यह नीचे जो कुछ इस परिचयात्मक भूमिका के बाद अलग से बेतरतीब पंक्तियों में लिखा गया है ; एक कविता भी है और इसे पढ़ने की सुविधा के लिहाज से अलग- अलग पाँच कवितायें भी कह सकते हैं। बात यह है कि इसी संसार में अपने होने का भास - आभास कराता एक और संसार भी है जो कि अब अपनी उपस्थिति की छवियों से स्थूल जगत की बनावट को बदल रहा है व व्यतिक्रमित कर रहा है। इस कविता में जो कुछ भी दिख सकने में सक्षम है ; वह इसी व्यतिक्रम को एक क्रम देने भर की कोशिश है बस। तो , आइए , इसे देखें - पढ़ें...:
०१-
बोलते हैं बतियाते हैं
अव्यक्त को
व्यक्त में छापते
छिपाते।
साथ - साथ चलते हैं
राह
नहीं किन्तु पाते।
०२-
सुनी जाने लायक
चुप्पी के सहचर।
साथ चलते हैं
देर तक
दूर तक
अक्सर।
०३-
कहीं नहीं है आईना
न ही कहीं
ठहरा हुआ है जल।
खुद की हथेलियों में
देखते है खुद को
पल - प्रतिपल विकल।
०४-
कुहराछन्न संसार
न कहीं इसका ओर - छोर।
डरपाती हैं
विविध रूपधारी छायायें
कभी थमा देतीं
अक्सर छुड़ा लेतीं डोर।
०५-
पथ - पथिक
राहगीर - राह
गति- प्रवाह।
नीयत - नीति - निबाह
सतत सचल
वाह - आह - उफ़ - हाय ।
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