आज वसंत पंचमी के दिन अपना लगभग पूरा ही दिन उत्सवमय रहा। आज छुट्टी थी सो सुबह देर से बिस्तर छोड़ने का आनंद लिया गया। नाश्ते में मनपसंद पूरबिया चूड़ा - मटर और दोपहर के खाने में दिव्य लोक की सैर कराने वाली तहरी। आज दोपहर बाद का दिन कविता गोष्ठियों के लिए तय था। दोपहर बाद दो बजे से अपने ही कस्बे में और शाम चार बजे से ग्यारह किलोमीटर दूर के एक दूसरे कस्बे में। इसी बीच एक मित्र से वादा था कि दूर उनके धुर पहाड़ी कस्बे में चल रही निराला जयंती पर आयोजित कवि गोष्ठी में मैं फोन पर अपनी कविता सुनाउँगा। घर से निकलने से पहले बिटिया हिमानी ने कहा कि आज वसंतपंचमी पर कोई कविता नहीं लिखोगे? मैंने कहा कि मैं तो फरमाईश पर कविता लिखता नहीं हूँ । फिर मन हुआ कि क्यों न बिटिया के कहने पर कुछ लिख ही दिया जाय। जल्दबाजी में सीधे कंप्यूटर पर कुछ यूँ ही - सा लिखा और दूर - बहुत बैठे एक आत्मीय कवि मित्र को चैट के मार्फत तुरन्त पढ़वा भी दिया। कुल मिलाकर आज तीन गोष्ठियों में शामिल हुआ ; दो में सदेह और एक में मोबाइल की माया से। अभी बस अभी शादी की एक दावत से लौटा हूँ और मन है सोने से पहले आज लिखी कविता को सबके साथ साझा कर लिया जाय। तो लीजिए प्रस्तुत है आज की यह कविता और आइए मिल कर खोजें कि अपने आसपास कैसा और कितना वसंत विद्यमान है :
वसंतपंचमी पर
यदि कहीं मिल जाए आपको रितुराज।
फोन मुझको कर देना मिल लूँगा आज।
बचपन में दिखते थे टेसू और पलाश।
आम्रबौर भरता था जग में उल्लास।
किन्तु आज घट रहा वन का घनत्व,
रामजी कहाँ जायेंगे भोगने वनवास।
बदल रही दुनिया बदल रहा सौंदर्यबोध,
कविता में चल रहा पुरातन रिवाज।
प्रचुरतम साधन हैं समय सबसे कम।
दिपदिपाते मुखड़े हैं आँख लेकिन नम।
लालसा की लालिमा से रक्ताभ नभ है,
पृथ्वी पर पसरा है वैभव का भ्रम।
कागज के खेतों में कविता की खेती है,
मन का खलिहान खोजे सुख का अनाज।
अपने ही भीतर है इच्छित आनन्द।
जैसे कि पुष्प में रहती गन्ध बन्द।
वसन्त तो बहाना है आत्मान्वेषण का,
स्वयं हमें रचना है जीवन का छन्द।
आज वसंतपंचमी पर अपने से बात करें,
बदले हम ताकि बदल जाए यह समाज।
यदि कहीं मिल जाए आपको रितुराज।
फोन मुझको कर देना मिल लूँगा आज।