शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मानो पृथ्वी का एक वैकल्पिक पर्याय

अपनी यह कविता पिछले महीने ८ जनवरी को 'अमर उजाला' के रविवासरीय 'जिन्दगी लाइव' में 'इस ठंड के आगे' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। अब जबकि जबकि जाड़ा जाने की तैयारी  में है और वसंत जहाँ भी , जैसा भी है अपनी धमक के संकेत दे रहा है तब एक बार ( और) इसे सबके साथ साझा करने का मन है। आइए देखते हैं...



पर्यायवाची

यह जाड़ा
यह ठंडक
यह सर्दी
यह टिपटिप करती बरसात
यही है जो पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर
गेहूँ की फसल के हृदयस्थल में
जरूर ले आएगी सुडौल पुष्ट दाने।
नहरों - ट्यूबवेलों - कुओं का मीठा पानी
उनकी नसों में  तेज कर देगा रक्तसंचार।
कुदाल थामे हाथों की तपिश
दिलासा देगी कि अब दूर नहीं है वसन्त।

अगर सबकुछ  ठीकठाक रहा तो
एक दिन
खलिहानों - घरों  तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार
प्रसन्न होंगे चक्की के पथरीले सपाट पाट
जब उनकी कोख से जन्म लेगा  उजला चमकीला आटा।

एक दिन
हाथ और जल की जुगलबन्दी से बनेगी लोई
चूल्हे की कालिख पुती काया में
दीमक लगी लकड़ियाँ भी भरपूर आँच देंगीं
और आश्चर्य की तरह
उदित होगी फूलती हई एक गोल - गोल रोटी
मानो पृथ्वी का एक वैकल्पिक पर्याय

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

रोटी का पर्यायच गोल-गोल धरती!
बहुत अच्छा लगा यह पर्याय!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पृथ्वी का पर्याय, गोल गोल रोटी, वाह।