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किताबें कहां से कहां पहुंचा देती हैं. वे एक नया संसार रचती हैं. किताबें एक नई दुनिया के अन्वेषण का सहयात्री बनाकर हमें एक अजाने लोक में ले जाती हैं. इसी अजाने लोक से ही एक जानने - पहचानने और पसंद आने योग्य संसार के निर्माण का क्रम आरंभ होता है. कुछ लोग इसे ,छाया , माया,भुलावा,छलावा और यूटोपिया भी कहते हैं. जयशंकर प्रसाद ने कहा ही है - 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे'. स्पष्ट कर दूं कि यहां पर मैं अपने तईं उन किताबों की बात कर रहा हूं जिन्होंने मेरे जीवन में 'लिरिकल मोमेंट्स' रचे हैं. हालांकि जीवन आपाधापी में ये 'लिरिकल मोमेंट्स' असहजता और असुविधा का उद्गम -स्थल बनते हैं किन्तु तमाम खटराग बीच इन्हीं के कारण कुछ रागात्मकता बची रहती है. यह कोई तात्कालिक 'लाभ' भले ही न दे पाती हों फ़िर भी बाहर के असंख्य और अनवरत दबाओं - दुष्चक्रों के बावजूद , मैं ऐसा मानता हूं कि इनके कारण ही भीतर कुछ 'शुभ' बचा रह पाता है. अब यह अलग और वैयक्तिक प्रश्न है कि यह 'शुभ' कितना लाभकर है !
एक जमाने में धर्मवीर भारती की कविता की किताब 'कनुप्रिया' का असर मेरे ऊपर जबरदस्त रहा है. हालांकि उनकी 'अंधायुग' और 'प्रमथ्यु गाथा' ने भी खूब बनाया बिगाड़ा है. मैंने अपनी पहली कविता तब लिखी थी जब आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था और विश्वविद्यालय तक आते -आते एक कवि के रूप में जाना जाने लगा था लेकिन जब 'कनुप्रिया' से साक्षात्कार हुआ तो लगा था कि अब तक जो भी लिखा था वह तो कलम घिसाई भर थी, ऊपर से पहाड़, झील ,बादल और बर्फ़ वाला शहर. भीतर ही भीतर कहीं कुछ बनता, बिगड़ता और बदलता हुआ -सा. तब कनुप्रिया से प्रेरित होकर सात कवितायें लिखी थीं जो अब पुराने संदूक से निकली पुरानी डायरी के पन्नों पर उतराकर मुझे पुन: वहीं पहुंचाने की जुगत भिड़ाने में लग गई हैं जहां से बहुत निर्मम, निठुर, क्रूर और कुटिल होने का अभिनय करते हुए आज, वर्तमान के पटल पर अपने को पा रहा हूं. ये कवितायें अगर कवितायें है तो इनमें मैं हूं, मेरा अतीत है , मेरी आस्था -आकांक्षायें हैं और वह सब कुछ है जो 'शुभ' और 'लाभ' के बीच व्याप्त लालच पर लगाम कसे रहता है. यदि इनमें किसी की रुचि हो सकती है , कोई 'समानधर्मा' इनमें जरा -सा भी अपना अक्स देख पाता है तो मैं ऐसे 'हमनफ़स और हमनवा' को सलाम करता हूं. तो लीजिए प्रस्तुत हैं ऊपर उल्लिखित सात कविताओं में से चार कवितायें -
एक जमाने में धर्मवीर भारती की कविता की किताब 'कनुप्रिया' का असर मेरे ऊपर जबरदस्त रहा है. हालांकि उनकी 'अंधायुग' और 'प्रमथ्यु गाथा' ने भी खूब बनाया बिगाड़ा है. मैंने अपनी पहली कविता तब लिखी थी जब आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था और विश्वविद्यालय तक आते -आते एक कवि के रूप में जाना जाने लगा था लेकिन जब 'कनुप्रिया' से साक्षात्कार हुआ तो लगा था कि अब तक जो भी लिखा था वह तो कलम घिसाई भर थी, ऊपर से पहाड़, झील ,बादल और बर्फ़ वाला शहर. भीतर ही भीतर कहीं कुछ बनता, बिगड़ता और बदलता हुआ -सा. तब कनुप्रिया से प्रेरित होकर सात कवितायें लिखी थीं जो अब पुराने संदूक से निकली पुरानी डायरी के पन्नों पर उतराकर मुझे पुन: वहीं पहुंचाने की जुगत भिड़ाने में लग गई हैं जहां से बहुत निर्मम, निठुर, क्रूर और कुटिल होने का अभिनय करते हुए आज, वर्तमान के पटल पर अपने को पा रहा हूं. ये कवितायें अगर कवितायें है तो इनमें मैं हूं, मेरा अतीत है , मेरी आस्था -आकांक्षायें हैं और वह सब कुछ है जो 'शुभ' और 'लाभ' के बीच व्याप्त लालच पर लगाम कसे रहता है. यदि इनमें किसी की रुचि हो सकती है , कोई 'समानधर्मा' इनमें जरा -सा भी अपना अक्स देख पाता है तो मैं ऐसे 'हमनफ़स और हमनवा' को सलाम करता हूं. तो लीजिए प्रस्तुत हैं ऊपर उल्लिखित सात कविताओं में से चार कवितायें -
१ / प्रथम दर्शन
उस दिन ....
शाम को घर लौटते समय
मन बरबस ही
एक जंगली फ़ूल पर आ गया था
और उसे तोड़ने की धुन में
मैंने अपनी उंगलियां लहूलुहान कर डाली थीं.
तुम न जाने कहां से
एकाएक प्रकट होकर
मेरे इस पागलपन पर हंसने लगीं
निश्छल हंसी जैसे शाम के चंपई माथे पर
पुतने सी लगी
परत दर परत..
संकोचवश
मैं तुम्हारा नाम भी तो न पूछ सका था
कि तुम हो कौन?
क्या हो??
मानवी जादू???
या कि कोई मायावी छलना????
***
२ / प्रथम परिचय
बे-वजह ही
वंशी टेर दी थी मैंने
यमुना तट की नीरवता
और दोपहर के सघन एकांत में.
थोड़ी ही देर बाद
तुम दौड़ती हुई मेरे पास आई थीं
और मेरे समीप ठिठककर पूछा था-
'सुनो कहीं तुम कान्हा तो नहीं?'
मैं चुप
एकटक
तुम्हारे नैकट्य की गंध को महसूस करता रहा
संभवत: स्वयं से भी तटस्थ होकर.
फ़िर..
अनगिनत गूंगे क्षणों के उपरान्त
तुमने मेरी मुरली अपने हाथों में लेकर
अधरों से छुआ था
और सकुचाकर वापस करते हुए कहा था-
'मेरा नाम राधिका है.'
***
३ / प्रथम मोहभंग
सोचा था -
चलते समय तुम रोक लोगी
और आंचल फ़ैलाकर रुक जाने की भीख मांगोगी.
( पुरुष हूं न !
ऐसा ही सोचा था मैंने
मुझे बताया गया है
ऐसा ही सोचते हैं पुरुष )
लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ
तुम सूनी आंखों से मुझे देखती रहीं
निर्निमेष...
काश राधिके !
तुमने विदा के दो शब्द ही कह दिए होते !
खैर, चलो अच्छा ही हुआ
ऐसा करना कितना औपचारिक होता
हम किसी नाट्यमंचन के पात्र नहीं
अपनी स्वाभाविक जिंदगियों को जी रहे थे उस पल...
आज बस वही दृष्य
कचोट रहा है मन को
संतोष बस इतना भर है कि उस मन में
तुम हो , तुम हो, तुम हो !
***
४ / प्रथम पीड़ा
मैं तुम्हें रोज एक पत्र लिखता हूं
और लिखकर
जल में सिरा देता हूं...
ऐसा क्यों ?
इसका उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है.
हम खामोशी में जिये जाते संबंधों का जहर
आखिरकार कब तक पीते रहेंगे ?
तुम्हें क्या पता कि
पिछले कुछ वर्षों में
मैंने अपने जीवन का
सबसे अच्छा हिस्सा जी लिया है
इस पहाड़ी शहर से मैंने एक नया आकार लिया है
और
तुम्हारी स्मृति
मेरे अस्तित्व का एक अविभाज्य अंग बन गई है.
आह !
मैंने तुम्हें राधिका कहा है
यह छोटा -सा संबोधन
तुम तक कभी नहीं, कभी नहीं पहुंच सकेगा.
यह मेरा प्राप्य है
यह भी कुछ कम तो नहीं !!
6 टिप्पणियां:
Sunder.
wah !
bahut achcha laga in kavitaon ke madhyam se aapko jaanna.
आनन्द आ गया!!
मधुकर गाज़ीपुरी अमर रहें, अमर रहें!
भाई सिद्धेश्वर जी ! मन मोह लिया आपकी कविताओं ने !कच्ची उम्र की कविताओं में बुनावट भले न हो पर बनावट बिलकुल नहीं होती !मेरे पास भी ऐसी ही रससिक्त रचनाएँ है ,पर डूबने वाला पाठक भी तो हो !आपकी रचनाओं में रसानुभूति की तीब्रता ,लोकगीतों का लावण्य और विद्वता है जिसने कम से कम मुझे तो डुबा ही दिया है ! आज आपका पूरा ब्लॉग पढ़ा !मन को लगा चलो कोई तो है !
बाकी पढ़े से अलग - [ पक्का केवल कनुप्रिया से प्रेरित.. ?/ [:-)]]
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