रविवार, 22 जून 2008

विश्व संगीत दिवस पर प्रकृति के पहले संगीतकार की याद



आज पता चला है कि विश्व संगीत दिवस है. इसके इतिहास-भूगोल अदि-इत्यादि के बारे में कोई जानकारी मुझे नहीं है.यदि किसी को पता है तो बताए.वैसे मैं खुद कुछ पता करने का प्रयास करूंगा. अपना तो रोज ही संगीत दिवस होता है. एक नन्हीं -सी चिड़िया कोयल को मैं विश्व का पहला संगीतकार मानता हूं. कम से कम जिस प्रकृति और परिवेश में मेरा निर्माण हुआ है उसमें तो यही सच है -मेरा अपना सच.

३० अप्रेल २००८ को खूब तपन थी - लू,उमस ,गर्मी,पसीना॥चिपचिप। झुलसाती हुई दोपहर थी लेकिन काम था तो घर से बाहर निकलना ही था. सड़क के दोनो ओर गुलमुहर के कई पेड़ हैं,कुछ अमलतास के भी.लाल-लाल आभा बिखरी हुई थी. ऐसे में नमक के गोदाम वाले उजाड़ के पास से गुजरते हुए अचानक कोयल की कूक सुनाई दी थी. मुझे रुकना पड़ा था. कितने दिनों बाद सुनी थी यह आवाज. इस आवाज से कितना गहरा नाता है-सीधे बचपन में उतार देती है यह आवाज जब गर्मियों के भिनसार में चू पड़ने को आतुर महुए की मादक गंध और अंधेरे में टपकते आम के अन्वेषण का आनंद उठाते-उठाते हमारी एक पीढ़ी जवान हो गई थी.

थोड़ी फुरसत मिलने पर कवितानुमा कुछ लिख मारा था। वही प्रस्तुत है शायद आप को ठीकठाक लगे-

उजाड़ में कोयल



उजाड़ में कूक रही है कोयल
कू॥ऊ..कू..ऊ..



क्या कोई सुन रहा है तुम्हारा गाना
सभी खुद में अस्त-व्यस्त हैं
गरमी के मारे बुरा हाल है
झुलस रहा है सबकुछ
धू॥ऊ..धू..ऊ..


प्यारी कोयल
अब तो साहित्य-संगीत-कला में ही
सुरक्षित बचा है तुम्हारा गान
हम जैसे लोगों के पास कहां बचे हैं कान
आंखें तो कबकी मुंदी पड़ी हैं
और मुंह पर जड़ा है बड़ा-सा ताला
हमें तो बस दिखाई देता है
अपना हिस्सा - अपना गस्सा - अपना निवाला।


कूको! कोयल जी भर कूको!
चाहे गरियाओ, चाहे मुंह पर थूको
हम न सुनेंगे
तुम्हारी रोज-रोज की कू..ऊ..कू..ऊ..
उमस,तपन,गरमी के मारे बुरा हाल है
झुलस रहा है सबकुछ
धू॥ऊ..धू..ऊ..



धूप में चुपचाप खड़ा है गुलमुहर
गजब का लाल-लाल है
रोज-ब-रोज बढती जाती है उसकी दीप्ति
क्या पता उसका भी बुरा हाल है
या सबकी ऐसी तैसी फेरता हुआ
शान से झल रहा है अपना पंखा
सट्ट सू॥ऊ..सट्ट सू..ऊ..



उजाड़ में कूक रही है कोयल
कू..ऊ..कू..ऊ..

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