बुधवार, 16 दिसंबर 2009

बाज़ार , जाम , कविता.. और ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ?


अपने गाँव से कस्बे तक पहुँच कर बाज़ार को पार करना और कार्यस्थल तक पहुँचना व वहाँ से वापसी ट्रैफिक जाम की वजह से दिनोंदिन एक दुखदायी काम होता जा रहा है। आज से कुछ साल पहले तक इस जगह ऐसा नहीं होता था। लोगबाग कहते हैं अपना कस्बा अब शहर होता जा रहा है , देखो तो बाज़ार में रौनक बढ़ती जा रही है। क्या करूँ इसी बाज़ार से रोजाना गुजरना होता है। पहले तो 'हमारा बजाज' बाज़ार के बीच से बड़ी आसानी से गुजर जाया करता था किन्तु अब जाम की वजह से रुकना ही पड़ता है , एक तरह से रेंगना पड़ता है और इसी जाम की कृपा से 'रौनक' के दर्शन हो जाया करते हैं। जाम में फँसे - फँसे ही अक्सर अगल - बगल के लोगों से जब दुआ - सलाम हो जाती है तो याद अता है कि बहुत दिनों से कहीं की सोशल विजिट नहीं हुई । परसों इसी तह की 'जाममय' स्थिति में नई मोटर साईकिल पर सवार एक पुराने परिचित सज्जन से 'नमस्ते - नमस्ते' हो गई , कुशल क्षेम का समानुपातिक वितरण - सा हो गया और उलाहना भी कि 'कभी घर आओ ना..' और तत्क्षण एक कवितानुमा अभिव्यक्ति नमूदार हो गई -

दिसम्बर की
एक ढलती हुई शाम
लगा हुआ है
बाज़ार में जाम
इसी में , इसी बहाने
हो गई उनसे दुआ सलाम।

ऊपर लिखी पंक्तियों को यदि कविता मान लिया जाय तो जाम में झींकने और बाज़ार की 'रौनक' के बीच रीझने - खीझने के जादू से खुद को बचाते हुए अपने कार्यस्थल और वापसी में अपने घोंसले तक पहुँच जाने के अंतराल के बीच कविता / कवितानुमा चीज ही तो मरहम का काम करती जान पड़ती है नहीं तो तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के समानान्तर आत्मीय अनुकूलन कहाँ से मिले ! समझदार लोग कहते हैं कविता एक शरण्य है; जगत और जीवन की तपती रेत में मुग्धता का मायाजाल रचने वाली मरीचिका जैसी छलना ..छलावा। जयशंकर प्रसाद के शब्दों कहें तो - 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे' जैसा कुछ..। वे सही ही होंगे , समझदार जो हैं लेकिन अपन को अगर मूर्खता के मजे लेने की आदत - सी हो गई है तो क्या करें ! कहा भी गया है - 'सबसे भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति'।

शाम को घर आया
ऊपर - ऊपर सुरक्षित - साबूत
अंदर से जगह- जगह छिलन - खँरोंचे - खराश।
इसके लिए कोई मलहम नहीं ड्राअर में शायद
कविता की एक छोटी - सी किताब उठाई
चिनचिनाहट कुछ कम हुई
लगा कि यह फर्स्ट एड है कुछ खास।

कविता की किताबों और साहित्य शास्त्र / काव्यशास्त्र की पोथियों में कविता के बनने , बदलने , बिगड़ने और मनुष्यता की अविराम नदी में यूँ ही मंथर गति से बहने के बाबत बहुत कुछ कहा गया है / कहा जाता रहेगा। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में कविताओं की खूब आमद - आमद है और कहीं से यह भी सुनने को मिलने लग पड़ा है कि ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ? इसका उत्तर तो उन लोगों के पास होगा जो इस बनती हुई विधा में सक्रियता और सार्थकता के साथ सतत हस्तक्षेप कर रहे हैं और इस बात पर उनकी निगाह भी होगी जो इस माध्यम का शास्त्र लिख रहे होंगे। अपन को इससे क्या काम? अपन तो अपने में ही गुम। चुपचाप किए जा रहे हैं अपना काम।

कविता क्या है?
क्या पता !
शब्द क्या हैं पता है
शिल्प कैसा?
नो प्राब्लम चलेगा कैसा भी
आओ संवेदना को छुयें
जो होती जा रही है निरन्तर लापता।

फिलहाल तो बाज़ार से रोजाना गुजरते हुए कभी - कभार खरीददार की तरह तथा अक्सर 'बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ' का भाव लिए कस्बे के शहर बनने की प्रक्रिया का साक्षात्कार करते हुए ट्रैफिक जाम को डेवलपमेन्ट के एक 'इंडीकेटर' की तरह ( ! ) देखते - देखते बुधवार की साप्ताहिक बन्दी के कारण बीच बाज़ार से आज अपना चौदह साल पुराना स्कूटर अपेक्षाकृत आसानी से पार कर ले जाना सुखद रहा - अगले छ: दिनों तक याद रहने लायक... और इसी में कुछ कविता या कवितानुमा या ब्लाग कविता जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रकट हो गई हैं जिन्हें सबके साथ साझा करने का मन कर रहा है। तो लीजिए :



बाज़ार : कुछ यूँ ही

०१-

बाज़ार तो खुद बाज़ार का भी नहीं !
किसका?
पता नहीं !
फिर भी गर्म है बाज़ार का बाज़ार
ख़ुद का मोल लगाए घूम रहे हैं खरीददार !
और कहते हैं-
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदर नहीं हूँ
अब आप ही बतायें
क्या मैं सही हूँ?

०२-

इमर्तियाँ छानते
कारीगर को देखकर
रुक गया
चौदह साल पुराना स्कूटर।
अंतस में भर गई मिठास
फिर भी
हाथ न गया
अपने ही पाकेट के पास।
याद आई
इ से इमली
बड़ी ई से ईख
भाव पूछा
तो संख्या की जगह
कानों तक पहुँची कोई चीख।

10 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

क्या बात है!!....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

खटीमा के बाजार और उसमें लगने वाले जाम का
बढ़िया चित्रण!

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

जीवन और उस की दुश्वारियाँ झाँकती हैं इन शब्द संयोजनो से।

पारुल "पुखराज" ने कहा…

"कविता क्या है?
क्या पता !
शब्द क्या हैं पता है
शिल्प कैसा?
नो प्राब्लम चलेगा कैसा भी
आओ संवेदना को छुयें
जो होती जा रही है निरन्तर लापता।"
......
जो निरंतर गुम होती जा रहीं हैं
उन्हें ही पकड़ना ..सहेजना है
बाकी कविता और शिल्प समझने के लिए
कम से कम" मुझे " तो कई और जनम लगने वाले हैं .
ऎसी सुलझी पोस्ट्स काफ़ी हिम्मत बढाती हैं

Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…

शानदार अभिव्यक्ति...मजा आ गया..!

डॉ .अनुराग ने कहा…

राजेंदर यादव जी कहते है इस देश के हर मोहल्ले गली में कवि है ....ब्लॉग की वजह से एपिडेमिक का दौर है ....पर कभी कभी छपास कवि भी बोझिल कविता देते है ..

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत बढ़िया ...

sandhyagupta ने कहा…

Sab bajar ki maya hai.

kshama ने कहा…

दिसम्बर की
एक ढलती हुई शाम
लगा हुआ है
बाज़ार में जाम
इसी में , इसी बहाने
हो गई उनसे दुआ सलाम।

Uprokt panktiyan behad achhee lageen!

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

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