शनिवार, 18 जनवरी 2014

उसे देखता हूँ जो आँख भर

आप  चाहें तो इसे ग़ज़ल भी कह सकते हैं। चाहें तो , मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हर विधा का अपना शास्त्र है। अपने नियम हैं और अपनी एक परिपाटी है। फिर भी बहुत दिनो बाद इस ठिकाने पर कुछ तुकबन्दी - सा साझा करना अच्छा लग रहा है।  ऐसा नहीं है कि जो तुक में नहीं है वह बेतुका है ; फिर भी। बहुत दिनों से यह भी सोच रहा हूँ कि मनभाये संगीत की साझेदारी भी नहीं हुई यहाँ बहुत दिनों से। लग रहा है कि बहुत दिनों से बहुत कुछ नहीं किया। तो क्या किया बहुत दिनों से  ? यह सवाल स्वयं से , आप यह ग़ज़ल देखें...

* * *

उसे देखता हूँ जो आँख भर।
तो आसान लगता है सफर।

वो क्या है मुझको क्या खबर,
क्यों सिर धुनूं इस बात पर।

एक कशिश -सी है घिरी हुई
उसे मान लूँ इक जादूगर ?

मैं पूछता हूँ कभी खुद से ही
क्या मिल गया उसे चाहकर।

अब हिज्र क्या विसाल क्या
मुझे उज्र क्या इस हाल पर !

ये नज़्म कविता ये शायरी
सभी उसके ही हैं हमसफर।
----


( चित्र : सत्यसेवक मुखर्जी की कृति, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' से साभार)

5 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह बहुत सुंदर !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
पोस्ट को साझा करने के लिए आभार।
--
ग़ज़ल तो है ही...।
अगर मक्ता भी होता तो बहुत बढ़िया होता।

Pratibha Katiyar ने कहा…

Gajab!

Arvind Mishra ने कहा…

क्या बात अर्ज की है, वह है तभी सब कुछ है यह साहित्य भी ! :-)

Unknown ने कहा…

bahut hi sundar