सोमवार, 18 मई 2009

मैं एक गुलमुहर हूँ धूप में सुलगता हुआ

पिछली पोस्ट के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए और यह सूचना देते हुए कि सुबह-सुबह जो दो शे'र बने थे और अंदेशा था कि 'उम्मीद है कि शाम तक ग़ज़ल पूरी हो जाये ' सो वह काम शाम ढलने से पहले ही हो गया है , ग़ज़ल पूरी हो गई है और कविता -शायरी के प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत है. और क्या कहूँ ...? 'कवित विवेक एक नहीं मोरे...'

मुझे उर्दू नहीं आती उसे हिन्दी नहीं आती.
मगर क्या मान लें कि बात भी करनी नहीं आती.

सुबह की रोशनी में तीरगी का रंग शामिल है,
किसी अखबार में कोई ख़बर अच्छी नहीं आती.

मैं एक गुलमुहर हूँ धूप में जलता - सुलगता -सा,
कभी मुझपर मुहब्बत की कोई तितली नहीं आती.

मेरे शेरों में हरदम है कोई परचम -सा लहराता,
कभी आँचल नहीं आता कभी चुनरी नहीं आती.

गुफ़्तगू होती रहती है फ़क़त रेतीले बगूलों से,
यहाँ बारिश नहीं आती यहाँ बदली नहीं आती.

अगर मौसम ने थोड़ी-सी तरावट बख्श दी होती,
यकीकन शायरी में इस कदर तल्खी नहीं आती।

( चित्र एलिज़ाबेथ ब्रुनर , इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की वेबसाइटट से साभार )

15 टिप्‍पणियां:

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत बढ़िया चच्चा !
*****************
जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए !

sanjiv gautam ने कहा…

मुझे उर्दू नहीं आती उसे हिन्दी नहीं आती.
मगर क्या मान लें कि बात भी करनी नहीं आती.

सुबह की रोशनी में तीरगी का रंग शामिल है,
किसी अखबार में कोई ख़बर अच्छी नहीं आती.
बहुत अच्छे शेर हैं! लाजवाब!बधाई
लेकिन्
मैं एक गुलमुहर हूँ धूप में सुलगता हुआ,
तथा
गुफ़्तगू होती रहती फ़क़त रेतीले बगूलों से,
में क्या कुछ छूट गया है? लय टूट रही है.

siddheshwar singh ने कहा…

शुक्रिया भाई संजीव गौतम जी,
आपकी टिप्पणी के बाद मेरा ध्यान गया दो शे'रों में लय कुछ टूट रही पाई गई , अब सुधार दिया है. बतायें कुछ ठीक हुआ क्या?
एक बार फिर शुक्रिया !

पारुल "पुखराज" ने कहा…

गुफ़्तगू होती रहती है फ़क़त रेतीले बगूलों से,
यहाँ बारिश नहीं आती यहाँ बदली नहीं आती.

बहुत खूब ..सुबह को पढा ..पूरी ग़ज़ल का इंतज़ार था

Udan Tashtari ने कहा…

मुझे उर्दू नहीं आती उसे हिन्दी नहीं आती.
मगर क्या मान लें कि बात भी करनी नहीं आती.

-बहुत बेहतरीन!!!!!!

अमिताभ मीत ने कहा…

भाई ! ढाई बज रहे हैं ( रात के ) .... कुछ गीत ... ग़ज़लें सुन के सोने जा रहा था कि आप की ये पोस्ट पढ़ ली ... क्या कहूँ ? बिना कुछ कहे भी आ कुछ समझते हैं ?

Sudhir (सुधीर) ने कहा…

मुझे उर्दू नहीं आती उसे हिन्दी नहीं आती.
मगर क्या मान लें कि बात भी करनी नहीं आती.

उत्तम, अति उत्तम .....

डॉ .अनुराग ने कहा…

अगर मौसम ने थोड़ी-सी तरावट बख्श दी होती,
यकीकन शायरी में इस कदर तल्खी नहीं आती।

ये शेर दिलचस्प है ......अलबत्ता इसकी पहली लाइन में ओर ट्विस्ट लाया जा सकता है.....

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

वाह भई...!

मुझे उर्दू नहीं आती उसे हिन्दी नहीं आती.
मगर क्या मान लें कि बात भी करनी नहीं आती.

मुझे अपना आंध्रा प्रवास याद आ गया..! विदा के समय जो महिला की आँख में सब से अधिक आँसू आ रहे थे, उसकी मेरी बात न के बराबार हुई..लेकिन ऐसा नही था कि हमने बात नही की थी।

मेरे शेरों में हरदम है कोई परचम -सा लहराता,
कभी आँचल नहीं आता कभी चुनरी नहीं आती.

बहुत खूब..!

ललितमोहन त्रिवेदी ने कहा…

आपके दो शेर सुबह ही पढ़ लिए थे पूरी ग़ज़ल अभी पढ़ी ! बहुत अच्छी रचना है कथ्य और शिल्प दौनों की दृष्टि से परन्तु दो पंक्तियों की लयमें कुछ अटकता प्रतीत होता है (हो सकता है मैं गलत होऊं )....मै एक गुलमुहर ......,तथा ...गुफ्तगू होती ........! आपकी हर रचना परिपूर्ण होती है तो ग़ज़ल ही बाकी क्यों रहे ? क्षमा याचना सहित !

Pratibha Katiyar ने कहा…

मैं एक गुलमुहर हूं धूप में जलता सुलगता सा
कभी मुझ पर मोहब्बत की कोई तितली नहीं आती.
बहुत सुंदर गज़ल.
बधाई

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

आप तो ऐसे न थे!

अंतिम पंक्तियाँ पढ़ने के बाद
समझ में आया
कि यह सब
मौसम की खुश्की का असर है!

शरद कोकास ने कहा…

सिद्धेश्वर जी. हिन्दी-उर्दु के बहनापे पर तो बहुत से शेर हैं लेकिन यहाँ तो विषय प्रेम है जो भाषा का मोहताज़ नही होता.भिलाई मे गुलमोहर के ढेरों पॆड है उनके सुर्ख फूलों को आपकी गज़ल मे देख रहा हूँ.

मुनीश ( munish ) ने कहा…

very well said indeed! itz something i can relate to . exceptional . vaah saab vaah!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"मैं एक गुलमुहर हूँ
धूप में जलता - सुलगता -सा,
कभी मुझ पर मुहब्बत की
कोई तितली नहीं आती."

सुन्दर अभिव्यक्ति।
बधाई।