऐसे पुराने स्कूटर पर क्या कहानी लिखी जाय जो मुश्किल से बीस का एवरेज देता है और आए दिन खराब होता रहता है . आप कहेंगे नया ले लो ., लेकिन मैं कैसे कह दूँ क्योंकि मैं तो स्कूटर को भी जानता हूँ और उसके सवार बाबूजी को भी.

कुछ लिखना तो है , किसी तरह से दो - तीन पेज पूरे करने हैं , पर लिखा क्या जाय ? देश के दिल दिल्ली में वास करने वाले बड़े आलोचक और कहानीकार का कहना है कि विषयों की कोई कमी नहीं है , नए लेखक ही अपनी जमीन से उखड़ गए हैं. वे न तो गाँव के रह गए हैं न ही शहर के , और कस्बों में कोई रहना नहीं चाहता है. लेकिन अपना यह स्कूटर सवार कवि - कथाकार कस्बे में ही रहता है. उसके बच्चे इसी कस्बे के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं, इसी कस्बे की एक कलोनी में उसका अपना एक आशियाना है जो बैंक से कर्ज लेकर बनाया गया है और जिसकी किश्तें उतने ही समय तक अदा करनी हैं जितने समय तक कि किसी नए स्कूटर का पंजीकरण होता है. बार - बार यह स्कूटर बीच में क्यों आ जाता है भाई ! आप तो हिन्दी साहित्य के सुधी पाठक हैं , सो याद होगा कि आज से कई साल पहले एक बड़े कहानीकार ने स्कूटर पर एक कहानी लिखी थी और एक बड़ी पत्रिका में छपने के बाद मिले पारिश्रमिक से कार खरीदने के कारण उसकी खूब चर्चा हुई थी. तभी अपने बाबूजी ने सोच लिया था कि जब अपना स्कूटर पुराना हो जाएगा तो उस पर एक कहानी लिखेंगे और प्रकाशित होने पर पारिश्रमिक से मिले पैसों से कार खरीदेंगे. अब स्कूटर तो पुराना हो गया लेकिन कहानी नहीं लिखी गई अलबत्ता 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' कविता में पुराने स्कूटर का जिक्र जरूर आया है.अगर आप बोर न हो रहे हों तो आइए कुछ पंक्तियाँ देख ही लेते हैं -

कस्बे के हृदय स्थल
अर्थात मेन चौराहे पर
अपना चौदह साल पुराना स्कूटर रोक कर
आँख भर देख रहा हूँ
रोज - रोज बनती हुई एक दुनिया
और सोच रहा हूँ अच्छा - सा होगा अगला साल.

उम्मीद अब भी बाकी है. कस्बा अब भी शहर बनने की संभावना से भरा हुआ है. बच्चे अब भी स्कूल जा रहे हैं. मार तमाम गर्मी के बावजूद भी इस साल गुलमुहर और अमलतास में खूब फूल आए. ग्लोबल वार्मिंग की धमक के बीच भी फसलों में दाने आ रहे हैं और बारिश भी काम भर हो ही जा रही है.माना कि बाजार में आग लगी है और चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं जैसा कि ऊपर दर्शाई गई पर्ची से स्पष्ट हो रहा है फिर भी कविता अब भी लिखी जा रही है और अपने बाबूजी का पुराना स्कूटर अब भी चलता जा रहा है. यह क्या है ? क्या यह आश्चर्य है ? क्या यह आश्चर्य है कि सोलह वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद पति - पत्नी अब भी प्यार कर रहे हैं ? मोबाइल और इंटरनेट के बाद भी डाकिया हर तीसरे चौथे दिन कोई न कोई डाक लेकर चला ही आता है भले ही उनमें पत्र - पत्रिकायें ही क्यों न होती हों. हाँ , अब भी कभी किसी काम से दिल्ली - लखनऊ जाने पर जी घबराता है . इसी घबराहट की स्मृति में कविता भी बन जाती है और कस्बे कें लगातार बढ़ रहे चौपहिया वाहनों की बेतरतीब आवाजाही से लगे जाम के बीच से दायें - बायें काटते हुए पुराना स्कूटर निकाल ले जाना भला - सा लगता है. लेकिन अभी आज सुबह का एक ऐसा वाकया हुआ है जिसने कि ठहरे हुए पानी में उथल - पुथल मचा दी है. मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं जो इसका यथावत वर्णन कर सकूँ , न ही कोई पत्रकार ही हूँ जो आँखो देखी रपट छाप दूँ और न ही चौबीस घंटे चलने वाले किसी टीवी चैनल का कोई एंकर ही हूँ जो कि पूरा का पूरा दृश्य सामने परोस देता है. तब क्या किया जाय ? पुराने खेवे के कथाकार याद आने लगे हैं . वे अपनी रचनाओं में बहुत महीन कताई न करके सीधे - सादे शब्दों में वर्णनात्मक व संवाद शैली का सहारा लेते हुए कहानी कह जाया करते थे. चलिए, कोशिश करते हैं कि कुछ वैसा ही किया जाय -

एक अधबनी कालोनी का लोहे के मजबूत फाटक वाला मकान. नेमप्लेट से गृहस्वामी की हैसियत का पता चलता है. इतवार का दिन है बच्चे खेल रहे हैं . स्त्रियाँ रसोईघर में अपनी पाककला के प्रयोग में व्यस्त हैं और पुरुष चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ने के काम में लगे हुए हैं. तभी किसी फेरी वाले की आवाज आती है जो पास आती जा रही है -' कबाड़वाला .. लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..' कबाड़ी गेट के सामने आकर अपनी साइकिल रोकता है . गृहस्वामी जो अभी तक पोर्च में बैठा अखबार पढ़ रहा था ,आँखों से चश्मा उतारकर गेट की तरफ देखता है.

कबाड़ी - कबाड़ है क्या बाबूजी ? लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..
बाबूजी - नहीं .
कबाड़ी - अखबार तो होगा ही.
बाबूजी - कल ही बेच दिया भाई.अब तुम अगले महीने आना.
कबाड़ी की पारखी आँखें कबाड़ तलाश रही हैं. उसे हर जगह अपने काम लायक कुछ न कुछ दीख ही जाता है. यहाँ भी वह अपने मतलब की चीज को पहचान ही गया.
कबाड़ी - ये स्कूटर तो अब बेच ही दो साब.
बाबूजी - क्यों ?
कबाड़ी - पुराना है . कबाड़ ही तो हो गया. किलो के भाव बिकेगा.

बाबूजी सन्न. बाबूजी के हृदय को ठेस लगी. उन्होंने कुछ नहीं कहा. कबाड़ी कुछ देर खड़ा रहा. बाबूजी को चुप देखकर वह समझ गया कि माजरा क्या है और 'कबाड़वाला .. लोया - पिलाट्टिक - रद्दी अखबार ..' की आवाज लगाता हुआ आगे बढ़ गया.

पुरानी कहानियों के अंत में लेखक पाठकों से सीधे संवाद करता था. अभी तक आप जो कुछ पढ़ते- पढ़ते इस जगह तक पहुँच गए हैं वह कहानी है अथवा नहीं यह तो विद्वान लोग ही जानें लेकिन आपसे सीधे संवाद करने का मन कर रहा है. तो हे पाठकवृंद ! अपने बाबूजी कई दिनों से चुप हैं , बच्चों से , पत्नी से काम भर की बात करने से कतराने लगे हैं , अपनी नौकरी के काम में भी अक्सर गलतियाँ करने लगे हैं और कस्बे के कवियों के कई फोन आने पर एक दिन रिक्शे पर सवार होकर काव्य गोष्ठी में गए भी तो 'बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम' शीर्षक कविता को अपनी आखिरी कविता कहकर सुनाया. सुना है उस दिन से कस्बे के कवियों के बीच खुशी की लहर दौड़ रही है. दबी जुबान से कहा भी जा रहा है कि बाबूजी भी अब कबाड़ हो गए.

अरे ! आपको यह तो बताना ही भूल गया कि पुराने स्कूटर का क्या हुआ ?


3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

समय एक सा नहीं रहता

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

पुराने स्कूटर से तुलना अनेपमेय रही।

Unknown ने कहा…

आपने जिस ढंग से पुरानी स्कूटर का वर्णन किया है उससे यहीं प्रतीत होता है कि बाबू जी को (या किसी को भी)अपनी पुरानी चीजों से कितना लगाव होता है खासकर उस चीज की जो मुफलिसी में खरीदी गयी हो।
बहुत-बहुत धन्यवाद