मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

बिछोह से खुलते हैं मोह के नए मानी






पतझर

पील़ा पड़ गया पत्ता
झरने को है वृक्ष से
समय - समुद्र में
विलीन होने को विकल है एक बूँद।

बीते वक्त पर खीझना भी है रीझना भी
ऐसे ही चलना है जीवन को
सोचें क्या किया ? करना है क्या ?

पढ़ना है पुराने हर्फ
निकालना है नये अर्थ
नई इबारतों से भरना है
नए साल के कोरे कागज का हाशिया।

बिछोह से खुलते हैं मोह के नए मानी
जाओ पुराने साल
हमें नए वर्ष की करने दो अगवानी।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है


आज बड़ा दिन है। अब तो कुछ ही देर में 'है' के स्थान पर 'था' कहना पड़ेगा। आज क्या किया? सुबह थोड़ी देर से सुबह हुई। हर काम में थोड़ी - थोड़ी देरी हुई जैसे कि आज शाम भी थोड़ी देर से हुई लेकिन इस अलसाई सुबह में नाश्ते के बाद हुआ यह कि छत पर लेटे - लेटे याद किया कि आज पोलैंड की मशहूर कवयित्री हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) के जीवन प्रंसंगों पर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिल गई थी और उसे अनुवाद करने के लिए रख लिया गया है। इसी क्रम में हालीना की बहुत सी कवितायें याद आ गईं और आलस्य को बाहर और परे करते हुए कागज की सतह पर कुछ घसीट लिया गया यूँ ही। आप चाहें तो इसे कविता की तरह पढ़ सकते हैं । और क्या कहूँ....



अंकुरण
( हालीना पोस्वियातोव्सका की कविताओं से गुजरते हुए )

यहाँ जमी हुई ओस है
और यहीं है पिघलती हुई बर्फ़
यहीं पर धूप के कैनवस पर उभरते हैं चित्र
और पानी पर लिखी जाती है प्रेम की इबारत।

सात समुद्रों और सात आसमानों को लाँघकर
बार - बार इसी पृथ्वी पर लौटती है देह
जिसमें वास करने को व्याकुल है एक आत्मा अतृप्त
मधुमक्खियाँ बताती हैं इसी ठिकाने की राह
और अपनत्व के छत्ते से टपकने लगता है शहद।

कविता क्या है
शायद शब्दों का खेल कोई एक
शायद स्वर और व्यंजनों की क्रीड़ा अबूझ
धीरे - धीरे हम प्रविष्ट होते हैं एक दु:ख भरे संसार में
जहाँ से झाँकता है प्रेम का उद्दीप्त सूर्य
और आवाजों की अनंत आँखों से देखते हैं
उदासी की उपत्यका में लहलहाते सूरजमुखी के खेत।

एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।
हम पाते हैं कि भीतर ही भीतर
अस्तित्व होता जा रहा है लगभग आर्द्र
और जीवन की सूखी चट्टानों पर अंकुरण को विकल है
एक छोटे - से बीज में छिपा जंगल का समूचा ऐश्वर्य।
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हालीना पोस्वियातोव्सका की कुछ कविताओं के अनुवाद यहाँ और यहाँ भी....

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

वान गॉग इसे उठाकर रोप देता है अपने कैनवस पर

हालीना पोस्वियातोव्सका की बहुत सी कविताओं के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं। आज एक खास कविता, इसमें पोलैंड की इस महान कवयित्री का जीवन और निजी अनुभव संसार तो है ही महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग का एक चित्र * भी अपनी पूरी भव्यता व दिव्यता के साथ चमक रहा है।कविता का तो जैसा - तैसा अनुवाद कर दिया लेकिन चित्र का ! तो आइए ,पढ़ते - देखते हैं यह कविता और कलाकृति - सूरजमुखी ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):






सूरजमुखी

( हालीना पोस्वियातोव्सका की कविता और वान गॉग का एक चित्र )

प्रेम में डूबा हुआ
एक ऊँचा लंबा सूरजमुखी
हाँ यही तो है
उसके नाम का समानार्थी शब्द।

चौड़ी पत्तियों से झाँकती
अपनी हजारों खुली पुतलियों के साथ
वह उठाती है अपना आकाशोन्मुख शीश
और सूरज रूपान्तरित हो जाता है
मधुमक्खियों के एक छत्ते में।

नीली भिनभिनाहटों में
बदलने लगता है सूरजमुखी
और चहुँदिशि फैल जाती है सुनहली दीप्ति।

और फरिश्तों के
मस्तिष्क मात्र में विद्यमान वान गॉग
इसे उठाकर रोप देता है अपने कैनवस पर
और चमक बिखेरने का देता है आदेश।
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* चित्र : गूगल सर्च से साभार


शनिवार, 19 दिसंबर 2009

भँवरे की एक गूँज हिलाकर रख देती थी समूचा भुवन

त्रैमासिक पत्रिका 'बया' ( संपादक : गौरीनाथ) के जुलाई - सितम्बर २००९ के अंक में अपनी चार कवितायें प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बहुत से पाठकों तक हो सकता है कि 'बया' की पहुँच न हो किन्तु यह एक अच्छी और पठनीय पत्रिका है जो अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होती है। कविता अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचे यही सोच ये कवितायें (एक बार फिर) प्रस्तुत हैं:


चार कवितायें : सिद्धेश्वर सिंह

०१- पुस्तक समीक्षा

कागज -
उजला चमकीला
मुलायम सुचिक्कण

छपाई -
अच्छी पठनीय
फांट-सुंदर

आवरण -
बढ़िया शानदार
कलात्मक आकर्षक

आकार -
डिमाई क्राउन रायल जेबी
(चाहे जो समझ लें)

कीमत -
थोड़ी अधिक
( क्या करें इस महँगाई का
वैसे भी,
बिकती कहाँ हैं हि्न्दी की किताबें )

पुरस्कार -
लगभग तय
( जय जय जय )

अखबारों में बची नहीं जगह
पत्रिकाओं में शेष हैं इक्का - दुक्का पृष्ठ
सुना है ब्लाग भी कोई जगह है
( विस्तार के भय से
वहाँ का हाल -चाल फिर कभी।)

साहित्य के मर्मज्ञ पाठकवॄंद
अब आप ही बतायें
एक अदद कितबिया पर
आखिरकार कितना लिखा जाय !

अत:
अस्तु
अतएव -
इति समीक्षा।

२. इंटरनेट पर कवि

कवि अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य
दिक्काल की सीमाओं से परे
नाच रहे हैं उसके शब्द
विश्वग्राम के निविड़ नुक्कड़ पर।

कवि अभिभूत है
अब नहीं रहा तनिक भी संशय
कि एक न एक दिन
भूतपूर्व हो जायेंगे छपे हुए शब्द
और पुरातात्विक उत्खनन के बाद ही
सतह पर उतरायेगी किताबों की दुनिया
जिन पर साफ पढ़े जा सकेंगे
दीमकों - तिलचट्टों - गुबरैलों के खुरदरे हस्ताक्षर।

कवि अब भी लौटता है बारम्बार
कुदाल खुरपी खटिया बँहगी सिल लोढ़ा
और..और उन तमाम उपादानों की ओर
जिनका तिरोहित होना लाजमी है
तभी तो दीखती हैं जड़ें
जिन्हें देख -देख होता है वह मुग्ध मुदित ।

सारे सतगुरु सारे संत कह गए हैं
कागज की पुड़िया है यह निस्सार संसार
इसे गलना है गल जाना है
सब कुछ हो जाना है कागज से विलग विरक्त
जैसे कि यह इंटरनेट
जिस पर अब कवि है अपनी कविता के साथ।

रात के एकान्त अँधेरे में
जब जुगनू भी बुझा देते हैं अपनी लालटेन
तब कोई शख्स
चोर की तरह खोलता है एक जंग लगा बक्सा
और निकालता है पीले पड़ चुके पत्र
जिनके लिखने का फार्मूला कहीं गुम हो गया है।

आओ एक काम करें
इंटरनेट खँगालें और किसी पाठक को करें ईमेल
देखें कि वह कहाँ है
इस विपुला पॄथ्वी
और अनंत आकाश के बीच
कवि तो अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य.

३.वेलेन्टाइन डे

शोध के लायक है
एक अकेले दिन का इतिहास
और प्रतिशोध की संभावना से परिपूर्ण भूगोल
कैसा - किस तरह का हो
इस दिवस का नागरिकशास्त्र..
सब चुप्प
सब चौकन्ने
सब चकित
इस शामिलबाजे में
भीतर ही भीतर बज रहा है कोई राग.

आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर स्मॄतियों में सहेज रहा हूँ
अपना चौका
अपने बासन
रोटी की गमक
तरकारी की तरावट
चूल्हे पर दिपदिप करती आग.

और उसे.. उसे
जिसने आटे की तरह
गूंथ दिया है खुद को चुपचाप।
सुना है इसी दिन
पता चलता है संस्कॄति के पैमाने का ताप।

मैं मूढ़ - मैं मूरख क्या जानूँ
प्यार है किस चिड़िया का नाम
आज वेलेन्टाईन डे पर
अपने घोंसले से दूर
तुम्हें याद करते हुए
क्या कर रहा हूँ - क्या पुण्य - क्या पाप !

०४- लैपटाप

जोगियों की तुंबी में
समा जाया करता था पूरा त्रिलोक
जल की एक बूँद में
बिला जाया करते थे वॄहदाकार भूधर
भँवरे की एक गूँज
हिलाकर रख देती थी समूचा भुवन
ये सब बहुत दूर की कौड़ियाँ नहीं हैं
समय के पाँसे पर अभी भी अमिट है उनकी छाप.

अब इस यंत्र इस जुगत का
किस तरह बखान किया जाय
किन शब्दों में गाई जाय इसकी विरुदावली -
दिनोंदिन सिकुड़ रही है इसकी देह
और फैलता जा रहा है मस्तिष्क
लोहा -लक्कड़ प्लास्टिक- कचकड़ तार - बेतार
इन्हीं उपादानों ने रचा है यह संसार
इसका बोझ नही लगता है बोझ
इसी की काया में है हमारे समय की मुक्ति
हमारे काल का मोक्ष.

नाना रूप धर रिझाती हुई
यह नये युग की माया है
जैसे अपनी ही काया का विस्तार
जैसे अपनी देह को देखती हुई देह
हम सब यंत्र जुगत मशीन
हम सब विदेह.

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

बाज़ार , जाम , कविता.. और ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ?


अपने गाँव से कस्बे तक पहुँच कर बाज़ार को पार करना और कार्यस्थल तक पहुँचना व वहाँ से वापसी ट्रैफिक जाम की वजह से दिनोंदिन एक दुखदायी काम होता जा रहा है। आज से कुछ साल पहले तक इस जगह ऐसा नहीं होता था। लोगबाग कहते हैं अपना कस्बा अब शहर होता जा रहा है , देखो तो बाज़ार में रौनक बढ़ती जा रही है। क्या करूँ इसी बाज़ार से रोजाना गुजरना होता है। पहले तो 'हमारा बजाज' बाज़ार के बीच से बड़ी आसानी से गुजर जाया करता था किन्तु अब जाम की वजह से रुकना ही पड़ता है , एक तरह से रेंगना पड़ता है और इसी जाम की कृपा से 'रौनक' के दर्शन हो जाया करते हैं। जाम में फँसे - फँसे ही अक्सर अगल - बगल के लोगों से जब दुआ - सलाम हो जाती है तो याद अता है कि बहुत दिनों से कहीं की सोशल विजिट नहीं हुई । परसों इसी तह की 'जाममय' स्थिति में नई मोटर साईकिल पर सवार एक पुराने परिचित सज्जन से 'नमस्ते - नमस्ते' हो गई , कुशल क्षेम का समानुपातिक वितरण - सा हो गया और उलाहना भी कि 'कभी घर आओ ना..' और तत्क्षण एक कवितानुमा अभिव्यक्ति नमूदार हो गई -

दिसम्बर की
एक ढलती हुई शाम
लगा हुआ है
बाज़ार में जाम
इसी में , इसी बहाने
हो गई उनसे दुआ सलाम।

ऊपर लिखी पंक्तियों को यदि कविता मान लिया जाय तो जाम में झींकने और बाज़ार की 'रौनक' के बीच रीझने - खीझने के जादू से खुद को बचाते हुए अपने कार्यस्थल और वापसी में अपने घोंसले तक पहुँच जाने के अंतराल के बीच कविता / कवितानुमा चीज ही तो मरहम का काम करती जान पड़ती है नहीं तो तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के समानान्तर आत्मीय अनुकूलन कहाँ से मिले ! समझदार लोग कहते हैं कविता एक शरण्य है; जगत और जीवन की तपती रेत में मुग्धता का मायाजाल रचने वाली मरीचिका जैसी छलना ..छलावा। जयशंकर प्रसाद के शब्दों कहें तो - 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे' जैसा कुछ..। वे सही ही होंगे , समझदार जो हैं लेकिन अपन को अगर मूर्खता के मजे लेने की आदत - सी हो गई है तो क्या करें ! कहा भी गया है - 'सबसे भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति'।

शाम को घर आया
ऊपर - ऊपर सुरक्षित - साबूत
अंदर से जगह- जगह छिलन - खँरोंचे - खराश।
इसके लिए कोई मलहम नहीं ड्राअर में शायद
कविता की एक छोटी - सी किताब उठाई
चिनचिनाहट कुछ कम हुई
लगा कि यह फर्स्ट एड है कुछ खास।

कविता की किताबों और साहित्य शास्त्र / काव्यशास्त्र की पोथियों में कविता के बनने , बदलने , बिगड़ने और मनुष्यता की अविराम नदी में यूँ ही मंथर गति से बहने के बाबत बहुत कुछ कहा गया है / कहा जाता रहेगा। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में कविताओं की खूब आमद - आमद है और कहीं से यह भी सुनने को मिलने लग पड़ा है कि ब्लाग कविता जैसी कोई चीज है क्या ? इसका उत्तर तो उन लोगों के पास होगा जो इस बनती हुई विधा में सक्रियता और सार्थकता के साथ सतत हस्तक्षेप कर रहे हैं और इस बात पर उनकी निगाह भी होगी जो इस माध्यम का शास्त्र लिख रहे होंगे। अपन को इससे क्या काम? अपन तो अपने में ही गुम। चुपचाप किए जा रहे हैं अपना काम।

कविता क्या है?
क्या पता !
शब्द क्या हैं पता है
शिल्प कैसा?
नो प्राब्लम चलेगा कैसा भी
आओ संवेदना को छुयें
जो होती जा रही है निरन्तर लापता।

फिलहाल तो बाज़ार से रोजाना गुजरते हुए कभी - कभार खरीददार की तरह तथा अक्सर 'बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ' का भाव लिए कस्बे के शहर बनने की प्रक्रिया का साक्षात्कार करते हुए ट्रैफिक जाम को डेवलपमेन्ट के एक 'इंडीकेटर' की तरह ( ! ) देखते - देखते बुधवार की साप्ताहिक बन्दी के कारण बीच बाज़ार से आज अपना चौदह साल पुराना स्कूटर अपेक्षाकृत आसानी से पार कर ले जाना सुखद रहा - अगले छ: दिनों तक याद रहने लायक... और इसी में कुछ कविता या कवितानुमा या ब्लाग कविता जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रकट हो गई हैं जिन्हें सबके साथ साझा करने का मन कर रहा है। तो लीजिए :



बाज़ार : कुछ यूँ ही

०१-

बाज़ार तो खुद बाज़ार का भी नहीं !
किसका?
पता नहीं !
फिर भी गर्म है बाज़ार का बाज़ार
ख़ुद का मोल लगाए घूम रहे हैं खरीददार !
और कहते हैं-
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदर नहीं हूँ
अब आप ही बतायें
क्या मैं सही हूँ?

०२-

इमर्तियाँ छानते
कारीगर को देखकर
रुक गया
चौदह साल पुराना स्कूटर।
अंतस में भर गई मिठास
फिर भी
हाथ न गया
अपने ही पाकेट के पास।
याद आई
इ से इमली
बड़ी ई से ईख
भाव पूछा
तो संख्या की जगह
कानों तक पहुँची कोई चीख।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से पिघल रही है जिसकी धवल देह


रामगढ़ ( जिला : नैनीताल ) उत्तराखंड महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'हिन्दी कहानी और कविता पर अंतरंग बातचीत' के दो दिवसीय आयोजन ( ३० एवं ३१ अक्टूबर २००९ ) के दो दिनों के दौरान तीन कवितायें लिखी थीं जिनमें से दो को तो इसी जगह प्रस्तुत कर चुका हूँ। आज अभी कुछ मिनट पहले कविताओं की कंप्यूटरी फाइल को उलट - पुलट करते हुए तीसरी कविता को दोबारा लिखा - सा है और मन कर रहा है इसे हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में सबके साथ साझा कर लिया जाय , सो कविता को अपनी बात कहने का स्पेस देते हुए और स्वयं अधिक कुछ न कहते हुए आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :





वही हिमालय वही नगाधिराज

अभी तो
कवि कविता करते हैं
और कहानीकार बुनते हैं कोई कहानी
आलोचक चुप ही रहते हैं
उन्हें नहीं सूझता गुण - दोष।

अभी तो
आलमारियों में बन्द हैं किताबें
जो खुद से बतियाती हैं निश्शब्द
सड़क पहचानती है सबके पैरों के निशान
पेड़ इशारा करते हैं हिमशिखरों की ओर।

संगोष्ठी के समापन पर
करतल ध्वनि करता है हिमालय
शायद कोई नहीं देख रहा है
विदा में उठा हुआ उसका हाथ।

मैदानों में उतरकर
कवि कविता करते रहेंगे
कहानीकार बुनते रहेंगे कहानियाँ
आलोचक चुप्पी तोड़ेंगे और निकालेंगे मीन - मेख
फिर भी
सबके सपनों में आएगा हिमालय।

हाँ , वही हिमालय
वही नगाधिराज
जिसके लिए प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले
सुमित्रानंदन ने अपनी कविताओं में लुटाया है बेशुमार सोना।
वही हिमालय
जहाँ महादेवी वर्मा को बादल में दिखा था रूपसी का केशपाश।
वही हिमालय
जहाँ खिलते हैं बुराँश
और जहाँ ग्लेशियरों की उर्वर कोख से
मैदानों को आर्द्र करने के लिए जन्म लेती हैं सदानीरा नदियाँ।

आइए, यह भी याद करें
यह वही हिमालय है - वही नगाधिराज
हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से
पिघल रही है जिसकी धवल देह
और कोपेनहेगेन के सम्म्लेन द्वार तक
शायद पहुँच रही होगी जिसकी करुण पुकार।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

जैसे कि किसी लम्बे वाक्य से गिर पड़ता है एक शब्द

कल दिलीप चित्रे नहीं रहे। साहित्य और सिनेमा तथा चित्रकला की दुनिया में उन्हें बहुत आदर के साथ याद किया जाता है। अब यह कहते हुए कितना अजीब-सा लग रहा है कि वे हमारे बीच नहीं हैं। हमारे साथ अगर कुछ है तो उनका विपुल सृजन और बेशुमार यादें। शायद ऐसे ही मौकों के लिए 'प्यारे हरिचंद जू' ने कहा था कि ' कहानी रहि जायेगी' और दिलीप चित्रे जी की कहानी रहेगी , रहि जायेगी॥

कल देर रात उन पर एक श्रद्धंजलि पोस्ट लिखी थी , लिखी क्या थी कंपाइल की थी। बहुत दिनों दे उनकी कुछ कविताये अपने 'कंपूटरजी' के 'अनुवाद के लिए ' नाम्नी फोल्डर पड़ी थीं / पड़ी हैं और आलस्य तथा कार्याधिक्य के कारण 'आज नहीं तो कल' चलता रहा। अभी कुछ देर पहले दिलीप चित्रे जी की एक कविता 'Father Returning Home' का अनुवाद किया है दिवंगत सृजनकर्ता के प्रति पूरे आदर और सम्मान के साथ श्रद्धांजलि स्वरूप इसे साझा कर रहा हूँ :



घर वापस आते हुए पिता
( दिलीप चित्रे की कविता अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ))


देर शाम की रेलगाड़ी से
यात्रा करते हैं मेरे पिता
चुप्पी मारे यात्रियों के साथ
पीली रोशनी के साए में
खड़े हैं वे।
आँखे जो कुछ नहीं देखना चाहती हैं फिलहाल
उन्हीं से गुजर कर पीछे छूटते जा रहे हैं उपनगर।
गीली हैं उनकी पैन्ट व कमीज
काली बरसाती पर लगे हैं कीचड़ के धब्बे
और बाहर निकलने को बेचैन हैं उनके झोले में ठुँसी किताबें।
उम्र के भार से मंद हो चली उनकी आँखों में
उतर रहा है घर का रास्ता
बारिश से आर्द्र हुई इस रात में।

अब मैं देख सकता हूँ कि वे ट्रेन से उतर रहे हैं
वैसे ही जैसे कि किसी लम्बे वाक्य से गिर पड़ता है एक शब्द
वे हड़बड़ी में पार कर रहे हैं स्लेटी प्लेटफार्म की लम्बाई
फलाँग रहे हैं रेल की पटरियाँ और दाखिल हो जाते हैं गली में
कीचड़ से चिपचिपी हो चुकी हैं उनकी चप्पलें
फिर भी कम नहीं होती है उनकी हड़बड़ी।

घर वापसी - एक बार फिर
मैं उन्हें देखता हूँ -
पनियल चाय पीते
बासी रोटी कुतरते
किताब पढ़ते
वे संडास में दाखिल होते हैं ताकि विचार कर सकें
कि मनुष्य की बनाई दुनिया में
क्यों बढ़ रहा है मनुष्य का विलगाव
बाहर आकर वे काँपते दीखते हैं सिंक के पास
उनके भूरे हाथों से बह रहा है ठंडा पानी
कलाई के बुढ़ाते बालों से चिपकी हैं कुछ जल-बूँदें।
उनके रूठे - से बच्चे अक्सर टाल जाते हैं
साथ बाँटना मजाक और गुप्त बातें।

अब वे सोने चले जायेंगे
और सुनते रहेंगे रुके हुए समय को अपने रेडियो पर
वे सपने देखेंगे पुरखे - पुरनिया और नाती पोते के
वे सोचेंगे बंजारों के बारे में
जो एक सँकरे दर्रे से दाखिल हो रहे हैं किसी उपमहाद्वीप में।

क्योंकि पता चल गया है प्रेम का पता !




प्रेम

यह क्या है?
क्या पता !

यह क्यों है?
पता नहीं !

यह कैसा है?
क्या जाने !

यह कहाँ है?
अपने पते पर !

इसका पता ?
क्या पता !

क्या लापता ?
नहीं तो
यह मैंने कब कहा !

तो क्या कहा ?
प्रेम : मैंने कहा ।

और कुछ शेष ?
नहीं।

क्यों ?
क्योंकि पता चल गया है प्रेम का पता !

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

बाहर निकाल लो मेरी त्वचा से अपनी सुवास

निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें आप पहले भी पढ़ चुके हैं।यह कवि बार - बार अपनी ओर खींचता है । हर बार लगता है कि यह तो हमारी ही , हमारे ही मन की बात अपनी कविता में कर रहा है।इसमें ऐसा नया क्या है? शताब्दियों से मनुष्य के भीतर जो भी रागात्मक नाद बज रहा है बस उसी के अनुनाद को ही तो इसने वाणी दी है।आइए, आज उनकी इस छोटी - सी इस कविता के बहाने अपने भीतर के संसार में तनिक झाँके , पसंदीदा लिरिकल मोमेंट्स को पकड़े और थोड़ा- सा रूमानी हो जायें ! और क्या ! !


अवसर
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

खींच लो यह खंजर
जो धँसा है मेरे हृदय के पार्श्व में
मुझे जीने दो
बाहर निकाल लो मेरी त्वचा से अपनी सुवास।
मुझे एक अवसर दो :
कि मैं मिल सकूँ एक नई स्त्री से
कि मैं अपनी डायरी से मिटा दूँ तुम्हारा नाम
कि मैं काट दूँ तुम्हारे केशों की वेणियों को
जो बनी हुई हैं मेरी ग्रीवा की फाँस।

मुझे एक अवसर दो
कि नई राहों का अन्वेषण कर सकूँ
ऐसी राहें जिन पर कभी चला नहीं तुम्हारे साथ
ऐसे ठिकाने तलाशूँ
जहाँ कभी बैठा नहीं तुम्हारे संग
उन स्थलों का उत्खनन करूँ
जिन्होंने विस्मृत कर दिया है तुम्हारी स्मृति को।

मुझे एक अवसर दो
कि उस स्त्री को खोज सकूँ
जिसे मैंने बिसार दिया तुम्हारे लिए
और तुम्हारे लिए हत्या कर दी उसकी।

मैं फिर से जीना चाहता हूँ
एक अवसर दो मुझे
बस एक।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

काल का गवैया गाए जा रहा है राग भोपाल


घर में अंग्रेजी का अखबार देर से आता है - दिन में ११ बजे के आसपास , सो उसे रात को ही बाँचता हूँ फुरसत से। कल रात में अखबार पढ़ते हुए देखा कि पूरा एक पेज भोपाल गैस कांड / गैस त्रासदी पर है मय तस्वीरों के। बहुत देर तक मन में उथल - पुथल होती रही और आधी रात गए कुछ यूँ ही लिख लिया गया। आप चाहें तो इसे कविता भी कह सकते हैं :

राग भोपाल

चौथाई सदी से
बज रहा है यह
ध्वनि के सहयात्री हैं -
धूल - धक्कड़
धुआँ
आँसू
आग।

चौथाई सदी से
साल दर साल
तस्वीरें
लेख
कविता
फ़िल्म
सभा - संगत
और भी बहुत कुछ।

चौथाई सदी से
हम गिन रहे हैं दिन महीने साल
घिसने लग गए हैं उंगलियों के पोर
हलक में बार -बार उतरता है पिघला क्रंदन
नथुनों से गई नहीं है अभी मृत्यु -गंध।

जिजीविषा
चौथाई सदी से डाले जा रही है
जीवन की अंगीठी में कोयले काले - काले
और उभर रही है उजली आग
सुनो!
अगर सुन सको तो
सुनो !
अगर कान के परदे अब भी टँगे हैं सही जगह तो
काल का गवैया
गाए जा रहा है राग भोपाल
और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

प्रेम कई तरह से आपको छूता है : कविता और कलाकृति की जुगलबंदी


कुछ समय पहले मैंने 'कबाड़खाना' पर रानी जयचन्द्रन की कविताओं के कुछ अनुवाद प्रस्तुत किए थे। इन कविताओं के चुनाव के पीछे मंशा यही थी कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता में आजकल क्या / कैसा चल रहा है , उससे रू-ब-रू हुआ जाय और प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते की रागात्मक डोर को स्पर्श किया जाय।अब जबकि हमारे चारों ओर प्रकृति के बिगड़ते चेहरे पर विमर्श का बोलबाला है किन्तु उसको बचाने - बनाने - सँवारने के काम में वह गर्मजोशी और सक्रियता नहीं है जो होनी चाहिए , जो जरूरी ही नहीं अनिवार्य भी है।

रानी जयचन्द्रन की कवितायें हमारे भीतर की बची हुई संवेदनशीलता को नम बनाए रखने में मदद करती हैं साथ ही वह बात को कहने का एक अलग मुहावरा भी सामने रखती हैं।अनुवाद में मैं उनकी बात को कितना पकड़ पाया यह तो सहृदय पाठक जानें किन्तु यह देखकर खुशी हुई कि एक चित्रकार को इससे चित्र बनाने की प्रेरणा मिली। इसी बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि कविता और चित्रकला के सम्मिलन का निमित्त मेरे द्वारा किया गया एक अनुवाद बना। अधिकांश लोगों के लिए यह एक साधारण बात हो सकती है किन्तु मेरे लिए यह एक खुशी का अवसर है और अनुवाद जैसे श्रमसाध्य काम की स्वीकृति भी।

भाई रवीन्द्र व्यास के कई रूप हैं - वे एक चित्रकार और ब्लागर हैं उन्होंने 'वेबदुनिया' के अपने साप्ताहिक कालम में रानी जयचन्द्रन की कविता 'जादुई प्रेम' को आधार बनाकर या उसके बहाने या उससे प्रेरित होकर एक चित्र बनाया है और बहुत अच्छा आलेख लिखा है जो इस कविता को देखे जाने के ( एक अलग ) नजरिए की ओर इशारा करता है। शुक्रिया रवीन्द्र भाई ! लीजिए 'वेबदुनिया' से साभार और यथावत प्रस्तुत है रवीन्द्र जी का वह चित्र और आलेख :

चाँदनी की रश्मियों से चित्रित छायाएँ
( रानी जयचंद्रन की कविता और प्रेरित कलाकृति )


प्रेम कई तरह से आपको छूता है, स्पर्श करता है. आपकी साँसों को महका देता है। और यह सब इतने महीन और नायाब तरीकों से होता है कि कई बार आप उसे समझ नहीं पाते। यह एक तरह का जादू है। यह कभी भी, कहीं भी फूट पड़ता है, खिल उठता है, महक उठता है। इसी जादुई अहसास से जब प्रेमी अपनी आँखों से जो कुछ भी देखता है उसे वह प्रेममय जान पड़ता है।

उसे लगता है कायनात का हर जर्रा प्रेममय है। हर तरफ प्रेम के दृश्य हैं, हर तरफ प्रेम के ही बिम्ब हैं और हर तरफ प्रेम के ही फूल खिले हैं। रानी जयचंद्रन केरल की युवा कवयित्री हैं। उनकी कविताओं का नया संग्रह हाल ही में आया है जिसमें कुछ कविताओं का अनुवाद एक ब्लॉगर और कवि सिद्धेश्वर ने किया है। रानी की एक कविता है जादुई प्रेम। इसमें केरल की प्राकृतिक सुंदरता तो है ही लेकिन उससे भी सुंदर है रानी की वह प्रेमिल आँख जिसके जरिए वह प्रकृति का मार्मिक और खूबसूरत मानवीयकरण करती हैं।
कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

अस्ताचल के आलिंगन में आबद्ध
डूबता सूरज
समुद्र से कर रहा है प्यार
इस सौन्दर्य के वशीकरण में बँधकर
देर तक खड़ी रह जाती हूँ मैं
और करती हूँ इस अद्भुत मिलन का साक्षात्कार।

यह एक आम दृश्य है। हम सब ने इसे कभी न कभी, कहीं न कहीं देखा है लेकिन क्या हमने इसका साक्षात्कार किया है। इसे महसूस किया है। एक कवयित्री एक आम दृश्य को अपनी विलक्षण प्रेमिल निगाह से उसे एक अद्वितीयता दे रही है। आगे की पंक्तियों पर गौर फरमाएँ-

प्यार की प्रतिज्ञाओं और उम्मीदों से भरी
भीनी हवा के जादुई स्पर्श से
अभिभूत और आनंदित मैं
व्यतीत करती हूँ अपना ज्यादातर वक्त
यहीं इसी जगह
और मुक्त हो देखती हूँ
जल में काँपते चाँद को बारम्बार।

हम हमारा ज्यादातर समय कहाँ व्यतीत करते हैं। शायद अधिकांश समय हम नकली और भड़कीले चीजों को देखने में नष्ट कर देते हैं। भड़कीले और शोरभरे दृश्यों को देखने में नष्ट कर देते हैं। लेकिन एक कवयित्री हमें दृश्य दिखा रही है जिसमें सुंदरता है, बिम्ब है और इस दृश्य के जरिये उदात्त मानवीय भावनाएँ अभिव्यक्त हो रही हैं। यहाँ भीनी हवा का अहसास ही नहीं है उसका जादुई स्पर्श है, और मुक्त होकर जल में काँपते चाँद को देखने का विरल अनुभव भी। यह हमारे अनुभव को कुछ ज्यादा मानवीय बनाता है, ज्यादा सुंदर बनाता है।

इस अद्भुत मिलन के दृश्य से
भीगकर भारी हुई पृथ्वी
खड़ी रह गई है तृप्त -विभोर।
और चाँदनी की रश्मियों से चित्रित
बनी - अधबनी छायाएँ
फैलती ही जाती हैं वसुन्धरा के चित्रपट पर
यहाँ-वहाँ हर ओर।

और कविता का असल मर्म आखिर में खुलता है कि यह अद्भुत मिलन का दृश्य है जिससे भीगकर हमारी यह पृथ्वी भारी हो गई है और उसकी छायाएँ वसुंधरा पर फैलती जा रही हैं। यह प्रेम का ही विस्तार है। प्रेम ही हमें उदात्त बनाता है, विशाल बनाता है और आंतरिक खुशी के साथ आंतरिक वैभव भी प्रदान करता है। जिस तरह सूर्य, प्रृथ्वी, हवा, चाँद और मिलन से यह कविता वैभवपूर्ण और विशाल बनती है यह सिर्फ प्रेम की वजह से ही संभव है।