सोमवार, 3 मार्च 2008

यात्रा से लौटकर शब्दों की दुनिया में कुछ बेतरतीब


कई दिनों की लंबी यात्रा के बाद घर लौटा हूं।


इस बीच कई चीजें बदल-सी गई हैं।अपने छोटे-से बगीचे के पौधे कुछ अधिक हरे और ताजे दिखाई दे रहे हैं.सर्दी कम होते देख अब तक अलसाई दूब ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. कुछ बेमतलब की खरपतवार भी उग आई है.निराई-गुड़ाई की जरूरत जान पड़ती है. गमलों में कुछ नए फूलों ने अपनी आमद दर्ज की है.कुछ फूल पुराने पड़कर चला-चली की तैयारी में हैं.सड़क के किनारे लगे आम के वृक्षों पर बौर आ गए हैं.उनके नीचे से गुजरने पर एक ऐसी खशबू आती है जो सीधे बचपन में खींच ले जाती है.जिस रास्ते पर शाम को हम टहलने जाते हैं उसके किनारे के खेतों में लगी गेहूं की फसल पुष्ट हो गई है.दाने अन्न बनने की दिशा में तेज रफ्तार से कूच कर रहे हैं.बाजार में अंगूर की रंगदारी चल रही है.उसे पछाड़ने वाला फिलहाल तो कोई नहीं दिखाई दे रहा है.फलों के राजा कहे जाने वाले आम! मुझ प्रजा के द्वार तक चलकर कब आओगे तुम?


अगर घर से बाहर की यात्रा पर नहीं जाता तो ये सब परिवर्तन कैसे देख पाता!


घर के भीतर मकड़ियों ने कुछ नए जाल बुने हैं.कल सुबह उनकी कारीगरी के शानदार नमूने को झाड़ू से साफ कर दिया जाएगा.हमें अपनी दीवार पर कोई भी धब्बा मंजूर नहीं है.बाहर की दुनिया में बहुत जाला है.क्या इस जाले को कविता से साफ किया सकता है? पता नहीं कितनी शताब्दियों से कितनी-कितनी भाषाओं के कितने-कितने कवि इस कोशिश में लगे हैं और लगे रहेंगे.


एक शब्दों की दुनिया है जो हमें जोड़ती है।


हजारों मील दूर बैठे बुरी तरह् घायल एक अनदेखे कहानीकार का हालचाल फोन पर पूछता हूं तो भावुक होकर वह शब्दों की दुनिया की बात करता है।एक युवा नारीवादी और लेखिका पहली ही मुलाकात में अपने आसपास सुने एक ऐसे जुमले को उछाल देती है कि पास बैठे विद्वान सन्न रह जाते हैं.यह भी शब्दों की एक दुनिया है.अपने आस पास जिसे देख रहा हूं वह शब्दों की दुनिया में या तो बहस में है या फिर बहस से बाहर,परे और सुरक्षित।

अपने अंदर की यात्रा के लिए घर से बाहर की यात्रा करना कितना जरूरी है यह अब समझ में आ रहा है।इस यात्रा में एक कवि से मुलाकात हुई, वह भी बहुत हड़बड़ी और आपाधापी में.कवियों से फुरसत से मिलना चाहिए किन्तु इस अकवितापुर्ण समय में न तो कवियों के पास और न ही पाठकों के पास इफरात का समय है फिर भी शब्दों की दुनिया वाले हम सब रोज नई कवितायें न केवल लिख रहे हैं बल्कि पढ़ और सुन भी रहे हैं.


इस बार की यात्रा में मिले एक संकोची कवि ने बिना किसी संकोच के अपनी एक प्रकाशित कविता की ब्लॉग प्रस्तुति की अनुमति दी है.प्रस्तुत है १९९३ मे 'अयोध्या १९९१'कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि अनिल कुमार सिंह की एक कविता 'जैसाकि कहा था उन्होंने उस दिन'. उनका एक संग्रह ' पहला उपदेश' २००१ में राधाकृष्ण से छपकर खासा चर्चित हुआ था.

जैसाकि कहा था उन्होने उस दिन


अनन्त भीड़ में
अलग से पहचानना मुश्किल है
किसी खास चेहरे को

चिंता की लकीरों ने एक से
अक्स बनाये हैं उन पर
स्वास्थ्य और यौवन का
दप -दप तेज नहीं है उन पर
जैसा कि कहा था उन्होंने उस दिन

मेज पर रखी किताबों की तरह
धूल से अटी हैं आंखें उनकी
उनकी शोखी तो कबकी खो चुकी

लगातार पुराने पड़ते जाने
त्रासदी है स्थायित्व
जैसेकि झील की तरंगों पर वलयित
अपने ही चेहरे को
देखे कोई स्थिर होने तक

वहॉ झील की गहराई नहीं है
सुखे हुए होथों पर उगे हैं पपोटे
आंखें हैं अनिद्रा के शाप से
धंसी हुई अंदर को
दुःख है चेहरे को थामे
अपने दोनों हाथों पर

और शायद आकांक्षांओं का जंगल है
आर-पार .

(कविता 'उर्वर प्रदेश' संग्रह से साभार और ऊपर की तस्वीर कक्षा ७ में पढ़ने वाली छायाकार हिमानी सिंह की अनुमति से.तस्वीर फूल-पौधों की है उनसे अनुमति कैसे ली जाए,कोई तो बताए!)

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

सुखद आश्चर्य - कहना तो कोई आपसे सीखे,- कहा भी और नहीं भी - फिलहाल बागबानी और फसल की तरक्की पर अब [ "अपने छोटे-से बगीचे के पौधे कुछ अधिक हरे और ताजे दिखाई दे रहे हैं"] और तब [ " खूब छींटे किसिम -किसिम के बीज / पर उगा न एक भी बिरवा छतनार" ] में फर्क दिखा - सादर - मनीष

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

सुंदर और सारगर्भित , अच्छा लगा पढ़कर !

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

जवाहिर चा !
तीन दिन पहले अजोध्या से अनिल भाई का फोन आया था। बहुत दिन बाद उनसे बात हुई, उन्होंने आपसे हुई मुलाकात के बारे में बताया।
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