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कवि के रूप में सबसे पहले कबीर को जाना. जब स्कूल जाना शुरू किया तो पहली पढ़ाई-लिखाई बस यही थी कि काठ की तख्ती पर खड़िया घोलकर गोल-गोल कुछ लिखो. यह एक ऐसी लिपि थी जिसे या तो हम समझते थे या फ़िर हमारे अध्यापक. इसी गोल-गोल लिपि ने आगे चलकर यह सिखाया कि यह धरती,यह चांद,यह सूरज सब गोल हैं,चूल्हे पर पकने वाली रोटी की तरह. इसी गोल-गोल लिपि ने यह भी सिखाया कि जितना बस चले गोल-मोल न करना, चलना तो सीधी राह पर; भले ही पनघट की डगर बड़ी कठिन व रपटीली क्यों न हो- गोल बनकर बे-पेंदी का लोटा न हो जाना. शुरूआती कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय की ऊंची पढ़ाई तक कबीर का साथ हरदम रहा .कोर्स की किताबें कहती रहीं कि अब तक जिसे 'दोहा' कहते रहे वह 'साखी' है, कबीर के बारे में फ़लां विद्वान ने यह कहा है -वह कहा है, वह कवि पहले हैं कि समाज सुधारक? उनकी भाषा पंचमेल खिचड़ी है कि भोजपुरी? कभी -कभार तो यह भी लगने लगा था कि कबीर ने जितनी सीधी,सच्ची,सरल भाषा-शैली में कविता कही है उतनी ही कठिन शब्दावली और क्लिष्ट संदर्भ-प्रसंगों के साथ उनकी कविताओं की व्याख्या का व्यामोह रचकर आखिरकार 'हम हिन्दी वाले' चाहते क्या है? खैर,जब-जब अपने इर्दगिर्द कुछ टूटता-दरकता रहा,लोभ,लिप्सा और लालच लुब्ध करने की कवायद करते रहे तब-तब कबीर की लुकाठी ही बरजती रही -सावधान करती रही और तमाम पोथी-पतरा,पाठ-कुपाठ से परे 'ढ़ाई आखर' को सर्वोपरि मानने की सीख देती रही.
कबीर को संगीतकारों ने खूब गाया है और आगे भी गाते रहेंगे. कवियों,कलाकारों,गायको का 'बीजक' के रास्ते से बार -बार गुजरना उस बीजमंत्र की तलाश ही तो है जो 'जल में कुंभ,कुंभ में जल' है. जैसे साफ़ पानी में अपना चेहरा साफ़ दीखता है,वैसे ही कबीर की लगभग समूची कविता मुझ पाठक और कविता प्रेमी को साफ़ दीखती है -अपनी उस अर्थछवि के साथ जो इस क्रूर,कठिन,कलुषित काल में जायज है,जरूरी है और जिन्दगी के गीत गाने के पक्ष में खड़ी है. जब कबीर के शब्दों को आबिदा परवीन का स्वर मिल जाय तो क्या कहने ! प्रस्तुत है- 'साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय...
( चित्र : www.punjabilok.com से साभार)
7 टिप्पणियां:
कबीर जी का भजन सुनवाने के लिए आभार।
khuub itminan se suna gayaa...
बहुत सही है । कबीर ने जितनी सरल भाषा में लिखा है उसकी भयंकर व्याख्याएं कहकर हम क्या दिखाना चाहते हैं । आबिदा परवीन की आवाज़ में इस गाने का रंग बहुत चढ़ता है ।
आपके लिखे हुए और आबिदा के गाए हुए का संगम अदभुत लगा ।
बहुत जबरदस्त!! आभार सुनवाने का.
कबिरा संगत साधु की ज्यों गंधी का बास।
जे कछु गंधी दे नहीं तो धी बास सुबास।।
कबीर , आबिदा परवीन और आपके लिए यही कह सकता हूँ।
वाह साहब .... क्या बात है !!! रात में साढ़े ग्यारह बज रहे हैं ... और मैं मस्त हो रहा हूँ .... फ़िट हूँ भाई ... एकदम मस्त .....
भहुत सुंदर आबीदा परवीन की खूबसूरत आवाज और कबीर की भाषा, आनंद आ गया ।
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