अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के इस मंच पर नए बरस की पहली पोस्ट के रूप में विश्व कविता के सुधी पाठकों - प्रेमियों -कद्रदानों के लिए आज प्रस्तुत है अमेरिकी कवि बिली कालिंस की यह एक कविता जो मेरी समझ से हर देश - काल में रचनाप्रक्रिया और रचनात्मक ईमानदारी की राह - रेशे खोलती - सुलझाती - सिखाती हमे साथ - साथ लिए जाती है...
बिली कालिंस की कविता
लेखकों को सुझाव
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
भले ही खप जाए इसमें सारी रात
मगर एक हर्फ़ लिखने से पूर्व
धो डालो दीवारें और रगड़ डालो अपने अध्ययन कक्ष का फर्श।
साफ कर दो सब जगहें
गोया इसी राह से गुजरने वाले हैं पोप आदि
प्रेरणाओं की सुहृद हैं दाग -धब्बाहीन जगहें।
तुम जितनी सफाई करोगे

इसलिए संकोच मत करो
छान डालो खुली जगहें
माँज डालो शिलाओं के कोने आँतरे
घने जंगलों की ऊँची शाखाओं पर फेर आओ फाहे
जिन पर लटके हैं अंडों से भरे हुए तमाम घोंसले।
जब तुम राह पाओगे अपने घर की
और झाड़न व झाड़ुओं को सहेजोगे सिंक के नीचे
तब तुम निहार सकोगे भोर के उजास में
अपने डेस्क की बेदाग वेदिका
एक साफ दुनिया के मध्य एक निर्मल सतह।
नीली आभा से चमक रहे
एक छोटे से गुलदान से
जिसकी हो सबसे धारदार नोक
उठाओ एक पीली पेंसिल
और भर दो कागज को छोटे- छोटे वाक्यों से
कुछ इस तरह
जैसे कि समर्पित चींटियों की लम्बी कतार
जंगलों से चली आ रही हो तुम्हारे पीछे - पीछे - पीछे।
2 टिप्पणियां:
वाह !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (10-01-2014) को "चली लांघने सप्त सिन्धु मैं" (चर्चा मंच:अंक 1488) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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