त्रैमासिक पत्रिका 'बया' ( संपादक : गौरीनाथ) के जुलाई - सितम्बर २००९ के अंक में अपनी चार कवितायें प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बहुत से पाठकों तक हो सकता है कि 'बया' की पहुँच न हो किन्तु यह एक अच्छी और पठनीय पत्रिका है जो अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होती है। कविता अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचे यही सोच ये कवितायें (एक बार फिर) प्रस्तुत हैं: चार कवितायें : सिद्धेश्वर सिंह०१- पुस्तक समीक्षाकागज -
उजला चमकीला
मुलायम सुचिक्कण
छपाई -
अच्छी पठनीय
फांट-सुंदर
आवरण -
बढ़िया शानदार
कलात्मक आकर्षक
आकार -
डिमाई क्राउन रायल जेबी
(चाहे जो समझ लें)
कीमत -
थोड़ी अधिक
( क्या करें इस महँगाई का
वैसे भी,
बिकती कहाँ हैं हि्न्दी की किताबें )
पुरस्कार -
लगभग तय
( जय जय जय )
अखबारों में बची नहीं जगह
पत्रिकाओं में शेष हैं इक्का - दुक्का पृष्ठ
सुना है ब्लाग भी कोई जगह है
( विस्तार के भय से
वहाँ का हाल -चाल फिर कभी।)
साहित्य के मर्मज्ञ पाठकवॄंद
अब आप ही बतायें
एक अदद कितबिया पर
आखिरकार कितना लिखा जाय !
अत:
अस्तु
अतएव -
इति समीक्षा।
२. इंटरनेट पर कविकवि अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य
दिक्काल की सीमाओं से परे
नाच रहे हैं उसके शब्द
विश्वग्राम के निविड़ नुक्कड़ पर।
कवि अभिभूत है
अब नहीं रहा तनिक भी संशय
कि एक न एक दिन
भूतपूर्व हो जायेंगे छपे हुए शब्द
और पुरातात्विक उत्खनन के बाद ही
सतह पर उतरायेगी किताबों की दुनिया
जिन पर साफ पढ़े जा सकेंगे
दीमकों - तिलचट्टों - गुबरैलों के खुरदरे हस्ताक्षर।
कवि अब भी लौटता है बारम्बार
कुदाल खुरपी खटिया बँहगी सिल लोढ़ा
और..और उन तमाम उपादानों की ओर
जिनका तिरोहित होना लाजमी है
तभी तो दीखती हैं जड़ें
जिन्हें देख -देख होता है वह मुग्ध मुदित ।
सारे सतगुरु सारे संत कह गए हैं
कागज की पुड़िया है यह निस्सार संसार
इसे गलना है गल जाना है
सब कुछ हो जाना है कागज से विलग विरक्त
जैसे कि यह इंटरनेट
जिस पर अब कवि है अपनी कविता के साथ।
रात के एकान्त अँधेरे में
जब जुगनू भी बुझा देते हैं अपनी लालटेन
तब कोई शख्स
चोर की तरह खोलता है एक जंग लगा बक्सा
और निकालता है पीले पड़ चुके पत्र
जिनके लिखने का फार्मूला कहीं गुम हो गया है।
आओ एक काम करें
इंटरनेट खँगालें और किसी पाठक को करें ईमेल
देखें कि वह कहाँ है
इस विपुला पॄथ्वी
और अनंत आकाश के बीच
कवि तो अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य.
३.वेलेन्टाइन डेशोध के लायक है
एक अकेले दिन का इतिहास
और प्रतिशोध की संभावना से परिपूर्ण भूगोल
कैसा - किस तरह का हो
इस दिवस का नागरिकशास्त्र..
सब चुप्प
सब चौकन्ने
सब चकित
इस शामिलबाजे में
भीतर ही भीतर बज रहा है कोई राग.
आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर स्मॄतियों में सहेज रहा हूँ
अपना चौका
अपने बासन
रोटी की गमक
तरकारी की तरावट
चूल्हे पर दिपदिप करती आग.
और उसे.. उसे
जिसने आटे की तरह
गूंथ दिया है खुद को चुपचाप।
सुना है इसी दिन
पता चलता है संस्कॄति के पैमाने का ताप।
मैं मूढ़ - मैं मूरख क्या जानूँ
प्यार है किस चिड़िया का नाम
आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर
तुम्हें याद करते हुए
क्या कर रहा हूँ - क्या पुण्य - क्या पाप !
०४- लैपटापजोगियों की तुंबी में
समा जाया करता था पूरा त्रिलोक
जल की एक बूँद में
बिला जाया करते थे वॄहदाकार भूधर
भँवरे की एक गूँज
हिलाकर रख देती थी समूचा भुवन
ये सब बहुत दूर की कौड़ियाँ नहीं हैं
समय के पाँसे पर अभी भी अमिट है उनकी छाप.
अब इस यंत्र इस जुगत का
किस तरह बखान किया जाय
किन शब्दों में गाई जाय इसकी विरुदावली -
दिनोंदिन सिकुड़ रही है इसकी देह
और फैलता जा रहा है मस्तिष्क
लोहा -लक्कड़ प्लास्टिक- कचकड़ तार - बेतार
इन्हीं उपादानों ने रचा है यह संसार
इसका बोझ नही लगता है बोझ
इसी की काया में है हमारे समय की मुक्ति
हमारे काल का मोक्ष.
नाना रूप धर रिझाती हुई
यह नये युग की माया है
जैसे अपनी ही काया का विस्तार
जैसे अपनी देह को देखती हुई देह
हम सब यंत्र जुगत मशीन
हम सब विदेह.